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Sparrows Protection: बच्चों की चाहत से लौट आई गौरैया की चहचहाहट

बुंदेलखंड का एक गांव मरोड़, जहां के बच्चों का सपना है कि उनके आसपास ख़ूब सारी चिड़िया चहचहाएं। इसके लिए बच्चे उनके लिए घरौंदे बनाने में मदद करते हैं। बच्चों की इस अनोखी पहल की बदौलत आज यहां झुंड की झुंड गौरैया (Sparrows) दिखती हैं। वहीं, बच्चे यहां गिद्ध (Vultures) संरक्षण में भी भरपूर सहयोग करते हैं।


By Medhavini Mohan, 24 Mar 2023


इन गौरैयों (Sparrows) को मरोड़ गांव के बच्चों ने बड़े प्यार-मनुहार से गांव में वापस बुलाया है। Photo credit: Medhavini Mohan

बुंदेलखंड (Bundelkhand) में एक गांव है- मरोड़ पूर्व। मध्य प्रदेश के सबसे छोटे ज़िले निवाड़ी में पड़ता है। हालांकि स्थानीय इसे मरोड़ नाम से ही पुकारते हैं। यह गांव उत्तर प्रदेश के शहर झांसी और मध्य प्रदेश के ऐतिहासिक महत्त्व वाले कस्बे ‘ओरछा’ से लगा हुआ है। मरोड़ में एक ऊंची पहाड़ी पर सिद्ध बाबा का मंदिर है, जिस पर नज़र आती हैं झुंड की झुंड गौरैया (Sparrows)।

सुबह का वक़्त हो, तो नहाने के बाद मिट्टी में लोट लगाती हैं। खाने का वक़्त हो, तो मंदिर के आंगन में डाला गया दाना चुगती हैं। और, पूरे दिन इधर-से-उधर चहकती फिरती हैं। आसपास के शहर से कोई यहां आए, तो इतनी संख्या में यहां इन्हें देख हैरान होता है। पर्यटन के लिए शहर से आए लोग कहते हैं कि उन्होंने इतनी गौरैया एक साथ कभी नहीं देखी।

ये गौरेया यूं ही नहीं यहां बसती हैं। मंदिर के परिसर में आपको मिट्टी की मटकियों से बने कई घोंसले दिखाई देंगे। उनके लिए खाने और पानी का पूरा इंतज़ाम दिखेगा। तब समझ में आता है कि ये चिड़िया खुद नहीं आईं, इन्हें बड़े प्यार-मनुहार से बुलाया गया है। यहां उनके लिए बाकायदा घरौंदा सजाया गया है।

मंदिर के पुजारी राम चरण दास इन चिड़ियों के यहां होने के बारे में पूछने पर बताते हैं – ”गांव के कुछ बच्चे हैं। उनकी ही कोशिशों का नतीज़ा है कि पहले के मुक़ाबले यहां गौरैया दोगुनी संख्या में आने लगी हैं। ये सब घोंसले बच्चों ने ही लगाए हैं। शुरू में तो वे रोज़ाना इतनी ऊंची पहाड़ी चढ़कर आते थे और चिड़ियों के लिए सब इंतज़ाम करते थे। उनकी मेहनत देख हम भी इस कार्य में मदद कर देते हैं।”

वे आगे कहते हैं, “अब भी हर दूसरे-तीसरे दिन कोई न कोई बच्चा आता है। कभी कोई घोंसला गिर या टूट जाए, कोई गौरैया बीमार या ज़ख़्मी हो तो एक ख़बर करने पर वे भागे चले आते हैं। मंदिर में ही नहीं, पूरे गांव में जगह-जगह उन्होंने ऐसे घोंसले लगाए हैं। गाँव में गिद्ध (Vultures) भी आते हैं, बच्चे इन गिद्धों का भी ध्यान रखते हैं कि उन्हें कोई परेशान न करे।”

पक्षियों को बसाने वाला गांव

मरोड़ में दुर्लभ जीव-जंतु मिलते हैं, मगर आज से 6 साल पहले तक उनकी अहमियत समझने वाला कोई नहीं था और आधुनिक जीवन-शैली के चलते वे ख़तरे में थे। वर्ष 2016 में मध्य प्रदेश वन विभाग का ध्यान इस ओर गया कि मरोड़ में गिद्ध ठीक-ठाक संख्या में देखे जाते हैं, लेकिन उनके बारे में रिपोर्ट करने वाला कोई नहीं है।

