हालांकि, बीते कुछ समय में टेराकोटा के बर्तनों की मांग देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी लगातार बढ़ी है। स्वास्थ्य के लिहाज से टेराकोटा के बर्तन सबसे मुफीद साबित हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि टेराकोटा के बर्तनों में पकाए गए भोजन में शत-प्रतिशत पोषक तत्व रहते हैं, जबकि एल्युमिनियम के बर्तन में पोषक तत्वों की मात्रा घट जाती है।
चाक पर मिट्टी को मटके का आकार देते हुए कुम्हार जसवंत।
दिल्ली की कुम्हार कॉलोनी – जहां बसते हैं करीब 150 कुम्हार परिवार। इनमें से कुछ परिवारों का पुश्तैनी काम मिट्टी के बर्तन बनाना रहा है, वहीं कुछ परिवारों की नई पीढ़ी ने इस काम को अपनी जीविका के लिए चुना है। इस कॉलोनी में अपने पुश्तैनी मकान में रह रहे जसवंत सिंह उर्फ कालू बताते हैं कि उनके दादा-परदादा करीब 40 साल पहले इस कॉलोनी में आकर बसे थे। जसवंत ने 9 वर्ष की उम्र में मिट्टी के काम की परख कर ली थी, तभी से वह सुबह कच्ची मिट्टी का मलीदा बनाने से लेकर उसे मटके, सुराही, बर्तन का आकार देने का काम करते आए हैं।
वह बताते हैं कि उन्होंने सुबह से केवल एक ही मटका बेचा है। वजह पूछने पर जसवंत कहते हैं कि यह साल बिक्री के लिहाज से काम काफी धीमा रहा है, जिसके चलते कुछ खास कमाई नहीं हुई है।
उनके अनुसार, जहां पिछले साल गर्मियों में एक दिन में करीब 10-15 मटके बिक जाया करते थे और जिससे 500 से 700 रुपये की आय हो जाया करती थी; वहीं इस बार मौसम काफी मंदा रहा है। इतनी कम कमाई में 10 लोगों के परिवार का भरण-पोषण करना मुश्किल हो गया है।
जसवंत आगे कहते हैं, “साल में गर्मी के महीनों के अलावा केवल दीवाली और दुर्गा पूजा के दौरान ही मिट्टी के बर्तनों की मांग में बढ़ोतरी होती है। हालांकि, कुछ शादियों और अन्य अवसरों पर भी कुल्हड़ वगैरह की मांग बढ़ती है।”
टेराकोटा और सिरेमिक के बर्तनों की दुकान।
अगली गली में हमें एक काफी सजी हुई टेराकोटा और सिरेमिक के बर्तनों की दुकान दिखाई दी। करीब जाने पर मालूम हुआ कि यह कुम्हार ईश्वर सिंह की दुकान है। इस दुकान में विभिन्न प्रकार की बोतलें, बर्तन और सजावट का सामान उपलब्ध है।
ईश्वर सिंह बताते हैं कि कुंभकारी उनका पुश्तैनी काम है, लेकिन बदलते वक्त के साथ उन्होंने अपने व्यापार को आधुनिकता का रंग दिया है जिससे बिक्री में इजाफा किया जा सके। वह मानते हैं की टेराकोटा इंडस्ट्री का आने वाले समय में काफी स्कोप है। हालांकि, अन्य कुम्हारों की तरह ईश्वर सिंह के लिए भी यह साल बिक्री की दृष्टि से काफी धीमा रहा है।
मिट्टी के बर्तन बेचनी वाली महिलाएं अपनी दुकान पर बैठी हुईं।
मंदी की मार झेलने वाले कारीगरों और व्यापारियों में सिर्फ पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी शामिल हैं। अपनी दुकान के आगे बैठीं रेखा और महेंदर सुबह से ग्राहक का इंतजार कर रहीं हैं, लेकिन शाम 4 बजे तक भी बोनी नहीं हो पाई। ऐसे में हताश महिलाएं बताती हैं कि उन्हें कुंभकारी पुरखों से विरासत में मिली है, लेकिन इस महंगाई के दौर में मिट्टी के बर्तन बेचकर घर चलाना और इस कला को जीवित रख पाना काफी मुश्किल हो गया है। महेंदर नहीं चाहतीं की उनका बेटा इस पेशे में आए।
सरकार की नीतियों और मदद के बारे पूछने पर 56 वर्षीय रेखा बताती हैं कि वर्ष 2022 में सरकार ने दुर्गा पूजा के दौरान टेराकोटा का मेला आयोजित किया था, जिसमें हम सभी कुम्हारों को स्टॉल लगाने का आमंत्रण दिया गया था। हम सभी ने विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तन, सजावट के सामान और सिरेमिक के बर्तनों के स्टॉल लगाए – इसमें हमें मुनाफा भी हुआ, लेकिन इस साल अभी तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हुई है।
रोशन लाल प्रजापति के गोदाम में रखे मिट्टी के विभिन्न बर्तन।
