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वर्कप्लेस पर समान हिस्सेदारी के लिए Indore में अनोखी पहल, महिलाएं चुन रहीं ड्राइवर और मैकेनिक की जॉब

इंदौर (Indore), जिसकी पहचान देश के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में है; वहां की कुछ महिलाओं ने ‘नो एक्सक्यूज’ के साथ शुरू किए ऐसे काम जिसने हटाए पुरुषवादी समाज के ‘ठप्पे’।


By Aditya Singh , 28 Apr 2023


शहनाज़ बी इंदौर में नगर निगम की डोर टू डोर कलेक्शन गाड़ी चलाती हैं।

सुबह के पौने छह बज रहे हैं और बस्ती में कमोबेश अंधेरा ही है। अपने दोनों बच्चों को सोते हुए छोड़ ठीक इसी वक़्त शहनाज़ बी अपने घर से निकल जाती हैं। इसके बाद उनके शौहर इरफ़ान घर के रोज़ाना के कामों के साथ नाश्ता बनाकर बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करने में लग जाते हैं। दरअसल शहनाज़ के कंधों पर एक बड़ी ज़िम्मेदारी है। वे देश के सबसे स्वच्छ शहर के रूप में चिन्हित ‘इंदौर’ (Indore) में नगर निगम की कचरा इकट्ठा करने वाली (डोर टू डोर कलेक्शन) गाड़ी चलाती हैं। वे इंदौर की शुरुआती महिला ड्राईवरों में से एक हैं।

उनके पति इरफ़ान बताते हैं कि पहले उन्हें इसको लेकर समाज में हिचक महसूस होती थी, लेकिन अब उन्हें पत्नी की इस कामयाबी पर गर्व होता है। शहनाज़ के लिए भी भले ही ड्राईविंग एक साधारण काम है, लेकिन महिला होकर यह काम कर पाना उनके लिए असाधारण उपलब्धि है।

इसी तरह, 23 साल की शिवानी रावत यंत्रिका गैराज में मैकेनिक (Mechanic) का काम करती हैं। यह पूरी तरह से महिलाओं द्वारा संचालित देश का पहला गैराज है। शिवानी ने 18 साल की उम्र में परिवार वालों को बिना बताए बाइक की मरम्मत का काम सीखा था।

उन्होंने बताया कि “मुझे शुरू से काम करने का शौक़ था मगर सिलाई, कढ़ाई या ब्यूटी पार्लर जैसा कोई काम नहीं, बल्कि ऐसा काम जो कुछ अलग हो और जिसमें मज़बूती का अहसास हो।” ऐसे में उन्होंने बाइक मैकेनिक बनना चुना।

शिवानी अब हर तरह की बाइक की मरम्मत कर लेती हैं। वह उनके इंजन तक रिपेयर कर लेती हैं और अब उनकी इच्छा कार रिपेयरिंग सीखने की है। इस कार्य के लिए शुरुआत में शिवानी को केवल मां का सपोर्ट मिला था। उनके पापा और भाई कुणाल इस काम से बेहद नाराज़ थे और इसके लिए उन्हें रोज़ डांट पड़ती थी। ऐसे में शिवानी भाई से छिपकर काम सीखने जाती थीं।

“भाई को किसी तरह मनाया तो उन्होंने शर्त रख दी कि काम सीख लो, लेकिन नौकरी नहीं करोगी। ऐसे में फिर नौकरी करने के लिए भी वैसा ही संघर्ष करना पड़ा। लेकिन अब भाई और पापा दोनों खुश हैं और भाई अपने सभी दोस्तों की गाड़ियां रिपेयर के लिए यहीं भेजते हैं,” शिवानी ने अपनी बात में जोड़ा।

शिवानी की पड़ोसी यास्मीन बतातीं हैं कि शुरुआत में सभी शिवानी को देखकर तरह-तरह की बातें करते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। वे कहती हैं कि इस लड़की ने साबित कर दिया है कि लड़कियां हर वो सम्मानजनक काम कर सकती हैं जो पुरुष कर पाएं। यास्मीन का मानना है कि शिवानी की तरह समाज में और भी लड़कियां होनी चाहिए, जो सभी को प्रेरित करें।

