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झुग्गी-झोपड़ी वाली लड़कियों की शिक्षा पाने की ज़िद के आगे हार गए समाज के ‘ताने’ और ‘पत्थर’

शिक्षा की ऐसी इच्छा जिसने तोड़ डाला मुश्किलों का पहाड़। झांसी की एक दलित बस्ती में बाघरी समुदाय का क़रीब 200 परिवार रहता है। इस समुदाय की कुछ लड़कियों ने अपने समाज के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए पढ़ने-पढ़ाने की ठान ली। अपने इस फ़ैसले के बाद समाज द्वारा लाई गई तमाम रुकावटों को पार कर उन्होंने यह बात अमल कर दी कि “जहां चाह है, वहां राह है।”


By Medhavini Mohan, 6 May 2023


झुग्गी-झोपड़ी की एक लड़की अपने समुदाय के बच्चों को पढ़ाती हुई।

देश में ग़रीबी की क्या स्थिति है, कितने लोग अभी भी निरक्षरता से जूझ रहे हैं और घोर अभावों वाली ज़िंदगी जी रहे हैं – इन सब पर नज़र डालनी हो तो किसी भी शहर की किसी मलिन बस्ती का रुख कर लीजिए! नशे और जुए की लत के अलावा, महिलाओं की ख़राब हालत और पिछड़ापन भी वहां बखूबी देखने को मिलेगा। ऐसी किसी बस्ती में कुछ लड़कियां पढ़ने की ज़िद पाल लें और रोज़ाना समाज के ताने सुनकर भी रुकें नहीं बल्कि ख़ुद पढ़ने के साथ-साथ दूसरे बच्चों को पढ़ाने के लिए मोहल्ले वालों से पत्थर खाने से भी न चूकें – ऐसी हिम्मत, ऐसा जज़्बा जल्दी देखने को नहीं मिलता। अगर आप उत्तर प्रदेश में झांसी शहर के इंद्रानगर इलाके में जाएं, तो वहां की एक मलिन बस्ती में रहने वाली कुछ लड़कियों की पढ़ाई को लेकर दीवानगी देखते रह जाएंगे। इस बस्ती में मुख्य तौर पर बाघरी समुदाय के लोग रहते हैं।

बाघरी समुदाय को 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत जनजाति के तौर पर गैर ज़मानती अपराध करने वाली जनजातियों की सूची में रखा गया था। साल 1952 में, उन्हें इस सूची से बाहर कर दिया गया। बाद में उन्होंने जो पेशे अपनाए, उनमें एक मुख्य पेशा था; पुराने कपड़ों के बदले बर्तन बेचना। सिर पर बर्तनों की डलिया लादे, गली-गली कपड़ों के बदले बर्तन बेचती महिलाएं आपने देखी होंगी? यह चलन भले ही कम हो गया है, लेकिन ख़ासकर छोटे शहरों में अब भी यह काम बाघरी समुदाय की रोज़ी है।

मालूम हो कि बाघरी जनजाति मूल तौर पर गुजरात से ताल्लुक रखती है, मगर घुमंतू होने की वज़ह से यह देश के कई हिस्सों में फैली हुई है। रोज़ी-रोटी की तलाश में बाघरी समुदाय का एक हिस्सा बुंदेलखंड के ज़िलों में भी बसा हुआ है।

झांसी शहर की जिस बस्ती की हम बात कर रहे हैं, उसमें इनके साथ अन्य घुमंतू जनजातियों या पिछड़े समुदायों का भी डेरा है। यहां अलग-अलग भाषा-बोली बोलने वाले क़रीब 400 परिवार रहते हैं। कोई बर्तन-कपड़े वाली फेरी लगाने का काम करता है, कोई मजदूरी, कोई दूसरों के घरों में झाडू-पोछा तो कुछ बेरोज़गार भी हैं। यहां लड़कों की पढ़ाई को भी अहमियत नहीं दी जाती, क्योंकि उनका मानना है कि आगे चलकर करना तो फेरी वगैरह ही है, फिर पढ़-लिखकर क्यों वक़्त बर्बाद करना? ऐसे में लड़कियों का पढ़ना तो फिर यहां कल्पना से परे की कोई चीज़ थी।

