तारीख़ पर तारीख़ मिलने के बावज़ूद श्रमिकों ने 17 सालों तक ज़िंदा रखी उम्मीद। न्याय की राह में तमाम मुश्क़िलों के बाद भी डटे रहे Assam चाय बागान के बाग़बान। देर सही दुरुस्त आया फ़ैसला।
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असम (Assam)के चाय बागान श्रमिकों के वर्षों का संघर्ष बीते 6 फरवरी को सफ़ल हो गया जब सुप्रीम कोर्ट ने आख़िरकार वह फैसला दिया जिसका इंतज़ार 28,000 से ज़्यादा श्रमिकों और उनके परिजनों को था। हालांकि, चाय बागान श्रमिकों, स्टाफ और सब स्टाफ की सातवें वेतन आयोग के अनुसार वेतन देने की मांग को लेकर कोर्ट ने मामले की अगली सुनवाई 28 मार्च 2023 तय की है। उस दिन असम के चाय बागान मज़दूरों को लॉकडाउन में न मिलने वाले वेतन और अन्य तीन राज्यों (केरल, पश्चिम बंगाल व तमिलनाडु) में मज़दूरों को मिलने वाले अंतरिम राहत के भुगतान की विसंगतियों पर सुनवाई होगी।
दरअसल, असम के 25 चाय बागानों के 28,556 श्रमिकों के मज़दूरी का भुगतान पिछले 17 साल से नहीं किया गया था। इन 25 में से 15 बागान असम सरकार की सहायक कंपनी असम टी कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एटीसीएल) के स्वामित्व वाले रहे हैं और अन्य 10 निजी स्वामित्व वाली (प्राइवेट) कंपनियां हैं। श्रमिकों ने 20 वर्षों तक इन बागानों पर काम किया था। उनकी बकाया राशि 650 करोड़ रुपये हो गई थी। इसके लिए दयनीय परिस्थितियों में रहकर भी श्रमिक संघर्ष करते रहे। इस बीच उन्होंने अपने कई सहकर्मियों को भी खोया। उनके परिवार मुफ़लिसी में जीने को मजबूर थे।
पीड़ित श्रमिकों का बकाया शायद वर्षों बाद मिल भी जाएगा, लेकिन अन्याय के कुचक्र से प्रभावित जीवन के अन्य पहलुओं का मुआवज़ा क्या होगा? यह दर्द श्रमिकों के बातचीत में बार-बार उभरकर आता है।
“कोर्ट का फैसला जीत जैसा प्रतीत ज़रूर होता है, मगर सिर्फ़ श्रमिकों को ही पता है कि इसके लिए उन्होंने कितना कुछ खोया है। मैंने चाय बागानों में सात साल काम किया। वहां श्रमिकों की स्थिति दयनीय होती है। श्रमिकों को नौकरी पर रखते वक़्त जितनी मज़दूरी का वादा किया जाता है, उतना भी उन्हें बमुश्क़िल मिलता है। यह केवल एक उदाहरण है। इसीलिए श्रमिकों के धैर्य की तारीफ़ की जानी चाहिए कि वे टूटे नहीं, बल्कि लड़े,” असम के गोलपारा में खेती करने वाले मोहनचंद भौमिक ने कोर्ट के फैसले के संदर्भ में कहा।
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हम श्रमिकों की बात कर रहे हैं तो चाय बागानों में उनके संगठन की संरचना को समझना ज़रूरी है। सबसे ऊपर होता है मालिक। उसके नीचे प्रबंधक, तब स्टाफ (क्लर्क, कैशियर, कंप्यूटर ऑपरेटर, फैक्ट्री सुपरवाइजर आदि) और सब-स्टाफ (बाग़बान, चौकीदार, ड्राइवर, मैकेनिक आदि)। सबसे नीचे आते हैं बागान में मज़दूरी करने वाले श्रमिक। ये दिहाड़ी पर काम करते हैं और दो श्रेणी में विभाजित होते हैं – स्थायी और अस्थायी।
