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Millets संरक्षण: एक दलित महिला जो अपने घर को बना रहीं भोजन संस्कृति का संग्रहालय

आदिवासी महिलाओं ने सुभद्रा खापर्डे के इसी घर में पहली बार मदर्स डे मनाया, जिसमें नई और पुरानी बीजों का आदान प्रदान किया गया और पुराने भोजन संस्कृति को लेकर बैठक हुई। इसके अलावा सुभद्रा ने इस मौके पर आदिवासियों को पारंपरिक मोटे अनाजों (Millets) के संरक्षण के लिए जागरूक किया।


By Aditya Singh , 16 May 2023


सुभद्रा खापर्डे अपने पास संरक्षित मिलेट्स के बीज और दूसरे फल दिखाती हुईं।

कोरोना काल के बाद से लोग स्वास्थ्य को लेकर अधिक सचेत हो गए हैं। महामारी के दौरान लोगों ने यह अनुभव किया कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए अच्छी खुराक़ और बेहतर आबोहवा दोनों ज़रूरी है। और, इसके लिए आवश्यक है पारंपरिक जीवनशैली व खानपान का संरक्षण। यही वज़ह है कि पुरानी चीज़ों की मांग एक बार फिर बढ़ गई है। यहां बात हो रही है एक भोजन संस्कृति की, जिसे हम क़रीब भुला चुके हैं। मिलेट्स यानी मोटा अनाज इसी भोजन संस्कृति का हिस्सा है, जिसकी मांग इन दिनों बढ़ गई है। भारत सरकार भी मोटे अनाज को बचाने और इसे हमारी आधुनिक संस्कृति का हिस्सा बनाने के लिए कई पहल कर रही है। सरकार के ही अनुरोध पर संयुक्त राष्ट्र ने इस वर्ष को मिलेट्स ईयर (Millets Year) घोषित किया है।

मध्यप्रदेश का मालवा निमाड़ क्षेत्र जो प्रदेश के सबसे उपजाऊ इलाकों में शामिल है, वहां भी मोटे अनाज की खेती करने वाले लोग खोजने पर भी बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। यही वज़ह है कि मिलेट्स को रेगुलर थाली में शामिल करना लोगों को उनकी आर्थिक स्थिति पर भारी पड़ता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि यहां इसका बिलकुल भी उत्पादन नहीं होता, होता है मगर काफ़ी कम मात्रा में। लेकिन, वर्तमान समय में मिलेट्स का उत्पादन मौजूदा कृषि संस्कृति के मुक़ाबले एक फ़ीसद से भी कम है।

मालवा निमाड़ में मिलेट्स का उत्पादन करने वाले ज़्यादातर लोग जनजातीय समुदाय से हैं, लेकिन आधुनिकता के दौर में वे भी अपनी भोजन सभ्यता के अहम बीज भूल चुके हैं। ऐसे में इसे बचाना एक चुनौती है, और इसी कठिनाई का सामना कर रहीं हैं सामाजिक कार्यकर्ता सुभद्रा खापर्डे। सुभद्रा देवास जिले के एक छोटे से गांव में रहकर मिलेट्स की उपलब्धता के लिए प्रयास कर रहीं हैं। उनका यह संघर्ष अनूठा और चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि वे आदिवासी समाज की उस संस्कृति को बचाने की कोशिश कर रहीं हैं जिसे समाज की नई पीढ़ी खुद ही नहीं जानती।

सुभद्रा भादी यानी फॉक्सटेल मिलेट्स तैयार कर रहीं हैं।

कौन हैं Millets की रक्षक

सुभद्रा ख़ुद दलित समुदाय से आती हैं और दशकों तक आदिवासी इलाकों में समाजसेवा करती रही हैं। वह मानती हैं कि इस भोजन सभ्यता को सबसे पहले आदिवासी समाज के नौजवानों तक पहुंचाना होगा। इसके बाद ही यह समाज के अन्य वर्गों तक जा पाएगी। आदिवासी संस्कृति और समुदाय के प्रति उनका सर्मपण इतना गहरा है कि वह अब देवास जिले के सुदूर इलाके में बसे गांव पांडुतालाब में अपने घर को एक संग्रहालय बनाने जा रहीं हैं।