जिस लड़की के हाथ में किताब है, वह आरती है। वह डॉक्टर बनना चाहती है, इसलिए साथ में खड़ी उसकी बहन उसके हिस्से का घर का सारा काम कर देती है।

इस बीच, कुछ समाजसेवी संगठन दूसरी बस्तियों की तरह यहां भी किताबें, कॉपी, पेन-पेंसिल दे जाते, मगर पढ़ाने कोई नहीं आता। यहां रहने वाली एक बच्ची रेखा इन किताबों को हसरत से देखा करती। फिर एक बार शहर के कुछ जागरूक लोगों ने यहां शिक्षा की अलख जगाने की कोशिश की, जिसमें उनका साथ देने वालों में 7-8 साल की रेखा सबसे आगे थी। आज से 22 साल पहले बस्ती में जब लोग पढ़ाने आते, तो कॉपी-किताब लेकर रेखा सबसे आगे बैठी होती। अपनी मां से बहुत डांट खाती, पिटाई भी होती, पर पढ़ने के लिए उसे सब बर्दाश्त था।

कौन हैं बस्ती के आचार्य जी

समाजसेवी राजकुमार द्विवेदी की कोशिशों से और संस्था विद्या भारती की मदद से, यहां ‘सरस्वती संस्कार केंद्र’ नाम का स्कूल खोला गया। शहर में राजकुमार को आचार्य जी के नाम से जाना जाता है, जिन्होंने मानो इस बस्ती को गोद ले लिया हो और उसकी बेहतरी के काम में जुट गए। इसके लिए उन्होंने ‘सेवा समर्पण समिति’ नाम का एनजीओ भी बनाया। इसका उद्देश्य बस्ती के बच्चों को पढ़ाना और लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाना था। रेखा ने यहां के स्कूल से तीसरी कक्षा पास की, उसके बाद उसका नाम सरस्वती शिशु मंदिर में लिखवाया गया।

उस समय बस्ती वालों ने इसका बहुत विरोध किया कि रेखा स्कर्ट पहनकर स्कूल जाती है। वे इसको लेकर अनहोनी की आशंका जताते थे। जबकि, उसकी लगन देखकर राजकुमार द्विवेदी ने उसे साइकिल भी दिलाई, जिस पर सवार होकर वह सबके ताने झेलते हुए रोज़ पढ़ने जाती। वह स्कूल से लौटने पर अपनी मां के साथ बर्तन-कपड़ों वाली फेरी लगाने भी जाती। बहनों के साथ मिलकर घर का काम भी करना होता। इसके अलावा बर्तन के बदले मिले कपड़ों को अलग करने, धोने, प्रेस करने और फिर उन्हें नया-सा करने के बाद बेचने के काम में घर वालों का हाथ भी बंटाना होता।

सबसे आगे बैठी रेखा अपने समुदाय की सर्वाधिक शिक्षित व्यक्ति हैं।

रेखा ने सबसे पहले तोड़ी जंजीर

रेखा बताती हैं, “मां के साथ फेरी पर जाती तो डर लगता कि स्कूल की सहेलियां न देख लें। जान-पहचान के लोगों के मोहल्ले से गुज़रती, तो बर्तनों के टब से अपना मुंह ढंक लेती। इतने कामों के साथ पढ़ाई हो नहीं पाती थी। ऐसे में मेरी छोटी बहन मीना ने मेरी मुश्किल हल की। वह बोली कि मैं तेरे बदले का सारा काम कर लूंगी। तू पढ़ और हमारी सबसे छोटी बहन सुनीता को भी पढ़ा। इस तरह बहन का साथ पाकर और समाज का विरोध झेलते-झेलते किसी तरह मैं नौंवी कक्षा तक पहुंच गई।”

