जातीय भेदभाव से उपजे तिरस्कार और अपमान की वज़ह से अररिया के हलहलिया, बारा, परवानपुर, गोदबेलसारा और बखरी के दलित अपना रहे सिख धर्म।
अररिया के फारबिसगंज में स्थित गुरुद्वारा। ©Justdial
अररिया बिहार की राजधानी पटना से तक़रीबन 350 किलोमीटर दूर है। यहां एक गांव है हलहलिया, जिसे अब ‘मिनी पंजाब’ के नाम से भी जाना जाता है। इसके पीछे का कारण यहां बड़ी संख्या में होना वाला पलायन और धर्म परिवर्तन है। यूं तो गांव में मिश्रित आबादी है, पर वार्ड नंबर 3 में दलितों की अच्छी-खासी संख्या है।
स्थानीय निवासी तारादेव ऋषिदेव को पंजाब के भटिंडा से हलहलिया लौटे कुछ एक सप्ताह हुए हैं। गांव के गुरुद्वारे में सेवा देना उनकी दिनचर्या में शामिल है। रोचक यह है कि तीन वर्ष पहले तक जो व्यक्ति मुसहर (दलित) था, उसने पंजाब जाकर सिख धर्म अपना लिया। मोजो ने उनसे सिख धर्म अपनाने के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “सिख धर्म हमने अपनी स्वेच्छा से चुना है। कुछ लोगों को हमारी खुशहाली देखी नहीं जाती, वे अफवाहें फैलाते हैं कि दलितों का जबरन धर्मांतरण करवाया जाता है।”
दरअसल 1980 के दशक से अररिया और आसपास के क्षेत्रों में लोग मज़दूरी के लिए पंजाब, दिल्ली और कलकत्ता का रूख करने लगे। वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन के मुताबिक़, “लोगों के पलायन पर अगर गौर करें तो मालूम पड़ता है कि दिल्ली और कलकत्ता जाने वाले लोग फैक्टरियों में काम करते थे। जबकि, पंजाब जाने वाले लोग खेती से जुड़े कामों में बड़े ज़मींदारों के लिए मज़दूर का काम करने लगे। हलहलिया के दलित बस्ती के लोग ज़्यादातर पंजाब गए। वहां उन्हें महसूस हुआ कि पंजाब के ज़मींदारों का सुलूक उनके प्रति मानवीय था। उनके बिहार के अनुभव में ज़मींदार बेहद सख़्त और क्रूर थे। इसका असर यह हुआ कि पंजाब के सिखों के बारे में हलहलिया के दलितों की राय अच्छी बनी,” वह आगे जोड़ते हैं, “दूसरा टर्निंग प्वाइंट रहा, सम्मान। बिहार में मुसहरों के साथ भेदभाव बहुत था। वहां उनसे अछूत की तरह पेश आया जाता था। कोई उनके साथ बैठता नहीं, खाता नहीं, उनसे अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता; जबकि पंजाब में ठीक इसके विपरीत था। लोग उनसे इंसानी सुलूक करते। गुरूद्वारे के लंगर में उन्हें मुफ़्त भोजन मिल जाता। इन सबसे उनके बीच सिख धर्म के बारे में एक आम विचार बना कि इस धर्म में बराबरी है और धीरे-धीरे वे लोग सिख धर्म अपनाने लगे।”
दिसंबर 1985 में हलहलिया गांव में भी एक गुरुद्वारे की स्थापना हुई। जाति से मुसहर नरेंद्र ऋषिदेव पंजाब से कुछ वर्ष काम करके जब वापस अपने गांव लौटे, तो वह सिख हो चुके थे। गांव में गुरूद्वारे की स्थापना में उनकी अहम भूमिका थी। इन दिनों गुरुद्वारे के मुख्य पुरोहित का काम वही देखते हैं।
गांव की स्मृतियों के हवाले से नरेंद्र बताते हैं, “बुरी हालत थी हम लोगों (दलितों) की यहां। हमारे गांव में यादव और पासवान जातियों का दबदबा था, वे हमें अछूत मानते थे। साथ बैठने तक नहीं देते थे ।” नरेंद्र के अनुसार उनके परिवार के सदस्यों सहित गांव का हरेक दलित अपमान और तिरस्कार की फेहरिस्त गिना सकता है।