सुभद्रा के खेत में बना यह घर जनजातीय भोजन सभ्यता और पांरपरिक श्रम व गहन जीवन जीने की तकनीक को दिखाने और समझाने वाला एक संग्रहालय होगा। इस संग्रहालय में आदिवासी समुदाय की भूमिका विशेष होगी, क्योंकि वही लोग अपनी संस्कृति को बचाने के लिए यहां काम करेंगे। सुभद्रा के घर के बाहर उनकी संस्था का नाम भी लिखा हुआ है, जिसे मजलिस यानी महिला जगत लिहाज़ समिति कहते हैं।

इसी कोशिश में सुभद्रा ने आदिवासियों के साथ पहली बार इंटरनेशनल मदर्स डे अपने इसी घर में मनाया है। मई के दूसरे रविवार को इस कार्यक्रम में आसपास के पांच-छह गांवों की पुरानी और नई उम्र की आदिवासी महिलाओं को आमंत्रित किया गया।

सुभद्रा कहती हैं कि आदिवासी भोजन संस्कृति में महिलाओं की भूमिका अहम रही है। वह बताती हैं कि पुराने ज़माने में आदिवासी पुरुष खाने की तलाश में परिवार से दूर जाते थे तो महिलाएं बच्चों को संभालते हुए आसपास की ज़मीन से बीज भी एकत्रित करती थीं और फिर यही बीज बाद में उनकी भोजन संस्कृति का हिस्सा बने। ऐसे में पुराने बीजों को बचाने के लिए महिलाओं को ही पहली जिम्मेदारी देनी होगी।

इस मौके पर उनके घर पर जुटी आदिवासी महिलाएं पहली बार मदर्स डे मना रही थीं। आदिवासी समाज की उम्रदराज महिलाएं अपने साथ कई किस्म के बीज लेकर यहां पहुंची थीं। इसके अलावा घर में काम आने वाले कई दूसरे सामान भी वे साथ लाईं थीं, जोकि पूरी तरह प्राकृतिक थे।

सुभद्रा के साथ आदिवासी महिला बिच्छी बाई हैं, वह कड़वी लौकी से बने बर्तन उल्की के बारे में बता रही हैं।

मदर्स डे पर मिलेट्स बीज वाली बैठक

बैठकी में पांडुतालाब की 70 वर्षीय महिला बिच्छी बाई कुछ ख़ास लेकर पहुंचीं थीं, जिसे उल्की कहा जाता है। वह बताती हैं कि पहले के समय में आदिवासी परिवारों के पास धन नहीं होता था तो मटके में से पानी पीने के लिए बर्तन खरीदना भी कठिन था। हालांकि, आदिवासी घरों में ऐसे बर्तनों की ज़रूरत भी नहीं होती थी क्योंकि वे उल्की का उपयोग करते थे। उल्की को कड़वी लौकी भी कहते हैं। उसे सुखाकर उसमें छेद करके एक बर्तन की तरह उपयोग किया जाता था, जो लंबे समय तक चलती थी।

बिच्छी बताती हैं कि इस तरह कड़वी लौकी का एक पेड़ आदिवासी परिवारों के लिए वर्षों तक रहने वाले एक बर्तन की व्यवस्था कर देता था। मदर्स डे की बैठकी में शामिल महिलाओं में कारोती बाई, बायजा बाई, नावादी बाई, समायड़ी बाई भी आई थीं। ये सभी महिलाएं एक दूसरे से आदान-प्रदान करने के लिए अपने साथ पुराने बीज लेकर आई थीं।

उनमें से एक, नवादी बाई बताती हैं कि वह अपने घर के पास हर बार कुदरा के बीज लगाती हैं और वह वर्षों से यह कर रहीं हैं और इसी तरह पुराने बीजों को बचाए हुए हैं। वह बतातीं है कि इसके बदले में वे सुभद्रा से कुछ नए बीज लेकर जाएंगी और उन्हें लगाएंगी।

