मालवा के पठार की दूसरी सबसे उंची चोटी जानापाव से चम्बल, गंभीर, चोरल, अजनार, नखेड़ी, कारम, रंगरेड और चम्लो नाम की एक आधी नदी निकलती है। बीते कुछ समय से बढ़ते तापमान और खत्म होते जंगल के कारण इन नदियों का ईकोसिस्टम बिगड़ रहा है। यही वजह है कि इंदौर और उसके आसपास से निकलने वाली ये नदियां सूख रहीं हैं।
जानापाव पहाड़ी से निकलने वाली चंबल नदी किसी सूखे नाले की तरह दिखाई देती है।
देश की सबसे उपजाऊ जमीनों की बात करें तो मालवा के पठार पर बसे इलाके इसमें शामिल होते हैं। यही वजह है कि इस धरती का परिचय एक पुरानी कहावत से दिया जाता है – “मालव माटी गहन गंभीर, पग-पग रोटी डग-डग नीर” यानी, मालवा की माटी गंभीर है और यह मिट्टी इतनी उपजाऊ है कि हर कदम पर रोटी या पानी मिल जाता है। लेकिन अब यह कहावत बीती बात हो गई है, और हालात बदल रहे हैं।
वर्तमान में मालवा की माटी गहन गंभीर तो है और यहां रोटी भी है, लेकिन पानी लगातार कम हो रहा है। इसका कारण है यहां की सूखती नदियां, जिसकी वजह है बढ़ते तापमान और तेजी से खत्म होते जंगल। इससे नदियों का ईको सिस्टम बिगड़ रहा है। यही वजह है कि इंदौर और उसके आसपास से निकलने वाली नदियां सूख रहीं हैं।
इंदौर-मुंबई हाईवे पर एक सूखा नाला दिखाई देता है। यह नाला तीन राज्यों से होकर 965 किमी दूर यमुना में मिलने वाली एक ऐतिहासिक नदी की शुरुआत है, जिसे चंबल कहते हैं। यह नाला प्रदेश की तीसरी और मालवा के पठार की दूसरी सबसे उंची चोटी जानापाव से नीचे आता है। चंबल की इस चोटी से ही गंभीर, चोरल, अजनार, नखेड़ी, कारम, रंगरेड जैसी दूसरी नदियां और चम्लो नाम की एक आधी नदी निकलती है।
चम्लो को आधी नदी इसलिए कहते हैं क्योंकि यह आधी दूरी तक जाती है और फिर इसकी धारा विलुप्त हो जाती है। इस तरह जानापाव साढ़े सात नदियों का उद्गम स्थल कहा जाता है।
नदियों का उद्गम जानापाव की पहाड़ी पर स्थित इस कुंड से माना जाता है।
नदियों का उद्गम जानापाव की पहाड़ी पर बने एक कुंड से माना जाता है। यहां से निकली गंभीर नदी राजस्थान तक जाती है। फिलहाल हालत यह है कि चोरल को छोड़कर, कुछ साल पहले तक लगातार बहने वाली ये नदियां अब जानापाव (महू तहसील) में बरसात के मौसम के अलावा शायद ही कभी नजर आती हैं।
मालवा में पिछले दिनों हुई बेमौसम बारिश से बड़ी मात्रा में फसलें खराब हुईं। पर्यावरण के जानकार देवकुमार वासुदेवन कहते हैं कि मालवा में पिछले करीब 20-25 सालों में शहरीकरण के साथ इलाके के मौसम में परिवर्तन आना शुरू हुआ। उनके अनुसार, इंदौर और आसपास के इलाकों का औसत तापमान पिछले करीब 25 वर्षों में डेढ़ प्रतिशत तक बढ़ा है। उसका असर यहां के जल स्त्रोतों पर भी पड़ा है।
महू तहसील का उदाहरण देते हुए वासुदेवन कहते हैं कि यहां पहाड़ों से गिरने वाले झरनों की संख्या काफी अधिक है, उन्हें देखने के लिए हर साल हजारों सैलानी यहां आते हैं। लेकिन पहले के मुकाबले झरनों की संख्या काफी कम हो चुकी है, और इसका सीधा मतलब है कि पहाड़ी नदियों में पानी नहीं बचा है।
नदियों के खत्म होने को मौसम जानकार बदलते क्लाईमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) से जोड़ते हैं। इंदौर के हाइड्रोलॉजिस्ट सुधींद्र मोहन शर्मा बताते हैं कि क्लाईमेट चेंज के कारण एक्सट्रीम इवेंट बढ़ते जा रहे हैं। एक्ट्रीम इवेंट को समझाते हुए वह कहते हैं कि ऐसी स्थिति में बिना मौसम के अधिक बारिश, गर्मी और सर्दी होती है।
सुधींद्र आगे कहते हैं कि इस इलाके में बारिश का संतुलन बिगड़ गया है। ऐसे में कम दिनों में अधिक बरसात होने के कारण पानी तेजी से बह जाता है और मिट्टी में समा नहीं पाता। इससे मिट्टी का क्षरण काफी तेजी से हो रहा है, और पानी जमीन में नहीं उतर रहा है। स्थिति यह है कि नदी और नालों में बारिश का पानी आता तो है, लेकिन वह तेजी से बह जाता है।
