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Indore में Potato Chips का 200 करोड़ का कारोबार, रेगुलेशन के अभाव में रोज़गार के साथ कर रहा बीमार

इंदौर (Indore) की महू (Mhow) तहसील में कोदरिया नाम की पंचायत में चलता है 200 करोड़ के आलू चिप्स का कारोबार (Potato Chips Units) – जो हज़ारों लोगों को रोज़गार तो देता है, मगर साथ ही कारखाने से निकलने वाला पानी वहां की ‘गंभीर नदी’ और भूजल को प्रदूषित कर रहा है। अब सवाल है कि लोग पर्यावरण और तरक्की में से क्या चुनें।


By Aditya Singh , 22 Apr 2023


आलू चिप्स कारखानों में बड़ी संख्या में काम करते मज़दूर और चिप्स बनने के बाद हो रही उसकी पैकिंग।

करीब पांच दशक पहले राजस्थान (Rajasthan) से कुछ मज़दूर काम की तलाश में मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) के इंदौर (Indore) आए और यहीं बस गए। मज़दूरी में उन्हें अक्सर पैसों के साथ कुछ सब्ज़ियां मिलती थीं, जिन्हें वे सुखाकर रख लेते थे – बिल्कुल वैसे ही जैसे वे अपनी धरती पर करते थे। इंदौर के महू (Mhow) में आलू अच्छा होता था तो उन मज़दूरों को आलू (Potato) ही मज़दूरी में मिलता था। उसे मज़दूरों ने काट-सुखाकर रखना शुरू कर दिया, जब मात्रा अधिक हो जाती तो वह बाज़ार में बेच देते। आज क़रीब पांच दशक बाद मज़दूरों का शुरू किया हुआ वह छोटा सा व्यापार 200 करोड़ रुपये से अधिक की एक इंडस्ट्री बन चुका है, जिसने एक इलाके की किस्मत बदल दी है।

इंदौर की महू तहसील में कोदरिया (Kodriya) नाम की पंचायत अपने चिप्स कारोबार के लिए जानी जाती है। यहां की हज़ारों एकड़ ज़मीन पर आलू चिप्स (Potato Chips) का कारोबार होता है। छोटे-बड़े कारखानों की यह पंचायत इस व्यापार से फलती फूलती रही है। राजस्थान के उन मज़दूरों की कई पीढ़ियां आज भी उस व्यापार से जुड़ी हुईं हैं, तो वहीं बहुत से दूसरे किसान भी अब चिप्स कारोबारी बन गए हैं। हालांकि, आज तक इस कारोबार को किसी उद्योग का दर्जा नहीं मिला है। ऐसे में उस स्तर की सुविधाएं भी नहीं मिली हैं।

मनोज सैनी कोदरिया में रहते हैं और अपने घर पर आने वाली बदबू से परेशान हैं। उनकी तरह इस पंचायत और आसपास की कई पंचायतों के अलावा महू शहर के लोग भी इस बदबू से परेशान हैं। जनवरी से अप्रैल तक तो यहां सुबह और रात को सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है। इन तमाम परेशानियों के बावजूद सैनी कुछ कर नहीं सकते। ऐसा इसलिए क्योंकि यह सब आलू चिप्स कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी के कारण होता है और वे इन कारखानों के संघ के अध्यक्ष हैं।

मनोज कहते हैं, “इस कारोबार से करीब 20 हज़ार से अधिक लोग सीधे तौर पर जुड़ते हैं और अप्रत्यक्ष तौर पर तो यह संख्या 30 हज़ार से भी अधिक हो जाती है। इस कारोबार ने इलाके को समृद्ध किया है। आलू चिप्स को लेकर कोदरिया का नाम आज देशभर में जाना जाता है।”

चिप्स कारखानों (Potato Chips Units) से निकलने वाले दूषित पानी से नदी से नाला हो गई गंभीर नदी।