सुभद्रा खापर्डे के घर पर मदर्स डे के आयोजन में शामिल महिलाएं।

इस कार्यक्रम में सामाजिक कार्यकर्ता और राष्ट्रीय एकता परिषद की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्रद्धा कश्यप भी शामिल थीं। वह धार जिले के आदिवासी इलाकों में क़रीब तीन दशकों से काम कर रही हैं।

श्रद्धा बताती हैं कि आदिवासी परंपरा में एक शानदार जीवन पद्धति है। महिलाओं ने बीजों को बचाया और आज भी बचा रहीं हैं, लेकिन उन्हें कभी किसान नहीं माना गया। ऐसे में सुभद्रा के द्वारा किया जा रहा यह पहल जनजातीय समाज की महिलाओं को एक किसान की पहचान देने की कोशिश भी है।

कश्यप कहती हैं कि अगर आदिवासी महिलाएं इस आधुनिकता में रहते हुए भी अपनी परंपराओं की ओर लौटी हैं तो वे बाज़ार आधारित परंपराओं से बच जाएंगे। इससे वह आपस में बीजों का आदान-प्रदान कर अपने घर का खर्च चला सकेंगी। उनके अनुसार, स्वाबलंबी जीवन के लिए यह एक टिकाऊ व्यवस्था है।

सुभद्रा खापर्डे के भावी म्यूजियम में मिलेट्स का कलेक्शन।

आदिवासी म्यूज़ियम

पांडुतालाब गांव में सुभद्रा अपने घर को एक आदिवासी म्यूज़ियम बनाने की तैयारी कर रहीं हैं। उनके घर में हर दिन कुछ नया काम हो रहा है। भवन की बनावट इस इलाके के किसी पांरपरिक घर की तरह ही है। यहां क़रीब 30 से अधिक तरह के बीज और फसलें संजोकर रखे गए हैं।

सुभद्रा कहती हैं कि मालवा निमाड़ के उपजाऊ इलाके में सारी फसलें अच्छी हो रहीं हैं, लेकिन यहां मोटा अनाज ख़त्म हो रहा है। ऐसे में उन्हें विचार आया कि मिलेट्स को बचाना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, क्योंकि यह हमारी कृषि सभ्यता का सबसे शुरुआती अनाज है जो खोजने पर भी नहीं मिल पा रहा है।

सुभद्रा ने इन अनाज के दानों को बचाने के लिए सैकड़ों किलोमीटर का सफ़र तय किया है। सुदूर आदिवासी गांवों में उनके लिए यह काफ़ी कठिन रहा। वह कहतीं हैं कि अब उनके पास मालवा-निमाड़ में पाए जाने वाले मोटे अनाज के तकरीबन सभी बीज हैं। इनमें भादी, बटकी, कुदरा, सांगरी, राला, रागी, कुटकी, कोदो जैसे पुराने अनाज के बीज शामिल हैं, और ये अब कई आदिवासी परिवारों के खेतों में फसलों का हिस्सा हैं।

इसके अलावा सुभद्रा के पास मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में होने वाले मोटे अनाज के बीज हैं, जिसे उन्होंने उन इलाकों में जाकर एकत्रित किया है। वह बताती हैं कि उनमें कई पुरानी दालें भी हैं, जिन्हें अब देशी दाल भी कहते हैं। इसके अलावा उन्होंने प्याज़ और मूंगफली के बीजों को भी संरक्षित किया है।

सुभद्रा खापर्डे के घर पर पुराने (पारंपरिक) बर्तनों का संग्रह।

मिलेट्स के लिए सुभद्रा खापर्डे का प्रयास

मोटे अनाज को बचाने के लिए काम कर रहे लोगों में सुभद्रा अब एक जाना-पहचाना नाम हैं। देश भर में होने वाले कृषि कार्यक्रमों में वह अपने बड़े-बड़े बैग के साथ पहुंचती हैं, जिनमें मोटे अनाज के दर्जनों किस्म के बीज होते हैं। मिलेट्स या मोटे अनाज को चाहने वाले देश भर के लोग आज उनके पास आकर ये बीज ले जाते हैं।