यंत्रिका गैराज में 100 के क़रीब महिलाएं काम कर रही हैं। इससे जुड़े शहर में तीन महिला गैराज हैं, और हर गैराज में औसतन चार महिलाएं काम करती हैं। गैराज को स्थापित करने में ‘समान सोसायटी’ नामक एक एनजीओ का बड़ा योगदान है। संस्था ने इसे स्थापित करने में अलग-अलग लोगों और कंपनियों से मदद ली है और इसे चलाने की जिम्मेवारी गैराज की महिलाओं को सौंप दिया है। वे महिलाएं अपने हिसाब से इसे चलाती हैं। किराया और दूसरे खर्च निकालने के बाद वे बची आमदनी को आपस में बांट लेती हैं। इस तरह उन महिलाओं को हर महीने ठीक-ठाक आमदनी हो जाती है।

यंत्रिका गैरेज में शिवानी रावत (बाएं से खड़ी पहली लड़की), मरम्मत करते हुए दुर्गा मीना और दो ट्रेनी लड़कियां।

आगे बढ़ते समाज में महिला की स्थिति

समाज आगे बढ़ रहा है और महिलाएं काफी कुछ कर रहीं हैं, लेकिन हमारे समाज के निचले तबके में अभी भी स्थितियां कोई बहुत नहीं बदली हैं। पुरुषवादी समाज में इन महिलाओं की कुछ अलग करने की ये पहल दरअसल बराबरी के दर्जे को हासिल करने की एक कोशिश है, जिसे वे हर हाल में पाना चाहती हैं। लेकिन, इस बराबरी को पाना आसान नहीं था। इसके लिए शहनाज़, शिवानी और उनके जैसी कई दूसरी महिलाओं ने साल 2015 में इंदौर की समान सोसायटी से ड्राईविंग सीखने की शुरुआत की। इस दौरान उन्हें कई निजी व सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

संस्था के निदेशक राजेन्द्र बंधु बताते हैं कि “लैंगिक समानता को हासिल करने के लिए समान सोसायटी वर्ष 2010 में शुरू की थी। कुछ वर्षों तक अलग-अलग कामों के बाद संस्था ने साल 2015 में एक कार्यक्रम के तहत महिलाओं को ड्राईविंग की ट्रेनिंग देना शुरू किया। इस दौरान करीब 300 महिलाओं को यह ट्रेनिंग दी गई। आज वह महिलाएं इंदौर और आसपास के इलाकों में निजी और कर्मशियल वाहन चला रही हैं।”

समान सोसायटी से ड्राईविंग की ट्रेनिंग ले चुकीं ये महिलाएं आज बस से लेकर ऑटो, कर्मशियल वाहन, नगर निगम की गाड़ियां चलाने जैसे तमाम काम कर रही हैं। हालांकि, ऐसी भी कई महिलाएं हैं जिन्होंने ड्राईविंग सीखी तो, मगर परिवार और समाज के दबाव में ये काम छोड़ चुकी हैं। जबकि, जिन्होंने नहीं छोड़ा वे आज आत्मनिर्भर हैं।

राजेंद्र बताते हैं कि महिलाओं को आत्मनिर्भरता के लिए उत्साहित करना मुश्किल नहीं है, लेकिन कठिनाइयां इसके बाद आती हैं। वे कहते हैं कि संस्था के कार्यक्रमों में अब तक सैकड़ों महिलाएं शामिल होकर आत्मनिर्भर बनी हैं और समाज में उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई है। लेकिन उनकी राह आसान नहीं रही, उस दौरान उनके परिवार और समाज ने राह में कई तरह की रुकावटें पैदा की।

