झारखंड के इस कोल फील्ड इलाके में पिछले क़रीब 100 वर्षों से आग धधक रही है और इन्हीं अंगारों के ऊपर बसा हुआ है झरिया (Jharia)। बीते दिनों हुई ज़मींदोज़ की घटनाओं और मानव क्षति के कारण यहां के लोगों को बेलगड़िया पुनर्वासित किए जाने की कोशिश चल रही है। जबकि, यहां के लोग रोज़गार गारंटी के बिना वहां पुनर्वास को तैयार नहीं हैं।
झरिया में ज़मीन के अंदर लगी आग से निकल रहा धुंआ।
सुबह के लगभग पौने आठ बज रहे थे। कल्याणी हर रोज़ की तरह खुले में शौच करने गई थी, मगर दिसंबर की वो सुबह कल्याणी और उसके परिवार के लिए मनहूस साबित हुई। वह फिर कभी लौट कर नहीं आई। ज़मीन धंसने के कारण कल्याणी ज़मींदोज़ हो गई। मामला है धनबाद ज़िले के झरिया (Jharia) स्थित कुसुंडा इलाके के बस्ताकोला का। यह घटना वर्ष 2020 में 18 दिसंबर को हुई थी।
“हमारे घर में सरकार के द्वारा जो शौचालय बनवाया गया था, वह टूट चुका था। घर से लगभग 200-300 मीटर की दूरी पर कल्याणी शौच करने गई। वह शौच करके लौट ही रही थी कि ज़मीन धंसने लगा और कल्याणी उसमें समा गई। गड्ढा क़रीब 10 फिट का था,” यह कहते हुए कल्याणी के पति दिलीप बाउरी की आखें नम हो गईं।
दिलीप आगे कहते हैं, “बीसीसीएल (Bharat Coking Coal Limited) के कर्मचारियों को जब घटना की जानकारी मिली तो वे मौक़े पर से काम छोड़कर भाग गए। पत्नी की मौत के बाद बीसीसीएल ने मुआवज़े के रूप में साढ़े चार लाख रुपये देने की बात कही थी, जिसमें से आज भी 75,000 रुपये हमें नहीं मिले। सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते-काटते हम थक गए हैं।”
दिलीप अपनी पत्नी के साथ हुए हादसे का ज़िक्र करते हुए बताते हैं, “मेरी बेटी दौड़कर मेरे पास आई और बोली मम्मी अंदर जा रही है। जब तक मैं गया वो अंदर जा चुकी थी। इस घटना को पूरे दो साल बीत चुके हैं लेकिन झरिया के इलाके में लोगों की ज़िन्दगी अब भी खतरे में है। अभी हमलोग बैठकर बातें कर रहे हैं मगर कब हम ज़मींदोज़ हो जाएं, यह कहना मुश्किल है।”
पुनर्वास योजना के तहत अभी झरिया और इसके आसपास के इलाके के लोगों को बेलगड़िया में रहने के लिए जगह दी गई है। फ्लैट का निर्माण किया गया है, लेकिन लोग वहां शिफ्ट नहीं होना चाहते हैं क्योंकि वहां रोज़गार के साधन नहीं हैं। झरिया में कोयला लोगों के आय का मुख्य स्त्रोत है, जो बेलगड़िया में नहीं है। लोगों का कहना है कि बेलगड़िया में शिक्षा और स्वास्थ्य की भी व्यवस्था नहीं है।
रीता देवी जो दिलीप बाउरी के पास के घर में ही रहती हैं, वह बताती हैं, “हम वर्ष 2000 से यहां रह रहे हैं। यहां गर्म हवाएं चलती हैं, सांस लेने में हमें बेहद परेशानी होती है। यदि हमलोग दरवाज़ा बंद कर देते हैं, तो घर में गैस जमा हो जाता है जिससे दम घुंटने लगता है। हमारा घर फटने लगा है। सरकार हमारे लिए कुछ नहीं कर रही है, यदि हमें अच्छी जगह पुनर्वास योजना के तहत भेजा जाएगा तो हम ज़रूर शिफ्ट होंगे।”
