वर्तमान में बैंड का जो स्वरूप है वह अंग्रेजों की देन मानी जाती है, लेकिन पूर्व में यह भारतीय वाद्य यंत्रों के रूप में मौजूद था। भारत में आधुनिक बैंड वर्ष 1756 से चलन में आया, बाद में इसे ब्रिटिश आर्मी ने अपना लिया। अंग्रेजों द्वारा शुरू की गई बैंड परंपरा अभी तक भारतीय सेना से जुड़ी हुई है, और तीनों सेनाओं का अपना अलग बैंड है। बैंड बजाने वाले लोग रंग-बिरंगे ड्रेस में होते हैं, जो अंग्रेजों की देन मानी जाती है।
बैंड बाजा की अपनी दुकान पर बैठा एक दुकानदार।
कोई उत्सव, कोई त्योहार या फिर खुशी का कोई भी अवसर हो, बिना ढोल नगाडों और बैंड बाजे के पूरा नहीं होता। यह पूरे भारत या फिर पूरे दक्षिण एशियाई संस्कृति का हिस्सा है। उत्सव की इस परंपरा को निभाने का जिम्मा सदियों से समाज (उत्तर भारत) के एक वर्ग ने ले रखा है। आखिर कौन हैं ये लोग, और उनकी क्या मजबूरी है जो वे इस पेशे में लगे हुए हैं?
80 साल के छिकौड़ी पासी (बसोर) बांस से घर की जरूरतों के सामान बनाते हैं। वह अब भले ही कुछ न कर पाते हों, लेकिन एक समय था जब वे ढ़ोल बनाया करते थे। ढोल भी ऐसे कि उनके बनाए ढ़ोलों की पहचान आसपास तक के इलाकों में रहती थी।
पासी जितना अपने बनाए ढ़ोल को लेकर प्रसिद्ध थे, उससे कहीं ज्यादा बजाने को लेकर। प्रसिद्धि ऐसी कि जो लोग कर सकते थे, वे अपनी शादियां छिकौड़ी की उपलब्धता के हिसाब से तय करते थे। उनका मानना था कि शादी अगर उत्सव है, तो फिर उत्सव की तरह से मनाया भी जाना चाहिए। इसके लिए माहौल बनाने का काम छिकौड़ी बीते छह दशकों से करते आ रहे हैं।
पीढियों से इस काम में लगे होने का कारण पूछने पर छिकौड़ी कहते हैं कि ‘बसोर जाति’ दलितों में भी सबसे निचले पायदान पर आती है। इस जाति के भीतर भी बंटवारे हैं। इसके बाद भी काम सभी वही कर रहे हैं जिन्हें सबसे गंदा काम माना जाता है – मैला उठाना, झाड़ू लगाना जैसे कुछ काम हैं जो इस जाति के सिर पर मढ़ दिया गया है।
ढ़ोल बनाने का पेशा भी ऐसा ही एक पेशा है। पहले के जमाने में जो ढोल बनते थे, वह जानवरों की खाल से बनते थे। मरे हुए जानवरों की खाल निकालना, फिर उससे ढ़ोल बनाना ऐसा ही एक काम माना जाता था। वे कहते हैं, “हालांकि अब ढ़ोल जानवरों की खाल से बनना कम हो गया है, लेकिन जातिगत पहचान अभी भी बनी हुई है।”
छिकौड़ी आगे कहते हैं, “हम सम्मान के साथ जी भी नहीं सकते। खुशी के उन मौकों पर भी हम दुखी ही रहते हैं। जिन ढोलों की वजह से हम जाने जाते हैं, वह हमारी जाति से जुड़ा पेशा है। पीढ़ियों से चला आ रहा है, मेरे बाप दादाओं ने इस पेशे में जिंदगी गुजार दी।”
“जो चीज आपके लिए उत्सव होती है, वह हमारे लिए कुछ दिन की रोटी का जुगाड़ है।”
इस पेशे की कठिनाइयों के बारे में वह कहते हैं, “खुशी में झूमते नाचते लोगों को अंदाजा भी नहीं होता है कि मोटी रस्सी से बंधे भारी वजन के एक ढोल को गले से टांगना और फिर उसे घंटो तक बजाना कितना मुश्किल होता है।”
स्वदेशी बंद के मालिक आशीष शर्मा (बाएं) अपनी दुकान में बैठे हुए।
कानपुर शहर की करीब 70 साल पुरानी बैंड कंपनी स्वदेशी बैंड के मालिक आशीष शर्मा कहते हैं, “बैंड बजाने वाले लोग कलाकार होते हैं, वे लगातार इसका अभ्यास करते हैं; तब जाकर इसे बजा पाते हैं। ढोल पकड़ कर केवल लकड़ी पीटना ढ़ोल बजाना नहीं होता है। हर कोई कर पाए इतना भी आसान काम नहीं है।”
वह कहते हैं कि एक बैंड पार्टी 10-12 लोगों से मिलकर बनती है, बाकि बातें इस बात पर निर्भर करती है कि कौन क्या चाहता है। इसमें अलग-अलग इंस्ट्रूमेंट होते हैं, सबको बजाने वाले भी अलग होते हैं। एक बैंड पार्टी में सबसे जरूरी चीज जो होती है, वह होता है सिंगर – जो सभी वाद्य यंत्रों से मिलकर निकली धुन पर गाना गाता है। इसके अलावा वाद्य यंत्र में की-बोर्ड, माउथ ऑर्गन, ट्रमपेड, ट्रमबूल, ड्रम, साइड ड्रम; इन सबको मिलाकर बनती है एक पूरी बैंड पार्टी।
