पशु आहार एवं दूसरी जरूरी चीजों के दाम बढ़ने के साथ पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने से छोटे किसानों के लिए दूध को शहर तक पहुंचाना बन रहा नुकसान का सौदा।
दूध किसान इस तरह पशुओं का दूध शहर के बड़े व्यापारियों तक पहुंचाते हैं।
इंदौर जिले के सांतेर गांव में रहने वाले राजेश दूध का कारोबार करते हैं। वह वर्षों से यही काम करते आए हैं, लेकिन अगले महीने से शायद यह काम न करें। राजेश बताते हैं कि अब इस काम में उन्हें कोई फायदा नहीं है, कोई बचत नहीं होती। उनके अनुसार, जितना पैसा दूध बेचकर आता है, ठीक उतना ही पांच भैंसों को खिलाने और उनकी दूसरी जरूरतों में खर्च हो जाता है। ऐसे में वह अगस्त के महीने से अपना काम बंद कर देंगे।
मालवा निमाड़ के इलाके में कई ऐसे छोटे दूध उत्पादक किसान हैं जो दूध उत्पादन का काम छोड़ चुके हैं या छोड़ने जा रहे हैं। वहीं कई ऐसे भी हैं जो इसके साथ-साथ दूसरे किसी बेहतर काम की तलाश में हैं, ताकि उनकी आमदनी बनी रहे।
किसानों के मुताबिक, बढ़ती महंगाई और लगातार हो रहा शहरीकरण उनके इस फैसले की वजह है। वे बताते हैं कि छोटे किसानों को दूध के व्यापार में अब पहले की तरह मुनाफा नहीं रहा और दूध में जितनी बचत होती है, उतना ही खर्च और उससे भी ज्यादा मेहनत लगती है।
दूसरा कारण, बढ़ता शहरीकरण है। जानवरों के लिए चारागाह कम होते जा रहे हैं। ऐसे में दूध किसानों को भी चारा खरीदना पड़ता है, जो महंगा पड़ता है क्योंकि यह चारा दूर के इलाकों से आता है। इसके परिवहन में खर्च और इस काम से जुड़े लोगों की आमदनी भी उसकी कीमत में शामिल होती है।
तीसरा कारण, महंगाई और शहरीकरण दोनों से जुड़ा छोटा होता परिवार है। दूध उत्पादन छोड़ने की एक वजह जो किसान बताते हैं, वह यह है कि पहले परिवार बड़ा होता था तो सभी लोग मिलकर काम करते थे जिससे जानवरों का रखरखाव आसान था; जबकि अब ऐसा नहीं है।
दूध उत्पादन में भारत दुनिया में पहले नंबर पर है और मध्यप्रदेश भी इस मामले में पीछे नहीं। आंकड़े के अनुसार, वर्ष 2021-22 के दौरान देश में कुल दूध उत्पादन 221.06 मिलियन टन हुआ। इसमें देश के शीर्ष दूध उत्पादक राज्यों का योगदान 50 फीसद से अधिक है। इनमें राजस्थान (15.05), उत्तर प्रदेश (14.93), मध्य प्रदेश (8.06), गुजरात (7.56) और आंध्र प्रदेश (6.97 फीसद) है।
मध्यप्रदेश में अच्छा दूध उत्पादन होने के बावजूद यह छोटे दूध उत्पादक किसानों के लिए मुनाफेदार साबित नहीं हो रहा है। छोटे दूध किसानों के सामने कई तरह की परेशानियां आ रही हैं, जिसमें सबसे अहम महंगाई है। किसान बताते हैं कि दुधारू पशुओं की कीमत काफी बढ़ गई है और उनका आहार भी लगातार महंगा होता जा रहा है। ऐसे में उनका इस व्यापार में बने रहना मुश्किल हो रहा है।
दातोदा गांव के कृष्णा मुंडेल बताते हैं कि उनका पूरा दिन अपने जानवरों की देखभाल में निकल जाता है।
इंदौर के पास दतौदा गांव में कृष्णा मुंडेल पशुपालकों की इस मुश्किल के बारे में बताते हैं। वह कहते हैं कि गाय-भैंस पालना मुश्किल होता जा रहा है। कृष्णा का परिवार बीते कई पीढ़ियों से दूध के कारोबार में है। उनके पास फिलहाल नौ भैंस और छह गाय हैं।
