पिछले वर्ष अक्टूबर-नवंबर से ही भारत के अलग-अलग राज्यों से खाद की कमी शिकायतें आनी शुरू हो गई थी| इस बाबत 10 दिसंबर, 2021 को सात सांसदों (महाराष्ट्र के हेमंत पाटिल, सुशील कुमार सिंह, रामदास तडस और पूनम महाजन, पश्चिम बंगाल से देबाश्री चौधरी और नुसरत जहां और पंजाब से सांसद (पूर्व) भगवंत मान) ने लोकसभा में रबी फसल के लिए यूरिया और डाई अमोनियम फास्फेट (डीएपी) की आवश्यकता, उपलब्धता और बिक्री की राज्यवार जानकारी मांगी थी।
Krishikul, an organic farm in Faridabad | PC: Rohin Kumar
जबाव में सरकार ने सदन को बताया कि यूरिया के आयात पर साल 2020-21 में 25049.62 करोड़ खर्च किए गए। “क्या देश में यूरिया की पर्याप्त मात्रा उपलब्ध है?,” के जबाव में सरकार ने कहा, “जी, हां,” और साथ में चालू रबी 2021-22 को दौरान यूरिया की आवश्यकता, यथानुपात आवश्यकता, उपलब्धता और बिक्री का ब्यौरा सदन को दिया। साथ ही सरकार ने ये भी बताया कि आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत उर्वरक को एक आवश्यक वस्तु घोषित किया है। उर्वरकों की तस्करी रोकने के साथ ही न्यूनतम खुदरा मूल्य पर उर्वरकों की बिक्री सुनिश्चित करवाने के लिए पर्याप्त शक्तियां राज्य सरकारों को दी गई हैं।
सरकार के इन दावों के बावजूद देश के किसानों को यूरिया, डीएपी समेत अन्य खाद मिलने में समस्या होती रही। एक खबर के मुताबिक फरवरी में छत्तीसगढ़ को मांग से कम खाद की आपूर्ति की गई। छत्तीसगढ़ सरकार ने 7 लाख 50 हजार मीट्रिक टन रासायनिक खाद की डिमांड की थी। लेकिन केंद्र सरकार ने मात्र 4 लाख 11 हजार मीट्रिक टन की स्वीकृति दी जो कि प्रदेश की जरूरत का केवल 55 प्रतिशत था। पिछले साल खाद संकट के दो मुख्य कारण थे – पहला, चीन की नेशनल डेवलपमेंट एंड रिफॉर्म कमीशन ने उर्वरक कंपनियों को जमाखोरी और सट्टेबाजी के आरोप में समन जारी किया था जिसके बाद चीन ने उर्वरकों के निर्यात पर अस्थायी रोक लगा दी थी। दूसरा, बेलारूस पर यूरोपियन यूनियन ने इकॉनोमिक सैंक्शंस लगाए थे जिससे नतीजा यह हुआ कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उर्वरकों की कीमतों में उछाल के साथ-साथ सप्लाई भी प्रभावित हुई।
इसी बीच फरवरी से यूक्रेन-रूस के बीच युद्ध शुरू हो गया और खाद संकट और भी गंभीर होती चली गई। रूस और बेलारूस दोनों रसायनिक उर्वरकों के मामले में दुनिया के सबसे बड़े उत्पादक और निर्यातक हैं। दोनों देश मिलाकर लगभग 40 फीसदी पोटाश का दुनियाभर में निर्यात करते हैं।
जहां एक तरफ जरूरत है कि रसायनिक खाद के संकट को दूर किया जाए जिससे किसानों पर बोझ कम हो, वहीं यह संकट एक मौका भी लेकर आया है जहां सरकार किसानों को प्राकृतिक और जैविक खेती के प्रति प्रोत्साहित करे। साथ ही धान और गेहूं के फसल चक्र (मोनोक्रॉपिंग) से फसल विविधता पर जोर दिया जाए।
हालांकि रोचक है कि जब पिछले साल ही विदेशी मुद्रा की किल्लत के मद्देनज़र श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने अचानक से रसायनिक खाद के आयात को प्रतिबंधित कर दिया और पूरे देश को जैविक खेती क्षेत्र में बदलने की घोषणा की तो उर्वरक कंपनियों ने जैविक खेती के खिलाफ प्रौपोगैंडा का चक्रव्यूह रच दिया। मीडिया के हवाले से जैविक खेती को श्रीलंका के अर्थव्यवस्था के गिरने का एकमात्र कारण बताया जाने लगा। जबकि श्रीलंका के खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के पीछे राजपक्षे सरकार की राजनीतिक कुनीतियों – सांप्रदायिकता, विदेशी मुद्रा भंडारण में कमी, कर्ज, कोविड लॉकडाउन से पर्यटन का नुकसान – का कॉकटेल था और रसायनिक खाद के आयात को प्रतिबंधित करना उन कारणों में से एक कारण था।
Tribal rights activist Dayamani Barla talking about importance of reviving millets and uncultivated food | PC: Rohin Kumar
संकट से उबरने के तात्कालिक उपाय
जलवायु परिवर्तन की गंभीरता के मद्देनज़र भारत सहित दुनिया के अन्य देश जीवाश्म इंधन (फॉसिल फ्यूल) से नवीकरणीय इंधन (रिनिएबेल एनर्जी) की शिफ्ट हो रहे हैं। लेकिन अफसोस की बात है कि रसायनिक खेती से प्राकृतिक खेती के तरफ शिफ्ट होने के जरूरी उत्साह और नीतियां अभी भी मुक्कमल नहीं हैं। जबकि इंटर गवर्नमेंटल पेनल फॉर क्लाइमेट चेंज (IPCC:2020) के मुताबिक लगभग 23 फीसदी एंथ्रोपेजेनिक ग्रीनहाउस गैस एमिशन एग्रीकल्चर, फॉरेस्ट्री और लैंड यूज़ से होता है।
एलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (ASHA) के अनुसार मौजादा खाद संकट से उबरने के लिए – पहला, सरकार को अगले दो वर्षों तक रसायनिक खाद सब्सिडी को बढ़ाना चाहिए। इससे देश के अंदर उर्वरकों की डिमांड और सप्लाई का बेहतर आंकलन हो सकेगा और आगामी फसल चक्रों के हिसाब से रसायनिक खाद का स्टॉक तैयार किया जा सकेगा। दूसरा, विदेश मंत्रालय को दूसरे देशों से रसायनिक खाद के आयात को लेकर योजना तैयार करना चाहिए। (मीडिया रिपोर्टों के हवाले से पता चलता है भारत सरकार इस पहलू पर विचार कर रही है और दूसरे देशों से वार्ता में है।) तीसरा, राज्य सरकार को रसायनिक खाद के तस्करी पर नियंत्रण रखना चाहिए। इसके लिए सरकार को रसायनिक खाद नेशनल कंट्रोल रूम बना सकती है। चौथा, खेतों में उचित मात्रा में खाद का इस्तेमाल हो, इसके लिए किसानों को ट्रेनिंग दी जाए। राज्य कृषि विश्वविद्यालयों को फसलों में डाले जानेवाले खाद की मात्रा को अपडेट करने की जरूरत है। पांचवा, फसलों पर छींटे जाने वाले रसायनिक खाद की जगह पानी में घुलने वाले खाद को वरीयता दी जाए। यह फसलों को जरूरी पोषक तत्व प्रदान करने का सबसे कारगर तरीका भी है।
इन तात्कालिक तरीकों के अलावा कृषि के क्षेत्र में ढांचागत सुधार की भी जरूरत है। इससे न सिर्फ जलवायु परिवर्तन से लड़ने में मदद मिलेगी बल्कि खाद्य और पोषण सुरक्षा और जैव विविधता बरकरार करने में मदद करेगी।
जैविक और प्राकृतिक खेती का विकल्प
इसी महीने गुजरात में नेचुरल फार्मिंग कॉनक्लेव में किसानों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्राकृतिक खेती के संबंध में कहा, “प्राकृतिक खेती व्यक्तिगत खुशहाली का रास्ता खोलेगी। यह विधि सभी लोगों के सुखी और स्वस्थ रहने की भावना को भी साकार करेगी। जब आप प्राकृतिक खेती करते हैं तो आप धरती माता की सेवा करते हैं, मिट्टी की क्वालिटी, उसकी उत्पादकता की रक्षा करते हैं। जब आप प्राकृतिक खेती करते हैं तो आप प्रकृति और पर्यावरण की सेवा करते हैं। जब आप प्राकृतिक खेती से जुड़ते हैं तो आपको गौ माता की सेवा का सौभाग्य भी मिलता है।” सरकार ने प्राकृतिक खेती को नमामि गंगे परियोजना से भी जोड़ा है। गंगा के खाली पड़े उपजाऊ किनारों को प्राकृतिक खेती कॉरिडॉर में बदला जा रहा है।
“हरित क्रांति के बाद से देश में ऐसा माहौल बना जैसे रसायनिक खाद के बिना खेती संभव ही नहीं है। जो कि एक गलत धारणा है। मैं पिछले पांच वर्षों से जैविक खेती कर रहा हूं। खुद से जैविक खाद बनाकर खेतों में इस्तेमाल करता हूं। इस पद्धति से हमारा स्वास्थ्य लाभ तो है ही खेती में लागत भी कम हुई है,” बिहार के जमुई में पिछले पांच वर्षों से जैविक खेती करने वाले सिंहेश्वर यादव कहते हैं।
गौरतलब हो कि वर्ष 2023 इंटरनेशनल इयर ऑफ मिलेट्स (मडुआ) होना है। जरूरत है कि मडुआ की खेती को बढ़ावा दिया जाए। “मडुआ में लगभग न के बराबर रसायनिक खाद की जरूरत है। न ही मडुआ के फसल को बहुत पानी की जरूरत होती है। यह फसल धान और गेहूं से ज्यादा पोष्टिक भी होता है और जलवायु और जैव विविधता के लिहाज से भी उपयोगी है,” सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला कहती हैं, “बचपन से हमलोग मडुआ खाते रहे हैं। यह हमारे संस्कृति का हिस्सा रहा है। लेकिन जब से खाद्य पदार्थों में कॉरपोरेट का नियंत्रण बढ़ता जा रहा है और सरकारों के तरफ से भी मडुआ की खेती को प्रोत्साहन नहीं मिलने से मडुआ थाली से गायब हो गया है।”
इसी तरह रिजेनेरेटिव एग्रीकल्चर (पुनर्योजी कृषि) को बढ़ावा देने उद्देश्य से वर्ष 2020 में छत्तीसगढ़ सरकार ने गोधन न्याय योजना की शुरुआत की थी। इस योजना के अंतर्गत सरकार किसानों से गाय का गोबर खरीदती है और महिला स्वयंसेवी समूह इससे गोबर खाद बनाकर किसानों को बेचती हैं।
कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि जितना अहम खाद संकट से फौरी तौर पर निबटना है, उससे ज्यादा जरूरी है कि सरकारें कृषि को लेकर लॉन्ग टर्म योजनाएं बनाएं जिससे कि लोगों के स्वास्थ्य के साथ-साथ मिट्टी और जलवायु परिवर्तन से भी लड़ने में सहयोग मिले।