गिद्ध अगर किसी तरह की मुसीबत में पड़ते हैं, तो उसकी भी ख़बर नहीं मिलती। अगर ऐसी ही स्थिति बनी रहती, तो क्रिटिकली एन्डेंजर्ड (गंभीर रूप से लुप्तप्राय) केटेगरी में शामिल गिद्ध मरोड़ में भी दिखना बंद हो जाते। लेकिन खाना ढूंढ़ने के मक़सद से इस गांव में आने वाले गिद्धों की संख्या जहां साल 2016 में आठ से 10 थी, वहीं साल 2022 में इनकी संख्या बढ़कर 15 से 20 हो गई।

बुंदेलखंड में पर्यावरण के लिए काम करने वाले संगठन इंडियन बायोडायवर्सिटी कन्ज़र्वेशन सोसाइटी (Indian Biodiversity Conservation Society) से इस डेटा के अलावा, यह जानकारी भी मिलती है कि गिद्धों की संख्या में बढ़ोतरी के पीछे भी कुछ बच्चों का हाथ है। कभी भी कहीं कोई गिद्ध दिखता है, तो वे (बच्चे) तुरंत संगठन को इसकी सूचना देते हैं।

सोसाइटी के सदस्य बताते हैं कि गौरैया, गिद्ध जैसे जीवों की सही-सही आबादी का डेटा इकट्ठा करना बहुत चुनौती भरा काम होता है। ऐसे में, उनकी काउंटिंग का सबसे बड़ा सोर्स बनता है कि रिहायशी और हरियाली वाली अलग-अलग जगहों पर जब लोग उन्हें देखें, तो वन विभाग या अपने इलाके में उन जीवों पर काम कर रहे संगठनों को उसकी रिपोर्ट दें।

मरोड़ और आसपास के इलाकों में इन दोनों पक्षियों की काउंटिंग में ये बच्चे काफ़ी मदद करते हैं। वे अपने आंख-कान हमेशा खुले रखते हैं और संबंधित विभाग या संगठन को समय-समय पर ज़रूरी सूचनाएं देते रहते हैं। सही समय पर सही जानकारी मिलने से इन पक्षियों के संरक्षण में मदद मिलती है।

गौरैया के लिए दाने-पानी का इंतज़ाम करता पप्पू। Photo credit: Medhavini Mohan

मन के सच्चे और काम में अच्छे ‘बच्चे’

मरोड़ गांव के इन बच्चों में से एक पप्पू प्रजापति बताता है, ”मंदिर में तो हम लोगों ने क़रीब 100 घोंसले लगाए हैं। इसके अलावा हमने अपने स्कूल और गांव के घरों में भी क़रीब 150 घोंसले लगाए हैं।” वह कहता है कि मंदिर में पुजारी जी ने बहुत साथ दिया, वे वहां चिड़ियों की देखभाल भी करते हैं।

“गांव के लोग शुरू में अपने घर-आंगन में घोंसले लगवाने में आनाकानी करते थे। वे कहते थे कि इससे गंदगी होती है, लेकिन हम बच्चों की ज़िद के आगे हार जाते और इसके लिए तैयार हो जाते। फिर जब गौरैया ज़्यादा आने लगीं, तो सभी साथ देने लगे। चहचहातीं-खेलती चिड़िया किसे अच्छी नहीं लगतीं?” वह अपनी बात में जोड़ता है।

पप्पू आगे कहता है, “हम बच्चे यह सपना देखते थे कि हमारे गांव में ख़ूब सारी गौरैया चहचहाएं, लेकिन रूठी हुई गौरैया को मनाने में थोड़ा वक़्त लगता है। और फिर कोई एक बार की बात नहीं होती, लगे रहना पड़ता है। हमेशा ध्यान देना होता है, कभी कोई चिड़िया या उसका बच्चा गिरकर या किसी और वज़ह से घायल हो जाए तो उसे भी देखना होता है।”

“कभी-कभार कोई बीमार गिद्ध भी मिला है गांव में। उसका इलाज़ करने वाले लोगों के आने तक हमने उसका भी ख़्याल रखा है।” पप्पू ने अपनी बात में आगे जोड़ा।

