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कौन हैं डॉ जानुम सिंह सोय जिन्हें मिला पद्मश्री सम्मान? प्रोफेसर बनकर ‘हो’ भाषा को कैसे बढ़ाया आगे

केंद्र सरकार ने आदिवासी भाषा ‘हो’ के संरक्षण के लिए झारखंड के प्रोफेसर जानुम सिंह सोय को देश के 74वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर इस वर्ष के पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया.


By Mohammad Sartaj Alam , 13 May 2023


गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर प्रोफेसर सोय को उनके हो भाषा में योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित करतीं देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू.

कोलहान विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ जानुम सिंह सोय उन 106 शख़्सियतों में से एक हैं जिन्हें वर्ष 2023 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. यह सम्मान उनकी मातृभाषा ’हो’ को उनके द्वारा संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए मिला है. दरअसल डॉ सोय पिछले 40 सालों से ‘हो’ भाषा के विकास के लिए काम कर रहे हैं.

“पद्मश्री पुरस्कार मिलने के बाद मुझे लगा कि ‘हो’ भाषा को पहचान मिल गई.” ये शब्द डॉ जानुम सिंह सोय के हैं, जो उन्होंने 5 अप्रैल 2023 को पद्मश्री सम्मान मिलने के बाद कहा.

वह आगे कहते हैं, “झारखंड में हमारे समाज की आबादी लगभग 30 लाख है. इसके बावजूद मातृभाषा ‘हो’ को पहचान नहीं मिल रही थी. मैं पहले हिन्दी का प्रोफेसर बना, फिर विश्वविद्यालय में इस विषय का विभागाध्यक्ष बना. लेकिन रिसर्च मैंने अपनी मातृभाषा में की, इसलिए किताबें भी उसी भाषा में लिखी. यही कारण है कि मुझे पद्मश्री जैसा गौरवान्वित करने वाला सम्मान मिला.”

डॉ सोय के द्वारा लिखी गई किताबों को झारखंड के विश्वविद्यालयों में हो भाषा के विकास के लिए एमए के पाठ्यक्रम में स्थान मिला हुआ है.

मालूम हो कि डॉ सोय ने ‘हो’ जनजाति की संस्कृति और जीवनशैली पर 6 पुस्तकें लिखी हैं. इनमें से एक ‘हो कुड़ि’ नामक उपन्यास 2010 में प्रकाशित हुआ है.

“मैंने हो कुड़ि नामक उपन्यास अपनी बड़ी बहन जिनका नाम भी कुड़ि है, उनसे प्रेरित हो कर लिखा,” वह बताते हैं.

डॉ सोय आगे कहते हैं कि उनके द्वारा लिखा गया यह उपन्यास ‘हो’ भाषा की पहली पुस्तक थी. यही नहीं, उनकी किताबों को ‘झारखंड पब्लिक सर्विस कमीशन’ ने भी अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया है.

वह कहते हैं कि “जब मैं हिंदी का प्रोफेसर बना, उस समय मेरे लिए वह बहुत बड़ी उपलब्धि थी. लेकिन मेरी मातृभाषा ‘हो’ की हमारे समाज में बोलचाल के अलावा कोई पहचान नहीं थी. यहां तक कि इस भाषा की कोई किताब तक उपलब्ध नहीं थी. ऐसे में मैंने हो भाषा में पीएचडी करने की ठानी. इसी मकसद से मैंने 1991 में रांची विश्वविद्यालय से ‘हो लोक गीत का साहित्यिक व सांस्कृतिक अध्ययन’ विषय पर पीएचडी किया.”

डॉ सोय अपने घर पर हिंदी भाषी दैनिक समाचापत्र पढ़ते हुए.

हिंदी के प्रोफेसर ने ‘हो’ भाषा में क्यों की पीएचडी

आप हिंदी के प्रोफेसर थे, लेकिन शोध हो भाषा में क्यों किया? इस सवाल का जवाब देते हुए डॉ सोय कहते हैं कि हिंदी में पीएचडी करने का विचार था. लेकिन हिंदी में बहुत लोग पीएचडी करने वाले थे, जबकि हो भाषा में पीएचडी करने के लिए कोई इच्छुक नहीं था. इसकी वजह यह है कि हो भाषा में अध्ययन करने के लिए किताबें उपलब्ध नहीं थीं.

“ऐसे में मैंने हो भाषा में रिसर्च करने के लिए मौखिक लोक गीत को आधार बना कर शोध किया, और आज मुझे उसी से सफलता मिली.”

वह आगे कहते हैं, “इसके बाद मेरा पहला काव्य संग्रह ‘बाहा सगेन’ वर्ष 2009 में प्रकाशित हुआ, जबकि इस काव्य संग्रह का दूसरा हिस्सा इसी साल 2023 में प्रकाशित हुआ है. इसमें आदिवासियों की परंपरा, संस्कृति, त्योहारों और लोक गीतों को शामिल किया गया है. यह संग्रह वर्ष 2010 में हो कुड़ी उपन्यास के रूप में प्रकाशित हुआ था.”