कृष्णा खर्च गिनाते हुए कहते हैं कि इस समय भूसा करीब 800 रुपये प्रति क्विंटल है और उन्हें एक दिन में तीन क्विंटल भूसा लग जाता है, जिसकी कीमत करीब 2400 रुपये होती है। वहीं, पशु आहार एवं खली रोजाना 70 किलो लगती है जिसकी कीमत 2400 रुपये होती है। इसके साथ ही चुरी का खर्च 200 रुपये प्रतिदिन का है। पशुओं की देख-रेख में परिवार के तीन लोगों के अलावा दो मजदूर भी लगते हैं, जिन्हें प्रति माह 20,000 रुपये देने होते हैं। इस तरह पशुपालन में उन्हें हर महीने करीब 1 लाख 70 हजार रुपये का खर्च आता है।
कृष्णा बताते हैं बारिश के मौसम में दूध का उत्पादन बढ़ जाता है, वह इसलिए क्योंकि उन्हें अपने खेत में ही हरी घास मिल जाती है जिससे दूध बढ़ता है। वहीं जिन लोगों के पास खेत नहीं होते हैं, उन्हें हरी घास भी खरीदनी पड़ती है जो करीब तीन रुपये प्रति किलोग्राम पड़ती है।
वह आगे कहते हैं, “पिछले पांच साल में उनकी लागत करीब दो गुना हो चुकी है। यही वजह है कि दूध भी महंगा होता जा रहा है और हर महीने जानवरों का इलाज भी जरूरी होता है, जिसमें काफी खर्च होता है।”
बारिश के चार महीनों में कृष्णा मुंडेल को हर महीने करीब 50,000 रुपये तक बच जाते हैं। इस काम में उनके परिवार के तीन लोग सुबह तीन बजे से दिन के 12 बजे तक और फिर दोपहर तीन बजे से शाम के सात बजे तक काम करते हैं। ऐसे में उनका मेहनताना भी जोड़ लिया जाए तो कड़ी मेहनत के बाद तीनों लोग प्रति व्यक्ति 16-17 हजार रुपये ही हर महीने कमा पाते हैं।
दिल्ली में रहने वाले डेयरी कारोबार के जानकार आरएस खन्ना कहते हैं कि गांव में अधिक अंदरूनी इलाकों में रहने वाले किसानों की उत्पादन लागत कम रहती है, लेकिन उनका शहर तक दूध लाना महंगा होता है। ऐसे इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए सहकारी संस्थाओं से जुड़ जाना ठीक होता है। जहां भी किसान सहकारिता से जुड़े हैं, वहां उन्हें ठीक दाम मिलता है। जबकि, जहां सहकारिता है लेकिन किसान उनसे जुड़े नहीं हैं, वहां भी व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के कारण उन्हें दाम अच्छे मिलते हैं।
खन्ना के मुताबिक, “अधिकतर किसानों के दूध का सही दाम बीचवालों के कारण नहीं मिलता है। ऐसे में किसानों को खुद ही अपनी मार्केटिंग करनी चाहिए। उन्हें अपने लिए सही बाजार खोजना होता है, लेकिन इसके लिए भी लोग लगते हैं क्योंकि हर काम अलग-अलग होता है। जानवरों की देखभाल, दूध निकालना और फिर उसे सही दाम पर बेचना बड़ा काम है। ऐसे में दूध उत्पादन में लागत और उसका मुनाफा इन दोनों के बीच में सही अनुपात होना जरूरी है।”
वह आगे कहते हैं, “यह सही है कि छोटे किसान दूध उत्पादन से दूर हो रहे हैं। इसके पीछे महंगाई और छोटे होते परिवार भी प्रमुख कारण हैं, लेकिन ऐसी स्थिति में भी दूध की जरूरत और उसके व्यापार की संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता है। किसानों को चाहिए कि वे इसके लिए रास्ता निकालें।”
खन्ना कहते हैं कि फिलहाल बाजार मजबूत हो रहा है, क्योंकि बड़े फार्म खुल रहे हैं। गायों की नस्लें बेहतर हो रहीं हैं, ऐसे में कई लोग बाहर होंगे तो भी नुकसान नहीं होगा।