अस्थायी मज़दूरों को स्थानीय भाषा में ‘फालतू मज़दूर’ भी कहा जाता है। यह लगभग छह महीनों के लिए संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) पर पत्तियों को तोड़ने के मौसम में रखे जाते हैं। स्थायी श्रमिक बागान में पीढ़ियों से काम कर रहे होते हैं। इन्हें ‘बागान मज़दूर अधिनियम 1951’ के तहत निवास स्थान, प्रोविडेंट फंड (पीएफ), कम कीमतों पर राशन और स्वास्थ्य सुविधाएं प्राप्त होती हैं। ये बागान के अंदर ही बने मकानों में रहते हैं, जबकि अस्थायी श्रमिक पड़ोस के गांवों या बगान के भीतर कच्चे मकान बनाकर रहते हैं। अमूमन असम में संविदा पर काम करने वाले अस्थायी मज़दूरों की संख्या स्थायी से कई गुना अधिक है। इन श्रमिकों के साथ-साथ स्टाफ और सब-स्टाफ के भी वेतन अटके हुए हैं।
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चाय बागान कंपनियों और उनके मालिकों के अमानवीय रवैये से पीड़ित श्रमिक आज से 17 साल पहले संगठित हुए और पश्चिम बंगाल खेत मज़दूर समिति की मदद से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। मुख्य याचिकाकर्ताओं में वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंजाल्विस, सुश्री मुग्धा और पूरबयन चक्रवर्ती थे।
पश्चिम बंगाल खेत मज़दूर समिति और अंतरराष्ट्रीय खाद्य और कृषि श्रमिक संघ, वर्ष 2006 में चाय बागान श्रमिकों की मदद के लिए आगे आया। उन्होंने चाय बागान श्रमिकों के दो अन्य संघों के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका (365/2006) दायर की। कोर्ट ने चार साल बाद 2010 में याचिका पर फैसला सुनाते हुए केंद्र सरकार को चाय अधिनियम के प्रावधानों के तहत अपने वैधानिक कर्तव्यों को पूरा करने का निर्देश दिया। कोर्ट ने इसके लिए सरकार को छह महीने का समय दिया।
मालूम हो कि चाय अधिनियम 1953 की धारा 16 बी, 16 सी और 16 डी केंद्र सरकार को चाय बागान की इकाई (यूनिट) पर गड़बड़ियों की स्थिति में जांच करवाने और प्रबंधन को अपने अंतर्गत लेने का अधिकार देता है। वहीं,16 ई के तहत, कुछ खास परिस्थितियों में बिना जांच के भी ऐसे यूनिटों का ‘टेक ओवर’ किया जा सकता है।
कोर्ट के आदेश के बावजूद दी गई समय-सीमा में सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। श्रमिक संगठनों ने अपने स्तर पर सरकार को पत्र लिखकर न्यायालय के फैसले पर अमल करने की मांग उठाई। जब इससे भी कोई काम नहीं बना तो वर्ष 2012 में उन्होंने कोर्ट में अवमानना याचिका दायर कर दी।
2018 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश पर असम सरकार ने एटीसीएल के 15 बागानों में काम करने वाले मज़दूरों को 99 करोड़ रुपये का अंतरिम भुगतान किया। बता दें कि यहां काम करने वाले कुल 35,592 श्रमिकों में से 16,439 ने 20 साल काम करने के बाद 2017 में कंपनी छोड़ दी थी। बाकी मज़दूर इससे पहले ही कंपनी छोड़कर जा चुके थे।
सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के तहत 2020 में जस्टिस अभय मनोहर सप्रे की अध्यक्षता में एक सदस्यीय समिति का गठन हुआ। File Photo