ऋतु नरवाले इंदौर शहर में महिलाओं के लिए चलाई जाने वालीं पिंक बस की ड्राइवर हैं।

इंदौर की ऋतु नरवाले प्रदेश की पहली ऐसी महिला ड्राईवर हैं जिन्होंने बस चलाना शुरू किया। वे सुबह 6 बजे से दोपहर 2 बजे तक शहर के बीआरटीएस कॉरिडोर में बस चलाती हैं। ऋतु के मुताबिक, उनके लिए यह सबसे शानदार अनुभव रहा है। बस चलाते हुए उन्हें महसूस होता है कि वे कुछ अलग कर रही हैं। इससे पहले ऋतु शहर के एक नामचीन होटल में गाड़ी चलाती थीं। ऋतु ने बताया कि “समान सोसायटी की ट्रेनिंग ने मेरी जिंदगी बदल दी है और आज मैं अपने पैरों पर खड़ी हूं, क्योंकि मैं मेहनत से नहीं डरती।”

ऋतु के पिता राजेश नरवाले एक इलेक्ट्रिशियन हैं। वे बताते हैं कि हमें गर्व होता है कि हमारी बच्ची ने यह मुकाम हासिल किया है। वे कहते हैं कि इसको लेकर शुरू में समाज के लोग ऐसी-वैसी बातें करते थे, लेकिन अब बेटी को सब पहचानते हैं। वह सबसे अलग है और उसे इसमें खुशी मिलती है। आसपास की कई दूसरी लड़कियां भी अब ऋतु को देखकर कुछ अलग करने के लिए प्रेरित होती हैं, उसने मिसाल बनकर उनकी हिचक कम की है।

ऋतु के साथ ही शहनाज़ शाह भी उसी बड़े होटल में गाड़ी चलाती थीं। उस समय होटल में महिला ड्राईवर को देखकर लोग चौंक जाते थे, लेकिन शहनाज़ गाड़ी अच्छी चलाती थीं इसलिए लंबे समय तक होटल में बनी रहीं। अभी कुछ महीने पहले ही उन्होंने अपने निजी कारणों से नौकरी छोड़ दी है।

शहनाज़ बताती हैं कि उनके काम पर जाने से बच्चों की परवरिश में दिक्कत हो रही थी और उन्हें ऐसी शिफ्ट में काम करना पड़ता था जो उनके अनुकूल नहीं थी। लेकिन वह इससे इनकार नहीं करतीं कि इस काम ने उन्हें काफ़ी नाम दिया और आगे भी परिस्थितियां बदलने पर वह वापस यह काम करना चाहेंगी।

शहनाज़ शाह कुछ दिनों पहले तक इंदौर की मैरियट होटल में ड्राइवर रहीं हैं।

महिलाओं की चुनौतियां और उनकी जीत

महिलाओं को वर्किंग प्लेस पर समान अवसर दिलाना और उन्हें आर्थिक आज़ादी के लिए प्रोत्साहित करना ही समान सोसायटी का उद्देश्य है। राजेंद्र बंधु बताते हैं कि “कई महिलाएं केवल इसलिए काम नहीं जारी रख सकीं, क्योंकि वे अपने पति से ज्यादा कमाती थीं; और ऐसे में पति ने उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए मज़बूर किया। इसके लिए उन पर तरह-तरह के दबाव डाले गए।’’

ड्राइवर महिलाओं की सबसे ज्यादा मांग घरेलू स्तर पर होती है। आज इंदौर में सैकड़ों महिलाएं घरेलू ड्राईवर का काम करती हैं। इसे बारे में राजेंद्र का कहना है, “महिलाओं को इसके लिए सबसे सुरक्षित और केयरिंग पर्सन माना जाता है। ऐसे में ज़्यादातर लोग अपने परिवारों में महिला ड्राईवर की ही मांग करते हैं। हालांकि अभी इनकी संख्या कम है, लेकिन यह मांग के मुताबिक ठीक है।”

इन महिलाओं ने केवल हुनर, आत्मविश्वास और सम्मान ही हासिल नहीं किया है, बल्कि अपने प्रति समाज के दृष्टिकोण में भी बदलाव लाया है।