डेयरी व्यापारी रवि सिंह अपनी दुकान पर।
बड़े फार्म की बातें छोटे किसानों के लिए मुफीद नहीं हैं, क्योंकि वे उतनी पूंजी नहीं लगा सकते। इस बात को समझाते हुए महू में डेयरी कारोबारी रवि सिंह (26 वर्ष) बताते हैं कि छोटे इलाकों में डेयरी कारोबार एक ही गति से चलता रहा है, लेकिन धीरे-धीरे छोटे किसान इस काम से बाहर हो जाएंगे क्योंकि दूध कारोबार से ज्यादा आमदनी दूसरे कामों में है।
रवि इस कारोबार में किसानों के कर्जदार होने की भी एक परेशानी बताते हैं। वह कहते हैं कि ज्यादातर किसान हमेशा घाटे में रहते हैं। खेती में तो अक्सर घाटा हो जाता है और जब मुनाफा होता है तो वह भी घाटा खत्म करने में खर्च हो जाता है। इसके बाद दूध उत्पादक किसान अच्छे उत्पादन की आशा में नए पशु खरीदता है, जो काफी महंगे होते हैं। इसके लिए उसे डेयरी साहूकार कर्ज देते हैं और साल भर या कर्ज चुकने तक जो भी दूध होता है, साहूकार उसे आधा या उससे कम दाम देकर खरीदते हैं। ऐसे में किसान को लागत पूरी लगती है, लेकिन पैसा नहीं मिलता और वह लगातार कर्जदार होता जाता है।
रवि के मुताबिक, “उनका परिवार पिछले कई वर्षों से यही कारोबार कर रहा है और इस दौरान वह कई किसानों को कर्जदार होते और फिर दूध उत्पादन छोड़ते देख चुके हैं।”
रवि कहते हैं कि उन्होंने भी अब दुकान पर मावा बनाना कम कर दिया है, क्योंकि इसमें काफी गैस खर्च होती है और यह महंगा पड़ता है। वह बताते हैं कि इंदौर के आसपास बहुत से दूध उत्पादकों के पास जो भी जमीनें थीं, अब उनके दाम बहुत बढ़ गए हैं। ऐसे में वे यह काम नहीं करना चाहते हैं।
अंकित जैन इंदौर में स्थित अपने डेयरी फार्म में।
भारत के किसान अक्सर अपनी खेती में सारी लागत तो जोड़ लेते हैं, लेकिन अपनी मजदूरी नहीं जोड़ते। यही हाल दूध किसानों का भी है। इंदौर शहर में सबसे महंगा दूध गीर गाय का मिलता है। अंकित जैन ने सात साल पहले छह गीर गायों से यह कारोबार शुरू किया था। आज उनके पास 55 गाय हैं और उनका कारोबार 1.25 करोड़ सालाना का है।
अंकित इंदौर शहर में 99 रुपये प्रति लीटर दूध बेचते हैं। यह इस समय सामान्य दूध के औसत दाम 60 रुपये से कहीं अधिक है। हालांकि वह गीर गाय का दूध बेचते हैं। वह कहते हैं कि उनकी नजर में किसानों की परेशानी यह है कि वे अब तक अपने दूध के कारोबार का सही कॉस्ट एनालिसिस नहीं कर सके हैं। अगर वे अपनी खुद की मजदूरी भी इसमें जोड़ लें तो प्रति लीटर भाव बढ़ेगा, लेकिन फिर बाजार में दूध और महंगा हो जाएगा।
वह बताते हैं कि उन्होंने बाजार के एक हिस्से की जरूरत के लिए काम किया है और ऐसे ही ग्राहक खोजे हैं। ऐसे में उनके पास होने वाला करीब 400 लीटर दूध पूरा बिक जाता है। हालांकि, अंकित यह मानते हैं कि इस तरह का काम करने के लिए किसानों के पास एक बड़ा निवेश और बदलते व्यापार की बेहतर समझ जरूरी है। इसके अलावा कॉस्ट फैक्टर एक ऐसी चीज है जिस पर हमेशा ही काम करने की जरूरत है।
बुंदेलखंड और आसपास के इलाकों के किसान भी यही समस्या देख रहे हैं। यहां दूध की गुणवत्ता मालवा के इलाके से कुछ हल्की है। यहां केनकथा नस्ल की गाय मिलती हैं, वह दूध कारोबार के लिए बहुत उपयुक्त नहीं हैं और व्यापारिक दृष्टिकोण से भी यह पिछड़ा हुआ इलाका है।