वर्ष 2020 में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के तहत जस्टिस अभय मनोहर सप्रे (सेवानिवृत) की अध्यक्षता में एक सदस्यीय समिति का गठन किया गया। इस समिति का काम यह सुनिश्चित करना था कि चाय बागान श्रमिकों के बकाये की गणना की जाए, ताकि उन्हें उचित भुगतान मिल सके।
समिति ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि असम के 25 चाय बागानों के पास 28,556 श्रमिकों का कुल 414.7 करोड़ रुपये बकाया है, जबकि पीएफ विभाग की कुल लगभग 230.7 करोड़ राशि बकाया है। रिपोर्ट में कहा गया कि कोर्ट के अनुसार, असम सरकार को इस राशि का लगभग 80-90% भुगतान करना होगा।
सप्रे रिपोर्ट के अनुसार, 2018 में एटीसीएल द्वारा 16,439 मज़दूरों में से 15,578 को ही 64 करोड़ 85 लाख 67 हज़ार 499 का अंतरिम भुगतान किया गया था। बाकी बचे श्रमिकों के बारे में कंपनी कुछ पता नहीं लगा पाई। हालांकि इनमें से 31 कामगारों को दो बार भुगतान कर दिया गया था, ऐसे में कुल 16 लाख 92 हज़ार 235 की राशि इसमें चली गई।
बाद में कंपनी को अपनी ग़लती का एहसास हुआ और 31 में से चार मज़दूरों से 2 लाख 43 हज़ार 228 की अतिरिक्त दी हुई धनराशि वापस ली गई। अन्य मज़दूरों की सूची कोर्ट में जमा की गई थी। हालांकि कमेटी ने बाद में 99 करोड़ की राशि को सरकार द्वारा कंपनी से वापस लेने का भी प्रावधान रखा था, क्योंकि वह कमेटी के बनने से पहले दिया गया अंतरिम भुगतान था।
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चाय बागान श्रमिकों के मुद्दे को समझने के लिए पाठकों को इतिहास में झांकना पड़ेगा। किस्सा कुछ यूं है कि 1970 के दशक में ब्रिटेन भारतीय चाय का सबसे बड़ा खरीददार था। 1980 से 1991 के बीच यह जगह रूस ने ले ली। सोवियत संघ के विघटन के बाद भारतीय चाय बाज़ार को बहुत नुकसान झेलना पड़ा।
नई आर्थिक नीति की मदद से बाज़ार को दुबारा उठाया गया, लेकिन इसी दौरान अन्य देशों में भी चाय उत्पादन बढ़ गया। इससे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा के बढ़ने से भारतीय चाय का निर्यात कम हो गया। गौरतलब है कि 1971 में भारत का चाय निर्यात दर 53.54 फीसद से 2016 में घटकर 16 फीसद हो गया।
वर्ष 2003 में चाय बिक्री में चल रही धांधली को रोकने के उद्देश्य से सरकार ने ‘टी मार्केटिंग कंट्रोल ऑर्डर’ पास किया। इसके तहत रजिस्ट्री अथॉरिटी को यह अधिकार दिया गया कि वह सालाना ऑक्शन (नीलामी) में बिकने वाले चाय की मात्रा को नियंत्रित करे। इसके अंतर्गत खरीददार को भी बोली के दौरान खरीददारी का ब्योरा देना होता था। इस नए कानून से कई उद्योगपति नाखुश हुए।
सरकार के इस आदेश का विरोध करते हुए कई कम्पनियों ने चाय के ऑक्शन में भाग ही नहीं लिया। बाज़ार से पैसा न आ पाने के कारण चाय बागान के मालिकों के लिए मज़दूरों और अन्य कर्मचारियों का भुगतान करना मुश्क़िल हो गया। भारतीय चाय उद्योग में यह अब तक की सबसे बड़ी आर्थिक मंदी थी। इस भारी नुक़सान को देखते हुए कई बागानों के मालिक भाग खड़े हुए, और यहीं से मज़दूरों के भुगतान में अनियमितता की समस्या शुरू हुई।