सुभद्रा बताती हैं कि नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष राजीव कुमार भी उनसे बीज ले जा चुके हैं और देश के कई कृषि अनुसंधान केंद्र इन बीजों को विकसित कर रहे हैं। ऐसे में वे उम्मीद जताती हैं कि आने वाले दिनों में देश भर के अलग-अलग क्षेत्रों में होने वाला मोटा अनाज सुरक्षित रहेगा।

वह कहती हैं कि उन्होंने छिंदवाड़ा के विलुप्त हो रहे भारिया आदिवासियों के द्वारा लगाए जाने वाले बीज भी संरक्षित किए हैं। ऐसे ही बिल्कुल अलग दिखने वाले एक भुट्टे को दिखाते हुए सुभद्रा कहती हैं कि यह सूंघादार बाजरा है जिसमें काफी रुएं होते हैं। इस बाजरे ने अपने आप को इस तरह से विकसित किया है ताकि ख़ुद को चिड़ियों से बचा सके। इसी तरह आदिवासी परिवार की फसल भी अपनी रक्षा ख़ुद करती थी।

सुभद्रा, सन यानी जूट की फसल दिखाते हुए कहतीं हैं कि इससे रस्सी बनती है और उनके घर में इसी से बनाई गई रस्सी उपयोग की गई है। वह बताती हैं कि ‘सन’ आदिवासी पंरपरा की फसल है। इसके अलावा मोटली और चिकनी ज्वार भी है, जिसका दाना एकदम सफ़ेद होता है। उनके अनुसार, चिकनी ज्वार गेहूं की जगह ले सकता है। सुभद्रा यह बीज अलीराजपुर जिले से लाई हैं। उन्होंने चिकनी ज्वार के बीज कई कृषि विज्ञान केंद्रों को दिए हैं और वहां इसे गेहूं के विकल्प के रूप में विकसित किया जा रहा है।

दिलचस्प बात यह है कि सुभद्रा ने जिन आदिवासी परिवारों से यह बीज लिए थे, अब वे भी सुभद्रा के पास आकर ही बीज लेकर जाते हैं। ऐसे में सुभद्रा का यह छोटा सा घर मोटे और पुराने अनाज का बीज बैंक बन चुका है। उनके पास ज्वार और मक्का की कई किस्में हैं। इस बीज बैंक में जितना भी अनाज उन्होंने आदिवासी परिवारों से एकत्रित किया है, उन सभी का नाम, पता और फोन नंबर भी उनके पास है। उसी बीज बैंक से इलाके में होने वाले मोटे अनाज का हिसाब रखा जाता है।

मदर्स डे के मौके पर सुभद्रा के पास आने वाले आदिवासी उनसे पांच रुपये से लेकर सौ रुपये तक में बीज ले गए। यहां महिलाओं को परोसा गया सारा भोजन पुरुषों ने बनाया और इसे मोटे अनाज से ही बनाया गया। इस दौरान महिलाओं ने आपस में मोटे अनाज की पुरानी रेसिपी साझा की।

मदर्स डे के मौके पर आयोजित कार्यक्रम में शामिल आदिवासी महिलाएं और युवतियां।

आदिवासियों का साथ

आदिवासी इलाकों में रहने वाली कई महिलाएं सुभद्रा के साथ अपनी इस भोजन संस्कृति को बचाने में जुटी हुई हैं। इनमें से ज़्यादातर की उम्र 50 और 70 वर्ष के बीच है। ये महिलाएं कहती हैं कि घर के पुरुष मोटे अनाज को समझते हैं, लेकिन उन्हें नहीं लगता कि वे इस संस्कृति को अगली पीढ़ी तक सुरक्षित तरीके से बढ़ा पाएंगे। ऐसे में उनकी जिम्मेदारी काफ़ी बढ़ जाती है। ये महिलाएं परिवार की नई लड़कियों और लड़कों को मिलेट्स और मोटे अनाज के बारे में बताती हैं। मदर्स डे पर आयोजित इस कार्यक्रम में कई बच्चे भी शामिल हुए।