नदी बन गई नाला

महू के बीच से निकलने वाली ‘गंभीर नदी’ (Gambhir River) अब नाला नज़र आती है। साल की शुरुआत से लेकर गर्मियों तक इस नदी के पास जाना भी मुश्किल होता है। काला बदबूदार और झागदार पानी इसे बेहद ख़तरनाक स्वरूप देता है। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि केवल दो दशक पहले तक इस नदी से लोग पीने और अपनी दूसरी ज़रूरतों के लिए पानी लेते थे। जबकि, अब गंभीर नदी में एक बड़े इलाके का कचरा डाला जाता है।

नदी का यह हाल इसलिए हुआ क्योंकि इसमें आलू चिप्स कारखानों का पानी छोड़ दिया जाता है। खेतों में बने चिप्स कारखानों से पानी सीधे नाली में उतार दिया जाता है, वहां से नालों में और नालों से यह पानी नदी में पहुंच जाता है। इसके बाद प्रदूषित हो चुकी नदी को नाला समझ लिया जाता है और लोग इसमें अपनी गंदगी फेंकने लगते हैं।

नालों में आने वाले इस दूषित पानी से ज़मीनी पानी भी दूषित होता है। इलाके के कई बोरवेल में अब पानी ख़राब हो चुका है।

खेतों में सूख रहे आलू चिप्स (Potato Chips)

चिप्स कारखानों की पंचायत

कोदरिया पंचायत की आबादी क़रीब 30 हज़ार से अधिक है। इस पंचायत में क़रीब 200 से अधिक चिप्स कारखाने संचालित होते हैं। इसके अलावा आसपास की पंचायतों में भी कुछ कारखाने हैं। यहां के लिए आने पर चिप्स कारखाने दूर से ही नज़र आ जाते हैं। कई एकड़ खेतों में सूखते आलू और चिप्स के हल्के पीले रंग के बड़े-बड़े कई ढ़ेर दिखाई देते हैं।

मध्य प्रदेश (मप्र) के मालवा रीजन में आलू की अच्छी फसल होती है और ये आलू शुगर फ्री या कम शुगर वाले माने जाते हैं। यह आलू सामान्य इस्तेमाल के अलावा चिप्स बनाने के लिए सबसे मुफ़ीद होता है। ठंड के मौसम के आख़िर में आलू निकलने के साथ ही चिप्स का मौसम शुरू हो जाता है। इस दौरान देशभर से व्यापारी मालवा के इलाकों में आलू खरीदने के लिए आते हैं। कोदरिया में व्यापारियों की यह भीड़ चिप्स के लिए आलू तय करने के लिए आती है। ऐसे में ये चिप्स कारखाने केवल चार महीने यानी जनवरी से अप्रैल के बीच ही चलते हैं।

कोदरिया पंचायत में एक कारखाने में आलू चिप्स तैयार किया जा रहा है।

मज़दूरों के लिए रोज़गार का बड़ा ज़रिया

कारखानों में आलू चिप्स के ढ़ेरों के बीच काम करते मज़दूर भी दिख जाते हैं। उन मज़दूरों को यहां केवल चार महीने के लिए काम मिलता है। इस दौरान उन्हें प्रतिदिन 300 से लेकर 450 रुपये तक मज़दूरी मिलती है। कई मज़दूर यहीं कारखानों के आसपास खेतों में झोपड़ी बनाकर रहते हैं, तो कई को कारखाना मालिकों को रोज़ाना बुलाना होता है।

हरेक कारखाने में कम से कम पचास मज़दूर तो होते ही हैं, लेकिन बड़े कारखानों में इनकी संख्या 300 तक हो सकती है। ऐसे में इन कारखानों में क़रीब 20 हज़ार से अधिक मज़दूरों को सीधे रोज़गार मिलता है। इनमें से ज़्यादातर मज़दूर नज़दीकी आदिवासी बाहुल्य निमाड़ क्षेत्र से आते हैं।

एक चिप्स कारखाने में खरगोन जिले से काम करने पहुंचे वीरेंद्र बताते हैं कि वे हर साल चार महीने के लिए पूरे परिवार के साथ महू आ जाते हैं। इस दौरान दोनों पति-पत्नी को प्रतिदिन क़रीब 800 रुपये की मज़दूरी मिलती है।