संतोषी अहिरवार एक पैर से विकलांग हैं, लेकिन उनकी ड्राइविंग शानदार है। वे इन दिनों छोटे कर्मशियल वाहन चलाती हैं। प्रदेश में वे संभवतः पहली दिव्यांग महिला ड्राइवर हैं। उनके लिए ड्राइविंग लाइसेंस हासिल करना भी एक चुनौती रहा, जिसमें परिवहन विभाग ने उनकी मदद की। संतोषी के मुताबिक उन्हें लगता है कि उन्होंने सब कुछ पा लिया है।

महिलाओं को ड्राईविंग सिखाने के बाद समान सोसायटी ने एक नई पहल की। राजेंद्र बंधु बताते हैं कि महिलाओं को गाड़ी चलाना सिखाना अधूरा था, क्योंकि वे अपनी गाड़ी को सुधारना नहीं जानती थीं। ऐसे में उन्होंने वर्ष 2018 में यंत्रिका गैराज शुरू किया।

वह आगे कहते हैं, “महिला गैराज इसलिए क्योंकि गैराज की पहचान आइल ग्रीस से गंदे हुए पुरुषों की जमात वाले स्थान के रूप में होती है, जहां गाड़ी चलाने वाली महिलाएं आने से कतराती हैं। ऐसे में उन्हें एक दोस्ताना माहौल यंत्रिका के माध्यम से दिया जा सकता था। शुरुआत में करीब 100 महिलाओं को गाड़ी सुधारने की ट्रेनिंग दी गई। इनमें से कई महिलाओं ने टू व्हीलर कंपनियों के सर्विस सेंटर में काम किया है और कई अभी भी कर रही हैं।”

यंत्रिका गैराज में समान संस्था के निदेशक राजेंद्र बंधु महिला मैकेनिक के साथ।

समान संस्था और यंत्रिका गैराज का योगदान

यंत्रिका गैराज ने महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ाने का काम किया है। इंदौर के वर्ल्ड कप चौराहे के नज़दीक जिस गैराज में बीते पांच साल से शिवानी काम करती हैं, वहां उनकी सहकर्मी दुर्गा मीणा हैं। दुर्गा ने वर्ष 2018 में मैकेनिक की ट्रेनिंग ली थी और एक साल काम किया। इस दौरान उनके पति जीवन सिंह मीणा ने उनका खूब मनोबल बढ़ाया, लेकिन पड़ोसियों ने मज़ाक भी खूब बनाया। वर्ष 2020 में उनके पति जीवन की मृत्यु हो गई और दुर्गा अपने दोनों बच्चों के साथ सिहोर जिले में अपने ससुराल चलीं गईं।

दुर्गा मीणा बताती हैं कि इसके बाद राजेंद्र बंधु का उनके पास संदेश आया और काफ़ी बार सोचने के बाद वे इंदौर आ गईं। यहां यंत्रिका गैराज के लिए उन्होंने नई लड़कियों को ट्रेनिंग देना शुरू किया, जिसके लिए उन्हें वेतन दिया जाता था। ट्रेनिंग के बाद वे अब ख़ुद इसी गैराज में काम करने लगी हैं। वह रोज़ाना छह से सात गाड़ियों की सर्विसिंग करती हैं।

दुर्गा कहती हैं कि समानता का अर्थ क्या है, यह उनसे पूछना चाहिए जिन्हें हमेशा ही कमज़ोरी के अहसास में धकेले रखा गया। वे कहती हैं कि जमा पूंजी पति के इलाज़ में लग गई थी और इसके बाद कोई उम्मीद नहीं थी। ऐसे में अपने इसी हुनर और काम की मदद से वह अपने बच्चों की पढ़ाई करवा सकीं, और बड़े बेटे को बीबीए में एडमिशन दिला पाईं।