झरिया का पूरा इलाका कोल फिल्ड का है। भारत को आने वाले 70 वर्षों तक जितने कोयले की ज़रूरत होगी, झारखंड (Jharkhand) अकेला उसकी पूर्ति कर सकता है। मालूम हो कि झारखंड में देश का 29 प्रतिशत कोयला पाया जाता है।
ज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट (GSI Report) के मुताबिक़, झारखंड में सबसे अधिक 86 हज़ार मिलियन टन कोयले का रिज़र्व भंडार है।
बालू गद्दा का इलाका, जहां एक साल से आग है।
ज़मीन के अंदर लगभग 100 वर्षों से आग धधक रही है और इन्हीं अंगारों के ऊपर बसा हुआ है झरिया। वर्ष 1890 में अंग्रेज़ों ने झरिया में कोयले की खोज की थी, जिसके बाद से झरिया और आसपास का इलाका जलता रहा। इसके बावजूद बीसीसीएल और जन-प्रतिनिधियों ने शहर को बचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया। आलम यह है कि मौजूदा वक़्त में झरिया शहर में चारों ओर आग की लपटें और भू-धंसान लोगों के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है।
झरिया के बालू गद्दा और उसके आसपास के इलाकों की स्थिति बेहद दयनीय है। बालू गद्दा के मनीष कुमार पांडे कहते हैं, “हम रात को सो नहीं पाते हैं। कोयले की गाड़ियों की आवाज़ें हमारे कानों में गूंजती रहती हैं। ऐसे में हम ठीक से सांस भी नहीं ले पाते हैं।”
जब हम मनीष से बात कर रहे थे तो बालू गद्दा में उनके घर से कुछ ही कदम की दूरी पर ज़मीन में आग लगी हुई थी। मनीष बताते हैं यह आग एक वर्ष से भी अधिक वक़्त से जल रही है। बारिश के दिनों में स्थिति और बदतर हो जाती है। गैस रिसाव के साथ घरों और ज़मीनों में मौज़ूद दरारें और भी बढ़ने लगती हैं।
सहानापहाड़ी के एक मकान की दीवारों में साफ़ तौर पर क्रैक देखा जा सकता है।
झरिया और आसपास के इलाकों में ओपन कास्ट माइनिंग इस वक़्त ज़ोरों पर है। झरिया के सहानापहाड़ी इलाके में औसत घरों में दरारें पड़ चुकी हैं।
इसी इलाके की रहने वाली जितनी देवी कहती हैं, “ओपन कास्ट माइनिंग के दौरान जब बीसीसीएल कंपनी द्वारा ब्लास्ट किया जाता है तो घर तक तेज़ आवाज़ें आती हैं और घर हिलने लगता है। कोयले का इलाका है, इसलिए यहां गर्मी भी बहुत अधिक लगती है। हमें खाद वाला पानी पीना पड़ता है, वही पानी जो ओपन कास्ट माइनिंग के बाद खाई से निकलती है।”
घनवाडीह की रुसवा देवी बताती हैं, “दिनभर में हम दो बोरी कोयला बेचते हैं और उसी से 60 रुपये कमाई हो जाती है। कोयला निकालने की प्रकिया यहां निरंतर चलती है, इसलिए सांस लेने में भी तकलीफ़ होती है मगर लोगों को अब इसकी आदत पड़ गई है। रोज़ की 60 रुपये की कमाई से ही हमारा चार लोगों का परिवार चलता है।”
ओपन कास्ट माइनिंग के बाद गड्ढे में जमा खाद वाला पानी।
झरिया के ही दुआरी बस्ती में हमारी मुलाक़ात एक ऐसे परिवार से हुई जिनके घर के ठीक सामने ओपन कास्ट माइनिंग का काम लगभग 4-5 वर्षों से चल रहा है। विस्फोट की तेज़ आवाज़ें इन्हें रात को सोने नहीं देती हैं। इनका घर चारों ओर से टूट चुका है, घर के बाहर ज़मीन में दरारें आ चुकी हैं जिनमें से धुंआ निकलता है। किसी भी वक़्त यह घर फटकर ज़मींदोज़ हो सकता है।