जानापाव की नदियों के सूखने का कारण भी जलवायु परिवर्तन ही है। सुधींद्र मोहन कहते हैं कि उदाहरण के तौर पर पहले जो 100 फीसद पानी बरसता था; उसमें से 30 फीसद नदियों व नालों से आगे की ओर बह जाता था, जबकि 70 फीसद जमीन में उतर जाता था। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि बारिश नियमित होती थी, और पूरे मौसम के दौरान संतुलित तरीके से होती थी। लेकिन, फिलहाल बेमौसम बरसात की वजह से पानी के जमीन में उतरने की यह क्रिया सही ढंग से नहीं हो पा रही। इसके कारण जमीन में पानी का स्तर लगातार गिर रहा है।
जानापाव की पहाड़ी।
मालवा में मिट्टी का छरण तेजी से हो रहा है। इसकी एक वजह इस पठार की स्थिति है। दरअसल मालवा के पठार पर मिट्टी उपजाऊ तो है, लेकिन इसकी मात्रा काफी कम है। ऐसे में बारिश के साथ मिट्टी जल्दी बह जाती है, जबकि इसके छरण के दूसरे कारण गर्मी और हवा हैं।
पूर्व में, मालवा का अधिकतम तापमान 40 से 41 डिग्री सेल्सियस के बीच होता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह करीब 43 से 44 तक पहुंच जाता है। एक तरफ गर्मी में बढ़ोत्तरी हुई है, वहीं दूसरी ओर वनस्पति भी कम हुए हैं। इसके कारण गर्मी का सीधा असर मिट्टी पर पड़ता है और तेज हवाओं के साथ मिट्टी की परत धीरे-धीरे उड़ती रहती है।
सुधींद्र के मुताबिक, कई बार हवा की जांच में पाया गया कि इंदौर के जंगलों में भी पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे कणों में बढ़ोत्तरी हुई है। मालवा और इंदौर में जलवायु परिवर्तन का असर यहां की नदियों पर गंभीर रूप से पड़ रहा है। इंदौर में बहने वाली कान्ह नदी भी इसी कारण खत्म होती जा रही है। फिलहाल इस नदी में केवल शहर के नालों का पानी बहता है।
70 वर्षीय बुजुर्ग मांगी लाल बताते हैं कि पहले जानापाव की पहाड़ी घनी होती थी। गर्मी में जब पेड़ों के पत्ते पीले पड़ जाते थे, तो भी यह पहाड़ी हरे घास से ढ़की रहती थी और उसमें से पानी रिसता रहता था। तब यहां नदियां दिखाई देती थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब यह सूखी नजर आती है। इस पर पेड़ तो हैं, लेकिन घास व वनस्पति नहीं बची है। ऐसे में मिट्टी बारिश के पानी के साथ बह गई और पहाड़ी वीरान हो गई।
जानापाव से निकलने वाली नदियों का गर्मियों के मौसम में सूखना बहुत बड़ी बात नहीं है, लेकिन ज्यादातर का अस्तित्व ही खतरे में है और यह परेशान करने वाली बात है। हालांकि, इसके लिए बदलते मौसम के साथ इंसानी दखल भी जिम्मेदार है। महू में नदियों के रास्तों को नुकसान पहुंचाया गया और उनमें बड़ी मात्रा में शहरी व औद्योगिक गंदगी फेंकी गई।
महू शहर से होकर गुजरने वाली गंभीर नदी।
जानापाव से निकलने वाली गंभीर नदी महू शहर से होकर गुजरती है, जहां इसमें फेंका जाने वाला शहरी कचरा इसे किसी प्लास्टिक की नदी जैसा बना देता है।
महू न केवल इंदौर बल्कि मालवा के भी सबसे हरे भरे इलाकों में से एक है। यहां नदियों का सूखना सभी को परेशान कर रहा है। खासकर उन किसानों को जिनके खेतों के आसपास जमीनी पानी कम हुआ है। हालांकि इस इलाके के किसान अब भी अच्छी और मुनाफेदार खेती के लिए जाने जाते हैं, लेकिन सिंचाई के लिए इस इलाके में जमीनी पानी के अलावा कोई और दूसरा साधन नहीं है। ऐसे में पिछले करीब 15 साल से यहां की नदियों को पुर्नजीवित करने की मांग उठ रही है।
बावजूद इसके नदियों को पुनर्जीवित करने के लिए कोई ईकोसिस्टम तैयार नहीं किया जा रहा है, बल्कि छह हजार करोड़ रुपये खर्च करके करीब 50 किमी दूर नर्मदा नदी से पानी लाने की योजना है। महू के किसानों के मुताबिक, अगर ऐसा होता है तो उनके इलाके हरे-भरे हो जाएंगे और नदियां जिंदा हो जाएंगी।