वीरेंद्र की तरह ही उन्हीं के धार जिले से आने वाली एक संतोषी बाई नाम की एक महिला मजदूर बताती हैं कि उनके गांव में स्थानीय स्तर पर कोई काम नहीं मिलता और मिलता भी है तो बस थोड़े दिन के लिए, जबकि कोदरिया के आलू कारखानों में हर साल काम मिल ही जाता है। वह कहती हैं, “चार महीने में वे इतना पैसा बचा लेती हैं कि उन्हें आगे परेशानी नहीं होती।”

वहीं कई मज़दूर तो यहां छह महीने तक रहते हैं, वे पहले आलू के खेतों में काम करते हैं और फिर चिप्स कारखानों में।

कोदरिया के पास नेऊगुराड़िया गांव में गांव के नालों में बह रहा आलू चिप्स का पानी।

बदबू से बेहाल हो जाते हैं लोग

आलू चिप्स कारखानों के वेस्ट वॉटर से आने वाली बदबू को मीलों दूर तक महसूस किया जा सकता है। महू शहर से सटी हुई गूजरखेड़ा पंचायत के लोग बताते हैं कि उनके यहां बदबू इतनी ज़्यादा आती है कि कई बार घुटन महसूस होने लगती है। इसी पंचायत के बीच से गंभीर नदी गुजरती है।

इस बारे में स्थानीय पत्रकार अरुण सोलंकी बताते हैं कि यहां हवा के संपर्क में नदी का पानी आने से एक मंदिर की मूर्तियों के रंग तक बदलने लगते हैं, जबकि कई लोगों को अब सूंघने में परेशानी तक होने लगी है।

गूजरखेड़ा के इस मंदिर में पूजा करने वाली प्रेमा बाई पांडे बताती हैं, “बदबू परेशान करती है, लेकिन अब इलाके के लोग इसके आदी होने लगे हैं। हालांकि, बाहरी मेहमान चिप्स कारखानों के संचालन के दिनों में हमारे घरों में आना पसंद नहीं करते।”

उनके अनुसार, बदबू अकेली परेशानी नहीं है बल्कि मंदिरों में रखे बर्तन भी इससे काले पड़ जाते हैं। प्रेमा बाई कहती हैं कि ऐसे में वह ज़्यादातर बर्तनों को कपड़े से ढक कर रखती हैं। यहीं पूजा करते हुए केशव प्रसाद भी मिलते हैं जो कहते हैं, “अगर धातु का यह हाल हो सकता है, तो इंसानों की त्वचा का क्या हाल होगा।”

एक कारखाना संचालक बताते हैं कि आलू की प्रोसेसिंग के दौरान उसमें सोडियम मेटाब्यूसल्फ़ाइट नाम का एक केमिकल मिलाया जाता है। इससे आलू से बनने वाली पापड़ी की उम्र बढ़ जाती है और वह करीब तीन साल तक खराब नहीं होती है। आलू की धुलाई के दौरान यह पानी में मिल जाता है और फिर बह जाता है। इसके अलावा दूसरा वेस्ट मटेरियल आलू का छिलका होता है। वह एक लैब रिपोर्ट को दिखाते हुए बताते हैं इससे किसी तरह की स्वास्थ्य हानि नहीं हो सकती, न ही आलू के छिलकों से।

कोदरिया के पास नेउगुराड़िया नाम के एक गांव में भी बदबू और गंदा पानी बड़ी समस्या हैं। यहां कैलाश नाम के एक ग्रामीण बताते हैं, “नाले के पानी में इतनी गंदगी होती है कि सुबह और शाम को यहां लोग मुंह बांधकर निकलते हैं।”

इंदौर में श्वसन रोग विशेषज्ञ और टीबी अस्पताल के डीन डॉ. सलिल भार्गव कहते हैं कि “लगातार बदबू सूंघना भी हानिकारक हो सकता है। इससे कई तरह की श्वसन संबंधी परेशानियां हो सकती हैं, क्योंकि बदबू केवल हवा में नहीं होती। यह प्रदूषित ज़हरीली हवा इंसान के लिए नुक़सानदेह साबित होगी।”