“अब तो विरोध एकदम सिर पर आ पहुंचा। शादी का दबाव बहुत ज़्यादा था। मेरे लाख मना करने पर भी मेरी पढ़ाई छुड़वा दी गई। मां का कहना था कि पढ़-लिखकर कुछ नहीं होगा और फेरी का काम नहीं सीखेगी तो फिर क्या करेगी। आचार्य जी ने तब मां को किसी तरह समझाया और मेरा नाम ऐसे स्कूल में लिखवाया जहां हफ़्ते में चार दिन ही जाना होता था। बाकी दिन मैं मां के साथ फेरी पर जाती। इतनी जल्दी शादी के लिए मैं किसी हाल में राज़ी नहीं थी, मुझे कुछ करना था ज़िंदगी में,” उन्होंने अपनी बात में जोड़ा।

वह आगे कहती हैं, “मैंने, मेरी छोटी बहन सुनीता और बस्ती की एक और लड़की निशा ने वर्ष 2012 में जब फ़र्स्ट डिवीज़न से हाई स्कूल पास किया तो सरकार की तरफ़ से हमें 15-15 हज़ार रुपये और एक-एक साइकिल मिली। यह देखने के बाद बस्ती वालों को लगा कि पढ़ने से कुछ मिल भी सकता है। इंटर पास करने पर भी मुझे 20 हज़ार रुपये मिले थे। इसी तरह लड़ते-झगड़ते मैंने बीए पास कर लिया। उस समय बहुत ज़्यादा बड़ी बात थी और हमारे जानने वालों में मैं ग्रेजुएशन करने वाली पहली लड़की थी, ख़ासतौर पर बाघरी समुदाय में। उसके बाद आचार्य जी के स्कूल में ही मैंने दूसरे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।”

रेखा बताती हैं, “लेकिन राह इतनी आसान नहीं थी। एक बार बस्ती में किसी बात पर बड़ा झगड़ा हो गया और मारपीट की स्थिति बन गई। ऐसे में मैंने 100 नंबर पर फ़ोन करके पुलिस को बता दिया, ताकि झगड़ा रुक सके। इस बात पर सब बहुत गुस्सा हुए। उनका कहना था कि अगर मैं इतना पढ़ती-लिखती नहीं, तो मेरी इतनी हिम्मत नहीं होती। सब मोहल्ले वाले एक साथ हो गए और मेरे परिवार से बोलचाल बंद कर दी। वे बोले कि अपने बच्चों को मेरे पास पढ़ने नहीं भेजेंगे। फिर भी मैं जब उन्हें पढ़ाने के लिए स्कूल जाती, तो मेरे ऊपर बस्ती के लोग पत्थर फेंकते थे; लेकिन मैंने जाना नहीं छोड़ा। साथ की दूसरी लड़कियों को भी मेरे चक्कर में पत्थर खाने पड़े। फिर धीरे-धीरे सब ठीक हो गया।”

रेखा की पढ़ाई पूरी होने के बाद अब बस्ती की दूसरी लड़कियों के लिए रास्ता खुल गया था। उन्हें वैसा विरोध नहीं झेलना पड़ा। रेखा बताती हैं, “जब मेरी शादी का समय आया, तो जाति में ही योग्य लड़का ढूंढ़ना नामुमकिन था। हमारे यहां लड़के दूसरी कक्षा भी पास हों तो बड़ी बात थी। मैंने दूसरी जाति में शादी करना इसलिए नहीं चुना, क्योंकि इससे मेरी बस्ती की लड़कियों की पढ़ाई की राह और भी बहुत मुश्किल हो जाती। सब कहते कि पढ़-लिखकर एकदम बागी हो गई, इसलिए मैंने फ़ैसला किया कि अपने ही समाज में ऐसा लड़का चुनूंगी जो मुझे टीचिंग करने दे। जबलपुर में मेरी शादी हुई और लड़का झांसी में रहकर ही काम-धंधा करने को तैयार हो गया।”