जानापाव के नजदीक हासलपुर गांव के किसान अशोक वर्मा कहते हैं कि पानी आने से इलाके की सूरत बदल जाएगी, और उनकी जमीनें उपजाऊ हो जाएंगी।
वहीं, भारतीय किसान संघ के स्थानीय नेता सुभाष पाटीदार कहते हैं कि महू में अगर नर्मदा का पानी आता है तो यहां के करीब 173 गांवों में सिंचाई की सुविधा बढ़ जाएगी। उनके अनुसार, इस पानी का इस्तेमाल माइक्रो इरिगेशन तकनीक के माध्यम से करेंगे, ताकि पानी की बर्बादी से बचा जा सके।
इंदौर के लिए नर्मदा से पानी लेना कोई नई बात नहीं है। यहां पहले भी रिवर इंटरलिकिंक जैसी कई योजनाएं लाई जा चुकी हैं। फिलहाल इंदौर के लोग पीने के पानी के लिए नर्मदा पर ही निर्भर हैं।
100 किमी दूर मंडलेश्वर से इंदौर तक पानी लाने के लिए पिछले करीब 25 वर्षों में हजारों करोड़ रुपये खर्च करके तीन पाइप लाइन बिछाई गई है। इस समय इंदौर शहर के लोग जो पानी पी रहे हैं, उसे नर्मदा से लाने का खर्च सरकार को 80 रुपये प्रति हजार लीटर आ रहा है। जबकि इसकी एवज में लोगों से लिया जाने वाला राजस्व केवल 24 रुपये प्रति हजार लीटर है।
नर्मदा का पानी यहां सिंचाई के लिए भी लाया जा रहा है। इसके लिए करीब 2,200 करोड़ रुपये खर्च करके एक नर्मदा गंभीर सिंचाई परियोजना पर काम जारी है, जो महू से होकर ही निकलती है और उज्जैन जिले की सीमा तक जाती है। इस योजना से करीब 50 हजार हेक्टेयर में सिंचाई हो पाएगी।
इस योजना से रास्ते में पड़ने वाले कई गांव भी लाभान्वित हुए हैं। उन गांवों में अब सिंचाई के लिए बेहतर स्थिति बन चुकी है। यह देखकर कई अन्य इलाकों के लोग भी नर्मदा से पानी की मांग कर रहे हैं।
इंटर बेसिन ट्रांसफर (प्रतीकात्मक फोटो) © Wikipedia
जानकार नदियों के इंटर बेसिन ट्रांसफर को गलत मानते हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े रहे नदियों के जानकार रहमत कहते हैं कि यह हर तरह से नुकसान करने वाला कदम है।
वह बताते हैं कि जानापाव एक रिज यानी घाटी है, जहां पानी के आगे बढ़ने के लिए आदर्श स्थिति बनी और वहां से अलग-अलग दिशाओं में नदियां निकल पड़ीं। अब यह स्थिति नहीं है, इसकी वजह है वनों का खत्म होना और यहां के पर्यावरण का बदलना; जिसके कारण नदियां खत्म हो रहीं हैं।
रहमत आगे कहते हैं कि हर बार अपनी जरूरत के लिए नर्मदा का पानी उधार लेना ठीक नहीं है, क्योंकि नर्मदा खुद भी उन्हीं खतरों से गुजर रही है जिनसे गुजरकर ये छोटी नदियां खत्म हो गईं। यह खतरा बदलते मौसम का है।
उनके मुताबिक, अनियंत्रित इंसानी दखल के अलावा नर्मदा के आसपास उसे बारामासी नदी बनाने वाला ईकोसिस्टम अब पहले जैसा नहीं रहा। नर्मदा के बहने वाले क्षेत्र निमाड़ में भी इसकी सहायक नदियों-धाराओं में कमी आई है।
नर्मदा नदी © Wikimedia
रहमत कहते हैं, “जाहिर है कि नर्मदा भी अब पहले की तरह नहीं बह रही है। ऐसे में नर्मदा से बार-बार पानी लेने से उस पर अधिक भार पड़ेगा। वह कहते हैं कि यह पाइप लाइन अगर बनती है तो संभव है कि आने वाले कुछ वर्षों के लिए राहत मिल जाए, लेकिन लंबे समय तक इस पर निर्भर रहना अक्लमंदी नहीं होगी।”
वह बताते हैं कि “इंटर लिंकिंग और इंटर बेसिन ट्रांसफर को वैज्ञानिकों ने पहले ही खारिज कर दिया था। इसके अलावा नर्मदा और मालवा के पठार के बीच एल्टिट्यूड का काफी अंतर है, जिससे बिजली का खर्च भी काफी अधिक आएगा।”
पर्यावरणविद अभिलाष खांडेकर इंडिया रिवर फोरम की कोर कमेटी और मप्र में वेट लैंड अथॉरिटी के सदस्य हैं। वह कहते हैं कि नदियों को उनके प्राकृतिक स्वरूप में बचाना जरूरी है, न कि उनमें इस तरह से किसी और नदी का पानी लाकर पानी मिला देना। उनके मुताबिक, जानापाव की नदियों को बचाने का एकमात्र तरीका है कि उनके आसपास पर्यावरण को सुधारा जाए।