यह सब सिखाया किसने? गांव में ख़ूब चिड़ियां आएं, यह सपना दिखाया किसने? इसका जवाब देते हुए पप्पू यादों में खो जाता है; बताता है, “मैं छठवीं में पढ़ता था, जब कुछ लोगों के साथ एक दीदी आई थीं स्कूल में। गिद्धों को बचाने की बात कर रही थीं। उन्होंने हमें समझाया कि गिद्ध क्यों हमारे पर्यावरण के लिए ज़रूरी हैं। दीदी ने हमसे गिद्धों पर पेंटिंग बनवाई, कविता लिखवाई, फिर इनाम भी दिया।”

“उन्होंने हमें बताया कि गौरैया भी ख़तरे में है। कोई उनका ख़्याल नहीं रखता। तब हमने भी गौर किया कि गांव में अब पहले की तरह गौरैया नहीं आतीं, बहुत कम दिखतीं हैं।”

पप्पू कहता है, “हम कुछ बच्चों ने ठान लिया कि हम गौरैया का ख़्याल रखेंगे। हम उन्हें अपने गांव बुलाएंगे। दीदी ने हम लोगों को सिखाया कि कोई पक्षी ज़ख्मी हो तो क्या करना चाहिए। कभी वे पतंग के मांझे में फंस जाएं, तो कैसे मांझा निकालना चाहिए।”

“मकर संक्राति के दिन ऐसा बहुत होता है, लोग समझते नहीं कि उनकी पतंगें चिड़ियों की जान ले लेती हैं,” पप्पू ने कहा।

“दीदी ने हमें पेड़-पौधों की अहमियत भी समझाई। उसके बाद हमने मिलकर ख़ूब पौधे लगाए और उनका ध्यान रखा।”

पप्पू आगे कहता है, “अपने स्कूल में मैंने पीपल, बरगद और सहजन की फली का पेड़ लगाया था। हैंडपंप से पानी ले जाकर उन्हें सींचा। बकरी वगैरह से बचाने के लिए चारों ओर झाड़ियां लगाईं। शुरू में तो साथ के बच्चे ही हम लोगों के पौधे उखाड़ देते थे, पर हम कहते थे कि तुम बार-बार उखाड़ो, हम बार-बार लगाएंगे। फिर धीरे-धीरे उन्हें भी इसका महत्व समझ आया।”

“मेरे लगाए पेड़ तो अब मुझसे भी बड़े हो गए हैं, देखकर बहुत ख़ुशी होती है; सब उनकी छांव में बैठते हैं।” उसने आगे कहा।

बच्चों ने गांव में गौरैया के लिए जगह-जगह घरौंदे लगाए हैं। Photo credit: Medhavini Mohan

गौरेया संरक्षण में शामिल गांव का दूसरा लड़का सौरभ यादव इस पहल के शुरुआती समय के बारे में बताता है, “सबसे पहले हमने अपने गांव में आने वाली सभी गौरैया का ध्यान रखना शुरू कर दिया। जगह-जगह उनके लिए दाना-पानी रखते। लोगों को भी ऐसा करने के लिए कहते। उन्हें जागरूक करते कि गौरैया घर में घोंसला बनाएं, तो उसे हटाना नहीं चाहिए।”

सौरभ कहता है कि स्कूल में आई दीदी ने पहले हमें गौरेया के लिए जूते के डिब्बों से घोंसला बनाना सिखाया। गौरैया इतनी मेहनत से अपने लिए जो घोंसले बनाती हैं, वे अक्सर सुरक्षित जगह पर न होने से गिर जाते हैं। ऐसे में उनके अंडे या बच्चों पर भी ख़तरा बना रहता है।

“इसके लिए हमने दीदी के बताए तरकीब से गत्तों में छेद करके जगह-जगह उन्हें रखना शुरू किया, ताकि वे वहां अपना सुरक्षित घोंसला बना सकें। पहाड़ी वाले मंदिर पर भी गौरैया आती थीं, लेकिन सही जगह न मिलने से ठहरती नहीं थीं। वहां हमने मिट्टी के घोंसले लगाए हैं। अब वहां काफ़ी संख्या में चिड़िया आती हैं।” सौरभ ने कहा।

अपनी कलाकृतियों के साथ रोशनी। Photo credit: Medhavini Mohan

मिट्टी के ये घोंसले बनाता कौन है? इस सवाल के जवाब में आगे आई 20 साल की रोशनी।

एक लड़की जो बनी घर-समाज की ‘रोशनी’