वह आगे कहती हैं, “शादी के बाद मुझे सरस्वती शिशु मंदिर में प्रिंसिपल के तौर पर नौकरी करने का मौक़ा भी मिला। हमारे समुदाय से निकलकर किसी लड़की का प्रिंसिपल बनना भी सपने जैसी बात थी। कोरोना आने तक मैंने वहां नौकरी की, फिर सैलरी मिलनी बंद हो गई और नौकरी भी छूट गई। मैं फिर से बस्ती के स्कूल में पढ़ाने लगी। अभी मेरी दो साल की बेटी है, तो टीचिंग में थोड़ा कम वक़्त दे पा रही हूं। मेरे बाद पूजा ने बस्ती के स्कूल को और लड़कियों को सशक्त करने वाले केंद्र को संभाल लिया है।”

बस्ती के स्कूल को रेखा के जाने के बाद पूजा ने बख़ूबी संभाल लिया है।

जज़्बे के आगे विकलांगता भी आड़े नहीं आई

बाघरी समुदाय की पूजा 24 साल की विकलांग युवती हैं। पैरों में दिक्कत होने की वजह से सामान्य तरीके से चल नहीं पातीं, लेकिन अब रेखा की विरासत को ख़ूब अच्छे-से संभाल रही हैं। पूजा बताती हैं, “हमारा ज़्यादा ध्यान बस्ती की लड़कियों की शिक्षा पर होता है। यहां 22 लड़कियां बाक़ायदा स्कूल में शिक्षा ले रही हैं और कुछ सिर्फ़ अक्षर ज्ञान लेने आती हैं। संगीत वाले शिक्षक यहां हारमोनियम, तबला वगैरह भी सिखाते हैं। सिलाई का काम मुख्य तौर पर सिखाया जाता है। हम लोग यहां मास्क, बैग, पेटीकोट, झंडे वगैरह भी बनाते हैं; जिससे हमारी आमदनी भी हो जाती है।

वह आगे कहती हैं, “रेखा दीदी ने हम लोगों को बहुत कुछ सिखा दिया है। उनकी छोटी बहन सुनीता भी ग्रेजुएट हो गई है। इस बस्ती की तरह ही आचार्य जी ने बाद में शहर में पांच और स्कूल खोले। सुनीता समेत बस्ती की और भी लड़कियां अपनी पढ़ाई पूरी करके उन स्कूलों में ग़रीब बच्चों को पढ़ाती हैं। इसके लिए उन्हें हर महीने चार हज़ार रुपए मिलते हैं।”

ऐसा ही एक और स्कूल शहर के आनंदनगर इलाके में झुग्गी-झोपड़ियों वाली जगह पर बनाया गया है। वहां सुनीता, मनीषा, मधु और प्रीति नाम की चार लड़कियां पढ़ाती हैं। सुनीता के अलावा, बाकी सभी लड़कियों ने 5 साल पहले इंटरमीडिएट पास किया है, पर पैसे के अभाव में पढ़ाई जारी नहीं रख पाईं।

उनमें से एक प्रीति गौड़ बताती हैं, “कॉलेज की फ़ीस बहुत महंगी थी। हम आगे नहीं पढ़ पाए, लेकिन सोचा कि जितना भी सीखा है; वह दूसरों को सिखा देते हैं। मेरी मां दूसरों के घरों में झाडू-बर्तन करती हैं। मुझे पढ़ाने से जो पैसा मिलता है, वो घर में दे देती हूं कि कुछ मदद हो जाएगी। मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मुझे दूसरों के घर में काम नहीं करना पड़ता और बच्चों को पढ़ाकर ख़ुशी भी मिलती है।”