दमोह जिले में गुंजी गांव के किसान सौरभ दुबे बताते हैं कि उन्होंने अपने पास चार गाय रखकर दूध का काम शुरु किया था। कुछ साल पहले तक उन्हें इससे ठीक-ठाक मुनाफा हो जाता था, जिसके बाद उन्होंने अपना काम बढ़ाने की सोची लेकिन पूंजी की कमी थी। यहां के एक अन्य किसान लखन पटेल कहते हैं कि बाजार में दूध की मांग है और यह मुनाफे का कारोबार भी बन सकता है, लेकिन उसके लिए गाय की उन्नत किस्मों पर जोर देना जरूरी है।
समनापुर गांव के आनंद पटेल कहते हैं कि वह काम छोड़ना चाहते हैं, क्योंकि पशु महंगे हो चुके हैं। इसके बावजूद अगर उन्हें लेकर काम शुरू किया जाता है, तो धीरे-धीरे वे दूध देना कम कर देते हैं जबकि खुराक पहले की ही तरह देनी होती है। गांव से शहर तक दूध लाने में परिवहन का खर्च होता है और पेट्रोल-डीजल महंगा होने से यह खर्च भी बढ़ गया है।
प्रदेश का सबसे बड़ा और पुराना वेटनरी कॉलेज महू में है। यहां के डॉ. संदीप नानावटी दुधारू पशु और दूध व्यवसाय के लिए किसानों को ट्रेनिंग देते हैं। वह कहते हैं कि ये बात सही है कि दूध बेचने वाले ज्यादातर किसान परेशान हैं। ऐसा बाजार की स्थिति के कारण हो रहा है। उनके मुताबिक, इसके लिए किसान भी जिम्मेदार है क्योंकि किसानों ने अब तक दूध कारोबार को गंभीरता से नहीं लिया है। अधिकतर किसान बाजार तक दूध पहुंचाते हैं, लेकिन वे दूध बिचौलियों को देते हैं। वहीं, पशु आहार की कीमत भी बड़ी परेशानी है।
डॉ. नानावटी कहते हैं कि दूध फैट के हिसाब से बिकता है। दुग्ध संघ करीब सात रुपये फैट के हिसाब से दूध खरीदते हैं। ऐसे में किसान केवल सात रुपये फैट वाला दूध ही देते हैं और उन्हें इसके लिए 49 रुपये प्रति लीटर का दाम मिलता है। वहीं, दूध बाजार में करीब 60 से 64 रुपये प्रति लीटर बिकता है। ऐसे में किसान की लागत और दूध के दाम में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है।
नानावटी के मुताबिक, दूध कारोबार के लिए माहौल बन रहा है, लेकिन किसानों को भी तैयार रहना होगा। वह बताते हैं कि सहकारी समितियों ने अच्छा काम किया है जिससे किसानों को लाभ हो रहा है, लेकिन उन्हें बाजार के बिचौलियों और दूध के साहूकारों से मुक्ति नहीं मिल पा रही है। वहीं, अगर पशु आहार के दाम में कुछ कमी की जाए तो स्थिति और भी बेहतर हो सकती है।
सहकारिता मॉडल के तहत प्रदेश में छह दुग्ध संघ बनाए गए हैं। ये प्रदेश के सभी बड़े शहरों में हैं। इनमें से एक इंदौर दुग्ध संघ है। यह संघ इंदौर संभाग के सभी जिलों से दूध लेता है और बाजार में यह दूध सांची के नाम से बिकता है। इनसे करीब 2.5 लाख किसान जुड़े हैं और एक लाख किसान दुग्ध संघ को नियमित रूप से दूध देते हैं। सभी किसान 1500 दुग्ध समितियों से जुड़े हुए हैं। यह संघ करीब 2.75 लाख लीटर दूध लेता है।
संघ के अध्यक्ष मोती सिंह पटेल कहते हैं, “यह सही है कि छोटे किसानों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ऐसे में उनके लिए कुछ खास योजनाएं बनाई जानी चाहिए। दुग्ध संघ किसान को फैट के हिसाब से जो भुगतान करता है, वह अच्छा तो है लेकिन यह दाम भी किसानों के लागत के हिसाब से मुनासिब नहीं कहा जा सकता है।”