दुर्गा की सामाजिक पहचान अब बदल गई है। इंदौर के पांदा में रहने वाले उनके रिश्तेदार कैलाश मीणा उनके पड़ोस में ही रहते हैं। शुरुआत में जब दुर्गा काम सीख रही थीं तो कैलाश इसे बिल्कुल पसंद नहीं करते थे, लेकिन अब उनका इसको लेकर नज़रिया बदल चुका है। वह दुर्गा की तारीफ़ करते हुए उन्हें आज के जमाने की महिला बताते हैं। कैलाश अब अपनी गाड़ी की सर्विसिंग दुर्गा से ही करवाते हैं। वह कहते हैं कि हुनर बड़ी चीज़ है। अब वह मानते हैं कि काम के मामले में मर्द और औरत में भेदभाव बेमानी है।

इसी इलाके के अभिलाष नगर में दुर्गा के देवर बबलू मीणा भी रहते हैं। वे कहते हैं कि पहले जब उनकी भाभी इस तरह से गाड़ियां रिपेयर करती थीं तो उन्हें एक शर्म सी महसूस होती थी। लेकिन अब जब उनके बड़े भाई नहीं रहे और इसके बावजूद दुर्गा ने हार नहीं मानी, और अपने बच्चों को इसी हुनर के सहारे बड़ा कर लिया तो वह उनकी मेहनत और लगन को सराहते हैं। कैलाश की तरह ही अब बबलू और उनके कई दोस्तों की गाड़ी भी दुर्गा ही रिपेयर करती हैं।

यंत्रिका गैराज में 20 साल की शिवानी बंसल काम सीख रही (ट्रेनी) हैं। वह कुछ काम करना चाहती थीं तो लोगों ने उन्हें ब्यूटी पार्लर वगैरह शुरू करने की सलाह दी, लेकिन यह उन्हें ठीक नहीं लगा। शिवानी इंदौर के पालदा इलाके में जहां रहती हैं, वहां भी एक यंत्रिका गैराज है और गाड़ी सुधारती महिलाओं को देखकर उन्हें यह काम अच्छा लगा। इसके बाद उन्होंने मन बना लिया कि यहीं काम करना है।

शिवानी बंसल कहती हैं कि “शुरुआत में मेरे पिता को यह स्वीकारने में कुछ हिचकिचाहट हुई, लेकिन बाद में वे मान गए और अब खुश हैं। ये काम मुझे जीवन में आगे बढ़ने में मदद करेगा और नई राह बनाएगा”

इंदौर में इलेक्ट्रिक लाइट डिस्ट्रिब्यूटर का काम करने वाले कृष्णा तिवारी अब इसी महिला गैराज में अपनी बाइक रिपेयरिंग कराते हैं। वह बताते हैं कि केवल इसलिए यहां नहीं आते क्योंकि इन महिलाओं की मदद करना चाहते हैं, बल्कि इसलिए भी आते हैं क्योंकि ये लड़कियां दूसरे गैराजों से कहीं बेहतर काम कम पैसे लेकर कर देती हैं। वे कहते हैं कि उनके साथ वाले ज़्यादातर लोग अब अपनी बाइक यहीं रिपेयर करवाते हैं।

समान सोसयाटी केवल गाड़ी चलाने और मैकेनिक तक ही सीमित नहीं है। अब उनकी कोशिश उन दूसरे फील्ड में भी जाने की है, जहां अब तक पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है। इसके मद्देनजर सोसायटी एक ट्रेनिंग प्रोग्राम चला रही है, जहां महिलाओं को इलेक्ट्रिशियन बनाने की ट्रेनिंग दी जा रही है। इसमें फिलहाल क़रीब 50 महिलाओं को ट्रेनिंग दी जा रही है।

राजेंद्र बंधु कहते हैं कि महिलाओं को समाज के हर स्तर पर हर उस फील्ड में अपना हाथ आज़माना होगा, जहां अब तक उन्हें वर्जित समझा जाता रहा है। इस तरह वे ख़ुद को वो अधिकार दे पाएंगी जो उन्हें अब तक नहीं मिला।