महू में रहने वाले इंदौर के पर्यावरण प्रेमी देवकुमार वासुदेवन के मुताबिक़, आलू चिप्स के कारखानों से आई आर्थिक खुशहाली से इंकार नहीं किया जा सकता है। कुछ दशक पहले तक ऐसा नहीं था, लेकिन अब हालात बदले हैं और इसके साथ ही पर्यावरण में बदलाव आया है। इससे नदियां प्रदूषित होने लगी हैं और भूजल ख़राब हुआ है।

वासुदेवन बताते हैं, “इसका उपाय यही हो सकता है कि सरकार कारखानों को गंभीरता से लेते हुए उनकी बेहतरी के लिए ठोस क़दम उठाए।”

आलू चिप्स पापड़ी संघ के अध्यक्ष मनोज सैनी और चिप्स कारखाना संचालक भगवती मुकाती।

करोड़ों का कारोबार, कर रहा बीमार

कोदरिया के क़रीब दो से अधिक चिप्स कारखानों का यह व्यापार 200 करोड़ से 300 करोड़ रुपये तक माना जाता है। यहां कई कारखानों का सालाना टर्नओवर 20 करोड़ रुपये से अधिक तक है। इसके बावजूद यह व्यापार किसी तरह से अधिनियमित या रेग्युलेट नहीं है, यहां के व्यापारी इससे निराश हैं।

कच्ची आलू पापड़ी निर्माता संघ के अध्यक्ष मनोज सैनी बताते हैं, “यह गांव उनका भी है और यहां गंदा पानी या बदबू उन्हें भी उतना ही परेशान करती है जितनी दूसरों को। लेकिन आज इस कारोबार से हज़ारों लोगों को रोज़गार मिल रहा है। जिस व्यापार से अर्थव्यवस्था को लाभ हो रहा है, उसे बंद करना उचित नहीं बल्कि उसे रेग्युलेट कर उसे सुविधाजनक बनाना चाहिए।”

यहां नज़दीक ही भगवती मुकाती का भी कारखाना है। वह इलाके का एकमात्र सुव्यवस्थित कारखाना है। इसमें उन्होंने धुआं छोड़ने के लिए बॉयलर की 100 फुट उंची चिमनी लगाई है और खराब पानी को फिल्टर करने के लिए ईटीपी प्लांट तक लगाया गया है। हालांकि, बाकी सभी कारखानों की तरह ही यहां भी बॉयलर या भट्टी को गर्म रखने के लिए लकड़ी का इस्तेमाल होता है। ऐसे में बड़े पैमाने पर लकड़ी महू लाई जाती है। इस लकड़ी का भी एक बड़ा व्यापार है जो खरगोन, खंडवा और आसपास के कई दूसरे जिलों के जंगल से चलता है।

कोदरिया पंचायत में में एक आलू चिप्स कारखाना, यहां बॉयलर को जलाए रखने के लिए बड़े पैमाने पर लकड़ी की ज़रूरत होती है।

मुकाती बताते हैं, “इस व्यापार में फिलहाल लकड़ी का कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि यही सबसे आसानी से उपलब्ध होती है। वे बताते हैं कि करीब डेढ़ साल पहले कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने एलपीजी के उपयोग की बात कही थी। लेकिन लंबी दूरी तक केवल चार महीने के व्यापार के लिए लाइन बिछाना मुश्किल और खर्चीला होगा, ऐसे में यह उपाय कारगर नहीं है।” वह कहते हैं कि आलू चिप्स का व्यापार न केवल रोज़गार देता है बल्कि किसानों और मंडियों को भी आर्थिक लाभ होता है।

चिप्स के आलू के बारे में बताते हुए वह कहते हैं, “चिप्स में जो आलू प्रयोग होता है, वह सेकेंड ग्रेड का होता है। ऐसे में खेतों में पैदा होने वाले कुल आलू का 30-40 प्रतिशत चिप्स व्यापारी खरीदते हैं। अगर वे इसे न खरीदें तो किसानों को इसे बेचना मुश्किल होगा क्योंकि इसके दाम नहीं मिलते, जबकि चिप्स व्यापारी इसके लिए अच्छी कीमत देते हैं।”