मरोड़ काफ़ी पिछड़ा हुआ इलाका है। यहां ज़्यादातर लड़कियां बीच में ही स्कूल छोड़ देती हैं, क्योंकि आगे की पढ़ाई के लिए दूर जाना पड़ता है और घर वालों को यह ग़ैर-ज़रूरी लगता है। 18-19 साल की उम्र तक आते-आते उनकी शादी भी कर दी जाती है। इन सबके बीच भी रोशनी पढ़ाई-लिखाई की अहमियत समझती है और घर वालों को किसी तरह राज़ी करके उसने पढ़ाई जारी रखी है।

पूरे गांव में अपनी उम्र की लड़कियों में वह इकलौती है जो पढ़ रही है। वह बताती है कि आगे चलकर समाज-शास्त्र की शिक्षिका बनना चाहती है। वह केवल अपनी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए ही नहीं सोचती, बल्कि पर्यावरण को लेकर भी उतनी ही जागरूक है। जब आठवीं कक्षा में पढ़ती थी, तभी से अपने गांव में गौरैया और गिद्ध बचाने के अभियान में लगी हुई है। गांव के दूसरे बच्चों के साथ मिलकर उसने जगह-जगह गौरैया के लिए घोंसले लगाने में मदद की है। सबसे बड़ी बात कि मिट्टी के घोंसले रोशनी ख़ुद ही बनाती है।

रोशनी के पिता कुम्हार हैं, उनके बनाए मिट्टी के बर्तनों में बच्चे और गांव वाले चिड़ियों के लिए खाना-पानी रखते हैं। वर्ष 2020 में मध्य प्रदेश सरकार की ओर से गांवों में मिट्टी की कलाकृतियां बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा था, तभी रोशनी ने भी यह कला सीखी। वह बताती है कि इस दौरान उसने मिट्टी की चिड़िया, जानवर, लोक-कला के पात्र, पेन, नैपकिन स्टैंड, दीये, गिलास, कप, जार, पॉट, मूर्तियां और ऐसी ही कई सजावटी चीज़ें बनाना सीखा।

रोशनी का बड़ा परिवार है, उसके यह कला जानने से घर का ख़र्च चलाने में पिता को भी उससे मदद मिल जाती है। उसकी बनाई कलाकृतियां इतनी मनमोहक होती हैं कि देखते ही अपने घर में सज़ा लेने का मन करता है। शायद यही वज़ह थी कि साल 2021 में जब बॉलीवुड अभिनेत्री ऐश्वर्या राय (Aishwarya Rai), निर्देशक मणिरत्नम (Maniratnam) की एक तमिल फ़िल्म (Tamil Film) की शूटिंग के लिए ओरछा आई थीं, तो रोशनी की कलाकृतियां देख ठहर गई थीं। वे उनमें से कई ख़रीदकर अपने साथ ले गई थीं।

रोशनी बताती है, “गिद्ध दिवस (Vultures Day) पर स्कूल में जब दीदी ने प्रतियोगिता करवाई थी तो मैंने गिद्ध पर एक कविता लिखी थी, जिसे उन्होंने गिद्ध बचाने की बात करने वाले एक पैंफ्लेट पर छापा भी था। पहली बार अपना नाम कहीं छपा हुआ देखा था। उसके बाद हम बच्चों ने पर्यावरण के लिए काम करना शुरू किया तो अख़बार में कई बार नाम आया।”

वे आगे कहती हैं, “पहले जो दूसरे बच्चे हमसे कहते थे कि तुम लोग ये क्या करते रहते हो, क्या मिलता है इससे; उन्हें भी हमारा नाम छपा देखकर समझ में आया कि हम कुछ अच्छा काम कर रहे हैं।”

रोशनी बताती हैं, “दीदी कहती हैं कि मिट्टी के बर्तन और दूसरी चीज़ें बनाने का काम कोई आम काम नहीं है। इससे पर्यावरण की मदद हो रही है। उन्होंने ही मुझसे मटकियों वाले घोंसले बनाने को कहा। वो जितने बनाने को कहती हैं, मैं बना देती हूं। मैं चाहती हूं कि हमारे गांव में गौरैया हमेशा आती रहें।”

खाने की तलाश में मरोड़ गांव आए गिद्ध (Vultures)। Photo credit: Sonika Kushwaha

कौन हैं बच्चों की गुरु ‘दीदी’

इन सब बच्चों की दीदी हैं सोनिका कुशवाहा, जो इंडियन बायोडायवर्सिटी कन्ज़र्वेशन सोसाइटी नाम का संगठन चलाती हैं। उनका संगठन पर्यावरण के मुद्दों पर उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh), मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh), उत्तराखंड (Uttrakhand) और राजस्थान (Rajasthan) में काम करता है। ख़ासतौर पर बुंदेलखंड के जंगलों और जीव-जंतुओं को बचाने की मुहिम में सोनिका लगातार लगी रहती हैं।