पटेल बताते हैं कि महंगाई बहुत ज्यादा है, ऐसे में किसान अगर दूध की पूरी लागत जोड़ें तो यह बहुत कम है। उनके अनुसार “किसानों को प्रोत्साहन राशि देने की जरूरत है, जो बंगाल, राजस्थान, कर्नाटक जैसे कई दूसरे राज्यों में मिलती है। ऐसा होता है तो मध्य प्रदेश का किसान भी दूध का व्यापार आसानी से कर पाएगा।”
इस बारे में जब हमने प्रदेश के पशुपालन और डेयरी मंत्री प्रेम सिंह पटेल से बात की तो उन्होंने कहा कि “किसानों को सही दाम न मिल रहा हो, ऐसा नहीं है। अभी भाव ठीक है। मध्य प्रदेश में दूध किसानों के लिए बेहतर काम हो रहा है। दूध उत्पादक किसानों के लिए जो प्रोत्साहन राशि देने के लिए मांग आ रही है, हम उस पर भी विचार कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि प्रदेश में दूध उत्पादक किसान किसी भी तरह से परेशान हों।” हालांकि, मंत्री ने दूध किसानों की लगातार बढ़ती लागत पर कोई जवाब नहीं दिया।
इंदौर में ज्यादातर दूध का कारोबार खुला होता है। इंदौर दुग्ध उत्पादक संघ के अध्यक्ष भारत मथुरावाला कहते हैं कि इंदौर में निजी व्यापारी 12 लाख लीटर दूध प्रतिदिन खरीदते हैं। वह बताते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं कि महंगाई के कारण लागत बढ़ी है और मुनाफा कम हुआ है।
उनके मुताबिक, “जो किसान घाटे में जाते हैं, वे जानवरों को अच्छे दर्जे की खुराक देना बंद कर देते हैं और सस्ती खली, चुरी खिलाने लगते हैं। कई किसान तो बियर फैक्ट्रियों से निकलने वाला भूसा भी खरीदते हैं और जानवरों को खिलाते हैं।”
मथुरावाला के अनुसार, दूध किसानों को राहत देने के लिए खली को वायदा बाजार से बाहर कर देना चाहिए और सरकार को इस पर नियंत्रण रखना चाहिए।
बता दें कि मध्य प्रदेश में कपस्या खली को वायदा बाजार से मुक्त करने के लिए किसानों की ओर से लगातार मांग हो रही है। सांची ब्रांड के लिए काम करने वाले इंदौर दुग्ध संघ के सीईओ आरके दुर्वार कहते हैं कि किसानों को सहकारिता से जुड़ने की जरूरत है। वह कहते हैं कि हमारे गांवों में लो प्रोडक्टिव और अनप्रोडक्टिव पशु बहुत अधिक हैं, जिन्हें बदलने की जरूरत है।
दुर्वार बताते हैं कि महंगाई की बात को नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन किसानों को इसे व्यापार की तरह पहचानना और अपनाना जरूरी है। इसमें अवसर की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसा इसलिए क्योंकि एग्रीकल्चर (कृषि) की जीडीपी में दूध की हिस्सेदारी 30 फीसद की है और भारत में इसकी मांग लगातार बनी रहेगी।
वह आगे कहते हैं, “नेशनल लाइव स्टॉक मिशन के तहत किसानों को दूध कारोबार के लिए दो करोड़ रुपये तक का लोन जल्द मिल जाता है। इस कार्यक्रम के तहत किसानों को अलग-अलग राज्यों की शानदार डेयरी दिखाई जाती है और वहां के संस्थानों में उन्हें प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रदेश में इस योजना के तहत 50,000 अच्छी नस्ल के दुधारू जानवर लाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।”