डॉ सोय अपने इस उपन्यास का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि “हो कुड़ी के द्वारा समाज में नारी जीवन के महत्व को समझाया गया है. चूंकि मैंने अपनी बहन को देखा है कि उन्होंने किस तरह पूरे परिवार को एक मां की तरह संभाला था, इसलिए नारी की भूमिका को समझाने के किए मैंने उपन्यास में अपनी बहन से प्रेरित किरदार को केंद्र में रख कर पुस्तक की रचना की.”

प्रोफेसर जानुम सिंह अपना लिखा लैपटॉप में ड्राफ्ट करते हुए.

प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई से प्रोफेसर बनने तक का सफर

डॉ जानुम सिंह सोय का जन्म झारखंड के सबसे पिछड़े जिले पश्चिम सिंहभूम के तांतनगर प्रखंड क्षेत्र के ग्राम दुतिलन्र में हुआ. गांव से ढाई किलोमीटर दूर कोकचो ग्राम में प्राथमिक शिक्षा ली, जबकि हाईस्कूल उन्होंने गांव से 12 किलोमीटर दूर चाईबासा टाउन में स्थित मंगला रुंगटा हाईस्कूल से किया. टाटा कॉलेज से इंटर करने के बाद उन्होंने वर्ष 1971 में हिंदी विषय से बीए ऑनर्स किया. उसके बाद 1974 में रांची विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए किया.

“हिंदी में एमए करने के दौरान मैं अपने प्रोफेसर से बहुत प्रभावित था, अत: मैंने तय कर लिया कि भविष्य में प्रोफेसर बन कर अपने समाज को शिक्षित करूंगा,” यह कहते हुए डॉ सोय भावुक हो गए.

प्रोफेसर जानुम सिंह अपने पिता को याद करते हुए कहते हैं कि “मेरे पिता बहुत कम पढ़े-लिखे थे, लेकिन वह शिक्षा की अहमियत को खूब समझते थे. इसलिए उन्होंने मुझे शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए अपने समाज के लिए कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित किया.‍”

वह आगे कहते हैं, “मैं ट्राइबल समाज से हूं; वह भी झारखंड के सबसे पिछड़े जिल से, लेकिन पिता जी ने हम सभी भाई-बहनों को समान रूप से शिक्षित किया.”

शिक्षक बनने के मकसद से डॉ सोय ने एमए करने के बाद साल 1977 में बीएड तो कर लिया, लेकिन प्रोफेसर बनने की तमन्ना तब पूरी हूई जब वर्ष 1977 में उन्हें जमशेदपुर से 50 किलोमीटर दूर घाटशिला कॉलेज में बतौर प्रोफेसर सेवा करने का अवसर मिला.

65 वर्षीय हीरा देवी डॉ सोय की पत्नी हैं, वह स्वयं शिक्षिका के पद से सेवानिवृत्ति हुई हैं. पति की सफलता से उत्साहित हीरा देवी कहती हैं कि जिस वर्ष हमारी शादी हुई, उसी वर्ष 1977 में डॉ सोय ने घाटशिला कॉलेज के हिंदी विभाग में बतौर व्याख्याता ज्वाइन कर लिया.

प्रोफेसर जानुम सिंह सोय अपनी नोट्स डायरी लेकर आते हुए.

परिस्थितियों से लड़कर बदली स्थिति

क्या आपने कभी सोचा था कि एक दिन आप प्रोफेसर बन जाएंगे? इस सवाल का जवाब देते हुए प्रोफेसर कहते हैं कि “यह एक दिन में नहीं हुआ. विपरीत परिस्थिति से लड़कर हर एक दिन मिलने वाली छोटी-छोटी सफलता आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा बनती थी. इसी प्रेरणा के बल पर मुझे प्रोफेसर बनने का मौका मिला. लेकिन प्रोफेसर बनने के बाद मेरा काम खत्म नहीं हुआ, बल्कि मेरे जीवन का वह अध्याय आरंभ हुआ जिसने मुझे ‘हो’ समाज के युवाओं को कुछ बनाने के लिए प्रेरित किया. इसी का परिणाम है कि मैं आज पद्मश्री विजेता बन सका.”

वह आगे कहते हैं, “पिता एक मामूली कृषक थे. ऐसे में चार बेटियों व छह भाइयों की परवरिश कच्ची मिट्टी के घर में रहते हुए मात्र धान की छोटी सी खेती पर निर्भर होकर करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण था.”

डॉ सोय बताते हैं कि पिता की प्रेरणा और सबसे बड़ी बहन कुड़ि की दूरदृष्टि ने हम सभी को उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए प्रेरित किया.

“ट्राइबल्स आज भी विकास से महरूम हैं, हम विकास करेंगे लेकिन इसके लिए शिक्षा लेना आवश्यक है,” उन्होंने अपनी बात में आगे जोड़ा.