महेंदर और रेखा की दुकान से कुछ दूरी पर मौजूद है 55 वर्षीय रोशन लाल प्रजापति का मकान, और ठीक उसके बगल में उनका गोदाम, जिसमें भारी संख्या में मिट्टी के बर्तन करीने से सजे हुए हैं। रोशन प्रजापति के गोदाम में काम करने वाले कारीगर बर्तनों को बड़े एहतियात से ट्रक में चढ़ा रहे थे।
मिट्टी के बर्तनों को ट्रक में रखता मजदूर।
रोशन लाल बताते हैं कि इस ट्रक का सामान एक रिटेल स्टोर के लिए जा रहा है जहां से उन्हें मिट्टी के बर्तनों का बल्क ऑर्डर मिला था। उनके अनुसार, बर्तन बनाने से लेकर उसे पकाने तक में पूरा दो महीने का समय लगता है। सबसे पहले, बर्तन बनाने के लिए भारी मात्रा में कच्ची मिट्टी खरीदनी पड़ती है। एक ट्रॉली मिट्टी की कीमत चार से पांच हजार रुपये तक होती है। इसके बाद की प्रक्रिया में बर्तन बनाने वाले मजदूर, ईंधन और बर्तन पर होने वाले रंग का खर्चा भी होता है; जिसके बाद बर्तनों को बाजार में बेचने पर चार से पांच हजार का मुनाफा होता है।
दिल्ली की कुम्हार कॉलोनी।
एक ओर बदलती तकनीक के कारण स्टील और कांच के बर्तनों का आधुनिक उपयोग इस पेशेवर व्यापार को धीरे-धीरे पराया करता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर हाल के वर्षों में; भारत में टेराकोटा उद्योग में नए स्टार्टअप्स के प्रयासों के कारण इस इंडस्ट्री का पुनर्जन्म हुआ है। पारंपरिक मिट्टी कला को ‘कुल्लड़ चाय’ आंदोलन और ‘पॉटरी कैफे’ के माध्यम से जीवंत किया जा रहा है, जो सांस्कृतिक धरोहर और समकालीन आधुनिकता को एक साथ लाते हैं।
गोदाम में रखे अनेक प्रकार के मिट्टी के बर्तन।
एमएनएनआईटी (MNNIT), प्रयागराज से अपना शोध कार्य कर रहे सीनियर रिसर्चर उमा शंकर यादव ने तीन वर्षों तक टेराकोटा और टॉय इंडस्ट्री पर रिसर्च किया है। उन्होंने अपने शोधपत्र में टेराकोटा व्यापार में कलाकारों के पतन और उन पर बिचौलियों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को उजागर किया है।
शोधकर्ता ने कुम्हारों और कलाकारों के रोजगार को इस असंगत क्षति से बचाने के लिए सुझाव भी दिए हैं। उमा शंकर का मानना है कि सरकार को छोटे कुम्हारों और कलाकारों को भी वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट (One District One Product) स्कीम से जोड़ने का प्रयास करना चाहिए, जिससे कि उन्हें अपने काम का सही दाम मिल सके।
वह कहते हैं, “सरकार को कम दाम पर मिट्टी और ईंधन मुहैया करवाना चाहिए, ताकि कोई भी मिट्टी का सामान बेचने पर विक्रेता को अधिक मुनाफा हो सके।”
सूरजकुंड मेले में विगत तीन वर्षों से टेराकोटा और चीनी मिट्टी के बर्तनों की प्रदर्शनी लगाने वाले विनोद त्रिपाठी का मानना है की भारत में मिट्टी के बर्तन और कला का इतिहास हमारी संस्कृति और धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इस कला का भविष्य संकट में है।
वह आगे कहते हैं, “मेरे व्यवसायिक अनुभव के आधार पर, कुम्हारों की स्थिति सुधारने के लिए कई कदम उठाए जाने चाहिए। पहली बात तो यह है कि हमें उन्हें तकनीकी ज्ञान और प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता है, ताकि वे नए और आधुनिक डिजाइन के बर्तन बना सकें। दूसरी बात, सरकार को कुम्हारों को आर्थिक सहायता प्रदान करने की जरूरत है।”
“कुम्हार बड़ी मात्रा में कच्ची मिट्टी खरीदने और बर्तन बनाने के लिए पैसे खर्च करते हैं, इसलिए सरकार को उनके लिए सस्ती एवं उपयोगी सामग्री प्रदान करने के लिए कदम उठाना चाहिए।”
“इन सुझावों को आधार मानकर, हम संगठन, सरकार और समाज के साथ मिलकर कुम्हारों के लिए समृद्धि की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं। इससे न केवल टेराकोटा उद्योग का उत्थान होगा, बल्कि हम भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को बचाए रखने में सहायक हो सकेंगे,” विनोद त्रिपाठी ने यह कहते हुए अपनी बात पूरी की।