कोदरिया के चिप्स कारखानों में रोज़ाना हज़ारों बोरी तक आलू की खपत होती है।

इंदौर की अनाज और सब्जी मंडी प्रदेश की सबसे बड़ी मंडी मानी जाती है। यहां ट्रेडिंग करने वाले संजय गेहलोत बताते हैं, “इंदौर में मालवा के सभी इलाकों से आलू आता है और यहां किसान क़रीब 50 से 60 हज़ार आलू के कट्टे (बोरी) रोज़ाना लेकर आते हैं। इनमें से चालीस हज़ार से अधिक कट्टे चिप्स व्यापारी खरीद लेते हैं। किसान इंदौर में ज़्यादातर चिप्स का आलू ही लेकर आते हैं, क्योंकि राशन वाले आलू वे अपने इलाकों की मंडियों में बेच देते हैं।” इस तरह किसानों से आलू खरीदने में और मंडी को व्यापार देने में आलू चिप्स व्यापारियों की एक बड़ी भूमिका होती है।

कुछ महीनों पहले आलू चिप्स कारखानों को रेग्युलेट करने की बात कही गई थी और इसके लिए एक योजना भी बनाई गई, लेकिन चिप्स कारखाना संचालकों को इससे ख़ास उम्मीद नहीं हैं। कारखाना संचालक बताते हैं कि इसके लिए एक 15 से 20 एकड़ जमीन पर आलू क्लस्टर बनाकर देने की योजना है। यह क्लस्टर कोदरिया से करीब 30 किमी दूर बनाया जाएगा।

इस बारे में संघ के अध्यक्ष मनोज सैनी कहते हैं कि हमारे कारखाने चार महीने तक ही चलते हैं; छोटे कारखाने भी करीब 5-10 एकड़ ज़मीन लेते हैं और बड़े कारखानों में करीब 30-40 एकड़ तक ज़मीन लग जाती है। ऐसे में कुछ ज़मीन व्यापारी के पास होती है तो कुछ वे किसान से ले लेते हैं और उसके बदले फ़सल की कीमत का किराया देते हैं। वह बताते हैं कि पूरा कारोबार क़रीब हज़ार एकड़ से भी कहीं ज़्यादा ज़मीन पर होता है, ऐसे में अगर आलू चिप्स कारखानों को कितना भी छोटा किया जाए तो भी यह क्लस्टर योजना के मुताबिक़ केवल 15-20 एकड़ ज़मीन में नहीं बन सकते हैं।

कारखाना संचालक भगवती मुकाती के अनुसार, इसका हल केवल यह है कि सरकार कोदरिया की पहचान बनी रहने दे और यहीं एक क्लस्टर का निर्माण कर दे। खेतों के पास से वेस्ट वॉटर के लिए रास्ता बना दे और यहां एक ईटीपी प्लांट लगा दे, ताकि पानी को साफ़ किया जा सके जिससे बदबू कम हो सके।

वह कहते हैं कि इसके बाद के चरण में बायोफ्यूल को लेकर योजना बनाई जानी चाहिए। इसी बात पर सहमति देते हुए अध्यक्ष मनोज सैनी कहते हैं कि वे और तमाम कारखाना संचालक इसके लिए सरकार को एक न्यूनतम आर्थिक सहयोग देने को भी तैयार हैं।

एक अन्य संचालक कहते हैं, “उन्हें पर्यावरण पर हो रहे असर के बारे में जानकारी है, लेकिन वे जानते हैं कि इस व्यवसाय ने उन्हें ताक़त दी है और हज़ारों लोगों को रोज़गार भी दिया है। आने वाले दिनों में यह व्यवसाय अरबों का होगा और इससे आर्थिक विकास होग। ऐसे में इसके विकास और पर्यावरण की बेहतरी के लिए कुछ कदम उठाए जाने चाहिए। लेकिन जब तक यह नहीं होता है, तब तक सभी के सामने सवाल है कि वे क्या चुनना चाहते हैं – एक स्वस्थ्य पर्यावरण या आर्थिक मज़बूती और रोज़गार।”