नरेंद्र ने हलहलिया में गुरुद्वारा बनाने के लिए चंदे की बड़ी रकम पंजाब से ही इक्ट्ठा की थी – कुछ 60 हज़ार रुपये। गुरुद्वारे के लिए उनके एक रिश्तेदार ने कुछ 35 डिसमिल ज़मीन दान की, तब जाकर गुरुद्वारा बन सका।
“आज मुझे बड़ा फ़्रक़ होता है कि हमारे गुरुद्वारे की चर्चा होती है। प्रांगण में तरह-तरह के फूल खिले हैं। यहां गांव की मदद से दो कमरे का स्कूल और चापाकल भी हो सका है,” नरेंद्र कहते हैं। वह एक एनआरआई किस्से का जिक्र करते हैं – “अमेरिका के शिकागो के रहने वाले दो सिख व्यापारी बंधुओं को जब हलहलिया के बारे में ख़बर हुई तो उन्होंने सेवा के नाम पर गुरुद्वारे को एक एसयूवी गाड़ी दान की।”
बिहार में सिखों की आबादी 0.0113 फ़ीसद है। लेकिन, जातीय भेदभाव से उपजे तिरस्कार और अपमान की वजह से सिर्फ़ हलहलिया ही नहीं बल्कि अररिया के बारा, परवानपुर, गोदबेलसारा और बखरी के भी दलितों ने सिख धर्म को अपना लिया है।
“सिख धर्म से पहले पंजाब ने हमें काम दिया। वहां हम पैसे कमा सके। वहां से पैसा कमाकर हम अपने परिवार का जीवन बेहतर कर सके। बहुत सारे लोगों ने गांव में थोड़ा ही सही, पर ज़मीन खरीदा। सिख धर्म ने हमें एहसास कराया कि कोई ऐसी कौम भी थी जिसमें जात-पात नहीं था, बराबरी थी। इस धर्म ने हमें सिर उठाकर जीने की हिम्मत दी,” मुकेश ऋषिदेव कहते हैं।
हालांकि, सिख धर्म में जात-पात न होने की बात को मानने से हिंदुवादी गुटों का इनकार है। “धर्म परिवर्तन कर लेने मात्र से बराबरी मिल जाती है, यह हास्यास्पद है। जट सिख किस अपमान से दलित (सिखों) के साथ पेश आते हैं, वह किससे छिपा है। दलितों को धर्म परिवर्तन करने से पहले यह भी विचार करना चाहिए कि वे दलित होने के साथ-साथ बिहारी भी हैं। पंजाब में बिहारी मजदूरों का अपमान किया जाता है, कम पैसों में खटवाते (काम करवाते) हैं – क्या यह अपमान उन्हें नहीं दिखता?,” पूछते हुए बिहार विश्व हिंदू परिषद से जुड़े संदीप कुमार कहते हैं, “दुनिया आज सनातन धर्म के प्रति आकर्षित है, वहीं दूसरी तरफ अपने ही धर्म में विधर्मियों की संख्या बढ़ रही है।” विश्व हिंदू परिषद हिंदुओं (यहां दलितों) के धर्मांतरण का विरोध करता है।
हलहलिया गांव के मुखिया रंटू मंडल कहते हैं, “भारत का संविधान सबको अपनी आस्था और विश्वास रखने और मानने की आज़ादी देता है। हलहलिया के लोग सिख धर्म को अपनाते हैं – वह उनकी आस्था का विषय है। हमारी नज़र में अब तक ऐसा एक भी मामला नहीं आया है जहां किसी को जबरन सिख बनाया गया हो।” साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा, “जाति का दंश ऐसा है कि सिर्फ़ मुसहर ही नहीं, बल्कि आसपास के गांवों से हमें सूचना मिली है कि अब यादव भी सिख धर्म अपना रहे हैं।”
हलहलिया और आसपास के लोगों ने चाहे धर्म परिवर्तन कर लिया हो, लेकिन बिहार सरकार के रिकॉर्ड में अभी भी ज्यादातर लोग मुसहर ही हैं। “काग़ज़ी काम में ज़रा वक़्त तो लगता ही है,” यह कहकर रंटू मंडल बात को टाल जाते हैं। हालांकि हलहलिया के लोग बताते हैं कि यह “ज़रा वक्त” कई वर्षो तक खिंच जाता है।