बैंड बजाने वाले लोग किस जाति से ताल्लुक रखते हैं, उनका सामाजिक-आर्थिक स्तर क्या होता है? पूछने पर आशीष कहते हैं कि ज्यादातर लोग दलित समुदाय से आते हैं, लेकिन केवल वही लोग होते हैं यह कहना भी गलत होगा। इसमें निचली जाति के मुसलमान भी होते हैं। इसके अलावा दूसरी जातियों के लोग भी होते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग एससी और मुसलमान समुदाय से आते हैं।
बैंड बाजा वालों में जातियों के इस संयोजन का कारण पूछने पर वह कहते हैं कि कोई निश्चित कारण बता पाना तो मुश्किल है। ऊंची जातियों के वही लोग इस पेशे में आते हैं, जो गरीब होते हैं या फिर जिनको शौक होता है। उनके यहां किस जाति के कितने के कितने लोग हैं, यह पूछने पर आशीष कहते हैं कि 80 प्रतिशत लोग दलित हैं। अगर इनको जाति के हिसाब से देखा जाए तो वह सभी ‘पासी’ जाति से हैं।
आशीष आगे कहते हैं, “मैं पहली चीज तो काम पर नहीं जाता, दूसरा मैं जाति से ब्राह्मण हूं इसलिए भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता। लेकिन जो लोग कार्यक्रमों में जाते हैं, उन्हें भेदभावों का सामना करना पड़ता है।”
बीस साल के राजू पासी ने नया-नया एक बैंड पार्टी में ढोल बजाने का काम शुरू किया है। लेकिन बैंड वाला होना क्या होता है, वह इसको धीरे-धीरे ही सही समझने लगे हैं। वह कहते हैं कि यह बजाते समय अपने शरीर और और ढोल से ज्यादा ध्यान इस बात का रखना होता है कि खुशी में नाच-गा रहे लोग हमसे छूने न पायें। इसके बावजूद कई बार ऐसा हो जाता है। यह बात बोलते हुए राजू के चेहरे का भाव कुछ बदल सा जाता है।
‘कोई छूने न पाए’, यह बात बोलते हुए छिकौड़ी के चेहरे पर बिल्कुल वही भाव आता है, जो बीस साल के राजू के चेहरे पर है। राजू और छिकौड़ी के चेहरे पर आए भावों को कोई भी अभिव्यक्ति दे पाना थोड़ा सा मुश्किल काम है, लेकिन इतना समझा जा सकता है कि जो कहना चाह रहे हैं, वह बहुत अच्छा तो कतई नहीं है। दोनों ही लोग जिस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं वह बात है ‘छुआछूत’ की, जिसे संविधान, कानून व राजनीति और आधुनिक होते समाज की नजर में गुजरे जमाने की बात मान लिया गया है। जबकि, बैंड वालों के प्रति लोगों का व्यवहार, इससे अलग कहानी कह रहा है।
28 साल के विशाल इस बात को और बेहतर ढंग से समझाते हैं। वह कहते हैं, “मैं एक बैंड कंपनी का मालिक हूं और पढ़ा लिखा हूं। मास्टर्स तक की पढ़ाई की है और साथ ही सरकारी नौकरियों की तैयारी भी करता रहा हूं। थोड़ा बहुत बाहर की दुनिया भी देखी है। नौकरी नहीं मिल रही थी, इसलिए अब पीढ़ियों से चले आ रहे अपने व्यापार को संभाल रहा हूं।”
“मेरे पास पुश्तैनी बैंड के अलावा आधुनिक डीजे सिस्टम तक सब कुछ है, वह भी एक नहीं बल्कि आधा दर्जन। आसान भाषा में कहूं तो मैं एक साथ, एक दिन में पांच से छह शादी पार्टियों में अपनी सेवाएं दे सकता हूं,” उन्होंने अपनी बात में जोड़ा।
विशाल आगे कहते हैं, “मेरे दफ्तर में आधुनिक कहा जाने वाला हर साजो-सामान है, जो एक दफ्तर की जरूरत होती है। यहां बस एक चीज की कमी है।”
क्या कमी है, यह पूछने पर विशाल कहते हैं, ‘इज्जत’, ‘मान-सम्मान’ – वह मिल जाए तो सब कुछ ठीक है, उसके बाद मुझे कोई शिकायत नहीं होगी।
लोग यहां आते हैं और बुकिंग करते हैं, लेकिन यह काम वह खड़े होकर करते हैं। कभी-कभार कोई बैठ भी गया तो वह कोशिश करता है कि हम उसे छू न लें, पैसे देने से लेकर सब कुछ बिना छुए करने की कोशिश करते हैं। यह मेरा हाल तब है जबकि मैं काम करने नहीं जाता, केवल ऑफिस संभालता हूं। जो जाते हैं, उनका क्या हाल होता होगा?