सुभद्रा ने मदर्स डे पर गांव के कई लड़कों को भी बुलाया। हालांकि, उन्हें महिलाओं के कार्यक्रम में शामिल होने की मनाही थी, लेकिन सुभद्रा चाहती थीं कि वे अपने पूर्वजों के अनाज और उनके रहन-सहन के तरीके को समझें। अनाज के अलावा इस भावी म्यूजियम में कई तरह के भोजन उगाने, उसे तैयार करने और पकाने में काम आने वाले पारंपरिक उपकरण, बर्तन आदि भी रखे गए हैं।

सुभद्रा म्यूजियम के लिए यह सामान कई गांवों से ला रहीं हैं। वह बताती हैं कि उनका यह संग्रहालय किसी तरह से आधुनिक नहीं होगा, बल्कि पांरपरिक होगा और सही मायनों में एक पुरानी सभ्यता को संरक्षित करेगा। इन सभी प्रयासों के बाद भी सुभद्रा कहती हैं कि मिलेट्स या मोटे अनाज को लेकर समाज में इतनी जल्दी कुछ होने वाला नहीं है, क्योंकि यह एक कठिन प्रक्रिया है। इसे समझाते हुए वह कहती हैं कि शुरुआत में देश में अनाज की कमी थी और कृषि क्रांति से इसे पूरा किया गया। इस प्रक्रिया में नए बीज व नई फसलें आईं और पुराने बीज खो गए।

सुभद्रा बताती हैं कि मोटे अनाज का उत्पादन कम होता है, ऐसे में अनाज की ज़रूरत पूरी नहीं होती। इसके कारण किसान मिलेट्स को उपजाने से कतराते हैं। इसके अलावा इसमें बाज़ार भी एक बड़ा कारण है।

सुभद्रा इस समय अपने घर में भादी यानी एक तरह के पुराने चावल तैयार कर रहीं हैं, जिसे अंग्रेजी में फॉक्सटेल मिलेट्स कहते हैं। वे इसे एक पारंपरिक यंत्र से कूटती हैं, इस काम में एक सहयोगी की ज़रूरत होती है। वह कहती हैं कि यह प्रक्रिया लंबी और मेहनत भरी है। इसी कारण से आजकल मिलेट्स को मशीनों से तैयार किया जाता है जोकि ठीक नहीं है।

वह आगे कहती हैं कि यह मिलेट्स करीब 400 रुपये किलोग्राम में बिकता है। यह बहुत महंगा है जिसे आम लोग नहीं खा सकते। ऐसे में मिलेट्स केवल एक वर्ग विशेष का रह जाता है। सुभद्रा कहती हैं कि यहां मिलेट्स उपजाने वालों के लिए उसे लाभप्रद बनाने की ज़रूरत है, ताकि इसे आगे बढ़ाया जा सके।

उन्होंने बताया कि मदर्स डे का कार्यक्रम अब इस जनजातीय रहन-सहन और भोजन वाले म्यूजियम में हर साल मनाया जाएगा। इस बार पांच गांवों की महिलाओं को बुलाया गया है, लेकिन अगले बार करीब बीस गांव की महिलाएं यहां जुटेंगी। इसके अलावा आसपास के जिलों से सामाजिक कार्यकर्ता भी पहुंचेंगे, ताकि भोजन सभ्यता को बचाए रखने के लिए आदिवासी समुदाय के द्वारा प्रसार का यह तरीका अन्य जिलों में भी फैलाया जा सके।

सुभद्रा फिलहाल बेहद सीमित संसाधनों में काम कर रहीं हैं। वह कहतीं हैं, “एक सभ्यता को बचाने के लिए यह न्यूनतम संघर्ष है, जो मिलेट्स चाहने वाले हर इंसान को किसी न किसी रूप में करना ही होगा”।