उनका कहना है, “पर्यावरण के लिहाज़ से बुंदेलखंड का इलाक़ा जितना समृद्ध है, उतना ही इसे अनदेखा भी किया जाता है। देश में यहां के सिर्फ़ सूखे और पिछड़ेपन की बात की जाती है, जबकि यहां की वन सम्पदा देखने लायक है। उतनी ही ज़रूरत उसके संरक्षण की भी है।”

सोनिका बताती हैं, “हम ऐसे इलाके चिह्नित करते हैं, जहां गिद्ध-गौरैया जैसे गायब हो रहे जीव अभी भी मौजूद हैं और थोड़ी कोशिश करके आगे भी उन्हें बचाया जा सकता है। मरोड़ ऐसा ही इलाक़ा है। ख़ुशी की बात यह है कि पिछले छह सालों में यहां दिखने वाले गिद्धों और गौरैया की संख्या में तक़रीबन दोगुना इज़ाफ़ा हुआ है। और, यह मुमकिन हुआ है यहां के 8-10 बच्चों की संवेदनशीलता और लगन से।”

उनके अनुसार, रोशनी, छाया, पप्पू, सौरभ, गौरव, प्रिंस, राजेन्द्र और अनुष्का तो इस काम में हमेशा लगे रहते हैं, बाकी कुछ और बच्चे बीच-बीच में उनका साथ देते हैं। कभी दूसरे गांवों या शहर में लोगों को जागरूक करने जाना हो, तो भी ये बच्चे पीछे नहीं हटते। वे हमारे साथ चलते हैं और अपने गांव का उदाहरण देकर लोगों को समझाते हैं।

सोनिका आगे कहती हैं, “इनमें से तीन-चार बच्चे तो पर्यावरण-संरक्षण में बहुत ज़्यादा रुचि लेने लगे हैं। वे गिद्धों और दूसरे पक्षियों की अलग-अलग प्रजातियों और उनकी आदतों को पहचानते-समझते हैं। फरवरी से अगस्त-सितंबर के बीच जब गौरैया की प्रजनन (Breeding) का वक़्त होता है, तब ये बच्चे काफ़ी सक्रिय रहते हैं।”

“भारत में गौरैया और गिद्ध दोनों इंटरनेशनल यूनियन फ़ॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर की रेड लिस्ट में शामिल हैं। अच्छी बात है कि बच्चों की कोशिश रंग ला रही है और इन पक्षियों की गांव में संख्या बढ़ते हुए दिख रही है। जबकि ऐसे कितने ही राज्य हैं जहां के कई शहरों-गांवों में गौरैया दिखाई तक नहीं देती, फिर गिद्ध को तो जाने कितने लोगों ने अपने जीवन में कभी देखा ही नहीं।” उन्होंने आगे कहा।

दिल्ली और बिहार में गौरैया को राज्य पक्षी का दर्ज़ा दे दिया गया है कि इसी बहाने उनकी स्थिति को सुधारा जा सके, लेकिन अभी भी बहुत फ़र्क़ नहीं आया है। जबकि गायब हो रहे इन पक्षियों का पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) में बने रहना इंसान के लिए बहुत ज़रूरी है। उनके न होने से पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ा रहा है। गांव के बच्चे ये बात अच्छी तरह समझ गए हैं। आम लोगों के मुक़ाबले वे इस मामले में कहीं अधिक संवेदनशील बन चुके हैं।

वे जानते हैं कि पर्यावरण सुरक्षित है, तो हम भी सुरक्षित हैं। बुंदेलखंड का मरोड़ गांव वाकई सबके लिए मिसाल है। इस गांव के बच्चों ने बहुत अलग और प्यारा-सा सपना देखा कि उनके आसपास ख़ूब सारी चिड़िया घूमें-चहचहाएं। इसे पूरा करना बहुत साहस का काम है, जो अब सच हो रहा है। वर्ष 2016 में जहां गांव में 180 से 200 के क़रीब गौरैया दिखती थीं, वहीं पिछले साल यानी 2022 में इनकी संख्या बढ़कर 400 के क़रीब हो गई है। इस साल का डेटा आना बाक़ी है। अभी भी ये बच्चे इस काम में लगे हुए हैं।