बैंड बाजा के वाद्य यंत्र।
क्या होता होगा? इसका जवाब देते हैं 30 साल के धर्मेंद्र पासी। वह कहते हैं कि वहां ढंग से खड़े होकर सबके साथ खाना नहीं खा सकते, नाचते झूमते लोगों को गलती से भी छू नहीं सकते। बरातों में पैसे उड़ाते लोगों को देखते हैं तो लगता है कि जितना पैसा इन्होंने यहां कुछ घंटे में उड़ा दिया, उतना तो शायद हम महीने में न कमा पाते हों।
ढोल बजाने वालों के लिए समस्याएं यहीं पर खत्म नहीं हो जाती – कानपुर के नेशनल बैंड के ऑनर नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, “बैंड वालों की समस्या पहले से ज्यादा बढ़ गई है। इनके बढ़ने में तकनीकी का भी बड़ा योगदान है।”
वह आगे कहते हैं, ‘आम तौर पर शादियां चार दिनों तक चलती हैं, जिसमें अलग-अलग कार्यक्रम होते हैं; हर कार्यक्रम में बैंड बाजा वालों की जरूरत होती है। लेकिन अब तकनीक ने इसको बदल दिया है – अब सबके पास मोबाइल है, एक म्यूजिक सिस्टम भी आमतौर पर सबके पास है। ऐसे में हुआ ये कि हम लोगों को चार दिन का जो काम मिलता था, वह अब कम हो गया, और केवल काम ही कम नहीं हुआ बल्कि हमारे जो पुराने वाद्ययंत्र हैं, उनका भी प्रयोग कम हो गया है।
तकनीकी का असर कैसे आया, इस पर छिकौड़ी और उनके जैसे बुजुर्ग बताते हैं कि जिसे आज हम ब्रास बैंड के तौर पर जानते हैं; वह पहले के ढोल, तुरही, शहनाई जैसे वाद्य यंत्रों का बदला हुआ स्वरूप है।
बैंड बाजा वालों की एक समस्या और है, वह यह कि उन्हें उनकी मेहनत भर का पैसा नहीं मिलता है। बैंड पार्टी में काम पर जाने वाले एक व्यक्ति को कितना पैसा मिलता है, पूछने पर आशीष शर्मा कहते हैं कि ‘जैसी देवी वैसी पूजा’। ये लोग कलाकार होते हैं, जो जैसा कलाकार वैसा ही पैसा। इसमें सबको अलग-अलग पैसा मिलता है, जो 400 रुपये से शुरु होकर 1000 रुपये तक होता है।
इस विषय पर इलाहाबाद के जीबी पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट से शोध कर चुके डॉ. सतेन्द्र कुमार अपने शोध में लिखते हैं कि मूल रूप से इसे ढपलिया समुदाय के रूप में जाना जाना है। इलाहाबाद के आसपास के इलाकों में बसा यह समुदाय जातीय संरचना में ओबीसी के रूप में जाना जाता है।
उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि यह समुदाय मूल रूप से तो ढ़ोल नगाड़े बजाने का काम करता है, मगर भीख मांगना भी इसका एक पेशा है। 1931 की जनगणना के अनुसार, हालांकि इसकी संख्या उस समय एक प्रतिशत के आसपास बताई गई है। इस समुदाय के ज्यादातर लोग गरीब और भूमिहीन हैं, जिसके कारण वे मजबूरी में भी इस पेशे में आते हैं।
इस जाति की संख्या कितनी है, कितने लोग इस पेशे में लगे हुए हैं। इसको लेकर कोई विस्तृत अध्ययन की कमी एक बड़ा मसला है।