मधु शिल्पकार कहती हैं, “हमारे यहां पत्थर की चीज़ें बनाने का काम होता है, जिसमें सिलबट्टे ख़ासतौर पर बनते हैं। अब उनका चलन नहीं रहा, तो घर मेंपैसे की काफ़ी तंगी रहती है। स्कूल से कुछ पैसा मिल जाता है। बाकी जितनी देर स्कूल में रहती हूं, मेरे घर वाले भी बेफ़िक़्र रहते हैं। मलिन बस्तियों के बच्चों के परिवारों को पढ़ाई की अहमियत समझाना आसान नहीं होता। बच्चों को स्कूल में इकट्ठा करने के लिए भी कई बार बहुत मेहनत करनी पढ़ती है, लेकिन धीरे-धीरे बच्चों को भी पढ़ाई की आदत होने लगी है। सोचती हूं कि अगर मेरी वजह से एक भी ज़िंदगी बेहतर बन पाए, तो मेरा जीवन सफल हो जाएगा।”

मनीषा बताती हैं, ‘आनंदनगर की बस्ती में एक लड़की है – आरती। डॉक्टर बनना चाहती है। उसका दाखिला आचार्य जी ने शहर के एक अच्छे स्कूल में कराया है। आठवीं में पढ़ती है। मेहनत तो कर रही है। उसकी बड़ी बहन पढ़ तो नहीं पाई, लेकिन उसे घर का कोई काम नहीं करने देती ताकि वह पढ़ पाए। इसी तरह हम लड़कियां एक-दूसरे का साथ देते हुए ज़िंदगी को बेहतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। हमारे घरों के लोग अब तक जो काम करते आए हैं, उन्हें बहुत सम्मान की नज़रों से नहीं देखा गया। हम चाहते हैं कि हम अब सम्मान से भरी एक ज़िंदगी जी पाएं।”

स्कूल जाने के लिए तैयार बस्ती की एक लड़की।

क्या बदला, क्या बाकी है

सेवा समर्पण समिति नाम का एनजीओ चलाने वाले राजकुमार द्विवेदी कहते हैं, “पढ़ाई को लेकर इन लड़कियों का उत्साह और ललक देखने लायक है। लेकिन एक मलाल इन सबके दिल में है कि या तो वे पैसे के अभाव में पढ़ाई पूरी नहीं कर पा रहीं या जिन्होंने किसी तरह कर भी ली है, तो वे कोई ऐसी नौकरी नहीं पा सकीं जो पढ़ाई को लेकर बस्ती के लोगों की सोच एकदम बदल दे। हमारे एनजीओ के पास भी उतने संसाधन नहीं हैं। सीमित संसाधनों में और घर के बाकी कामों के साथ जिस तरह लड़कियां समाज से लड़ते हुए पढ़ाई करती हैं, उस सबके के बीच वे बहुत बेहतर नहीं कर पातीं। दूसरी बात, जिन्होंने सबसे पहले पढ़ाई शुरू की उन्होंने बड़ी उम्र में शुरुआत की। इससे भी उनकी प्रगति पर असर पड़ा।”

वह बताते हैं, “बाघरी समुदाय को उत्तर प्रदेश में आरक्षण नहीं मिलता। इसके कारण भी उन्हें मदद नहीं मिल पा रही। हालांकि, अपने दम पर लड़कियां जितना कर पा रही हैं, वे वह कर रही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने ठान रखी है कि वे बिना सम्मान वाली वो ज़िंदगी नहीं जिएंगी जो उनके पुरखे जीते आए हैं। साथ ही, वे अपने जैसे दूसरे परिवारों के बच्चों को भी सही राह दिखाना चाहती हैं।”

राजकुमार आगे कहते हैं, “सिलाई के काम से लड़कियों को बहुत मदद मिलती है। रेखा ने सारा संघर्ष झेलकर उनकी राह को थोड़ा आसान किया है। मुझे भरोसा है कि कभी न कभी उनमें से कोई लड़की ऐसी ज़रूर निकलेगी जो पढ़ाई और सफलता के क्षेत्र में और बड़ी रेखा खींचकर दिखाएगी। फ़िलहाल, ऐसी वंचित बस्तियों से निकलकर ये लड़कियां अपने और समाज के लिए जो कर रही हैं; वह बहुत बड़ी बात है।”