पूनम देवी बताती हैं, “पहले जब सामने पहाड़ (ओपन कास्ट माइनिंग के दौरान ऊपरी पत्थर को लेकर दूसरे जगह डंप करना) नहीं था तो हम लोगों का घर बहुत अच्छा था। यहां पहले बहुत बड़ी बस्ती थी, लेकिन सबको पुनर्वास योजना के तहत दूसरी जगह शिफ्ट कर दिया गया। मगर अब भी हमारे जैसे कई परिवार हैं जिनको पुनर्वास योजना का लाभ नहीं मिला है।”
पूनम के भाई भूजन प्रसाद ऑटो चलाते हैं। वह कहते हैं कि यहां पानी की व्यवस्था नहीं है और हमें खाद वाला पानी पीना पड़ता है। हम सोते हैं तो काफ़ी गर्मी लगती है, ऐसा लगता है कि हम उठकर कहीं चले जाएं। हमें पुनर्वास योजना के तहत मकान भी नहीं दिया गया है। हमने प्रशासन और सरकार से कई दफा बात की है, मगर कोई फ़र्क नहीं पड़ा है।
ओपन कास्ट माइनिंग के लिए खुदाई का कार्य चलते हुए।
बीसीसीएल के अधिकारी राजीव कुमार से जब हमने इस संबंध में बात की तो वह कहते हैं, “बीसीसीएल का काम है फंड उपलब्ध करना। रोज़गार या पुनर्वास को लेकर जो भी दिक्कतें हैं, उसका समाधान सरकार को करना है।”
वह बताते हैं, “झरिया के इलाकों में वर्ष 1916 में आग लगना शुरू हुआ और 1938 तक झरिया के एक तिहाई खदान आग से प्रभावित हो गए। आग तीन कारणों से लगती है। पहला कोयला, दूसरा तापमान और तीसरा ऑक्सीजन। कोयले की प्रॉपर्टी ही ऐसी होती है कि अगर अंदर दो फ़ीसद ऑक्सीजन भी रह गया तो वह उसमे आग लगने के लिए काफ़ी है।”
राजीव आगे कहते हैं, “यह संभव नहीं है कि सभी अंडरग्राउंड माइनिंग स्थल पर जाकर आप तापमान को कंट्रोल करें। चूंकि भारत में आबादी अधिक है, हम यह भी नहीं कर सकते कि पूरा टाउनशिप ही दूसरी जगह शिफ्ट हो जाए। आग को बुझाने के लिए हमें सभी का सहयोग चाहिए। हम लोग राज्य सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। हमने सबसे प्रभावित इलाकों को चिन्हित किया है और वहां काम जारी है।”
लिलोरी पथरा, जहां पुनर्वास योजना के अंतर्गत घरों को तोड़ा गया है।
राजीव आगे कहते हैं, “जिन इलाकों में आग की घटनाएं हैं, वहां से हम अपने लोगों को हटा रहे हैं। उन्हें झरिया मास्टर प्लान में हाउसिंग की सुविधा दी गई है। जहां तक रोज़गार की बात है तो मास्टर प्लान में हमने न्यूनतम भत्ते का प्रावधान भी रखा है। मसला यह है कि झरिया में लोगों को कोयले से अधिक कमाई होती है, इसलिए वे बेलगड़िया में शिफ्ट होना नहीं चाहते हैं। लोग वहां से शिफ्ट करें, इसके लिए प्रशासन को एक्शन लेना होगा।”
बहरहाल, मसला है कोयले से होने वाली कमाई। खदानों से झरिया के लोगों को आसानी से कम कीमत पर कोयला मिल जाता है, जिसे बेचकर वे अच्छी कमाई कर लेते हैं। ऐसे में उनके पास रोज़गार का कोई दूसरा साधन नहीं है। गैस रिसाव, ज़मीन फटना और 24 घंटे माइनिंग की तेज़ आवाज़ों को झेलने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।
अब या तो आने वाले वक़्त में सरकार और प्रशासन के दबाव में झरिया की एक बड़ी आबादी पुनर्वास योजना के तहत बेलगड़िया शिफ्ट होगी या फिर बीसीसीएल और झारखंड सरकार को मिलकर झरिया मास्टर प्लान में कोई ठोस समाधान शामिल करना होगा।