छोटा नागपुर पठार के कुड़मियों को ब्रिटिश राज में अनुसूचित जनजातियों में गिना जाता था, लेकिन स्वतंत्र भारत में उन्हें सूची से बाहर कर दिया गया. यही कारण है कि झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के कुड़मी ख़ुद को एसटी वर्ग में शामिल करने को लेकर आंदोलनरत हैं.
20 सितंबर 2022 : कुड़मी को एसटी में शामिल करने के लिए झारखंड में कुड़मी समाज के लोग रेल रोको आंदोलन करते हुए.
झारखंड और उसके पड़ोसी राज्यों ओडिशा एवं पश्चिम बंगाल के महतो (कुड़मी) समुदाय पिछले कई सालों से खुद को ‘अनुसूचित जनजाति’ वर्ग में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. यह मांग पिछले एक वर्ष में बहुत तेज़ी से बढ़ी है. इस मांग को लेकर दो बार ‘रेल रोको’ अभियान चला, जिसके कारण दोनों बार सैकड़ों रेलगाड़ी स्थगित हुईं.
बीते 27 मार्च को कुड़मी समाज के द्वारा झारखंड के चांडिल प्रखंड में महाजुटान रैली हुई. इस रैली में ‘आदिवासी कुड़मी’ समाज की ओर से अपील की गई कि 2024 के आम चुनाव से पहले कुड़मी समाज को ‘अनुसूचित जनजाति’ में शामिल किया जाए, अन्यथा कुड़मी बहुल झारखंड के 18 ज़िले, पश्चिम बंगाल के 12 ज़िले, ओडिशा के 10 ज़िले और छत्तीसगढ़ के दो ज़िलों को मिलाकर ‘कुड़ुमगढ़ प्रदेश’ की मांग की जाएगी.
इस सवाल पर कि क्या महाजुटान रैली में कहा गया कि आप लोग कुड़ुमगढ़ प्रदेश की मांग करेंगे? आदिवासी कुड़मी समाज के प्रवक्ता अधिवक्ता सुनील महतो कहते हैं कि रैली में हमारे प्रवक्ता हरमोहन महतो ने ये बातें कहीं, लेकिन फिलहाल हमारा पहला लक्ष्य कुड़मियों को ‘अनुसूचित जनजाति’ में शामिल करवाना है.
आदिवासी कुड़मी आंदोलन का हिस्सा अनुप महतो पूछते हैं कि “कुड़ुमगढ़ शब्द आपके लिए नया क्यों है?” वह कहते हैं कि ये इलाका कुड़मियों का मूल क्षेत्र ‘छोटा नागपुर पठार’ है, जिसमें झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा व छत्तीसगढ़ के कुछ ज़िले आते हैं. यह पूर्व में कुड़ुमगढ़ के तौर पर प्रचलित रहा है. अब यह क्षेत्र कुछ राज्यों में बंट गया है, इसका मतलब ऐसा कतई नहीं कि हमारी संस्कृति बदल गई है.
अनुप महतो आगे कहते हैं, “भारत की सबसे बड़ी खूबी यह है कि हमारा देश विभिन्न संस्कृति का संगम है. जिसकी जो संस्कृति पूर्व में थी, वह आज भी उसके साथ अपने क्षेत्रों में जीवनयापन कर रहे हैं. लेकिन, हमें अलग-अलग राज्यों में बांट कर हमारी संस्कृति पर प्रहार किया गया.”
अधिवक्ता सुनील महतो कहते हैं कि इस क्षेत्र में कुड़मियों के डीएनए जांच में पाया गया कि हमारा डीएनए 65 हज़ार साल पुराना है. इतिहास उठा कर देखिए; शुरू से हम जल, जंगल, ज़मीन पर निर्भर हैं. ज़ाहिर है यह मूलवासी के ही गुण हैं, जैसे मुंडा या उरांव. अतः हम महतो समाज के लोग आदिवासी कुड़मी हैं.
चड़क पूजा के दौरान 30 फीट ऊंचाई पर आस्था जताता कुड़मी समाज.
आप लोग ऐसा कैसे कह सकते हैं, ‘कुर्मी’ तो उत्तर प्रदेश व बिहार में भी हैं?
इस सवाल पर नाखुश होते हुए दीपक पुनअरिआर कहते हैं, “हम कुर्मी नहीं, ‘कुड़मी’ हैं. हम लोगों को जबरन कुर्मी बताया जा रहा है. आप कुर्मी व कुड़मी की संस्कृति उठा कर देखिए, दोनों में कोई समानता नहीं मिलेगी.”
पेशे से शिक्षक दीपक पुनअरिआर ने कुड़मी समाज की संस्कृति पर गहन शोध किया है. वह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश व बिहार के कुर्मी हिंदू धर्म के अनुयायी हैं, जबकि छोटा नागपुर पठार के रहने वाले पूर्व से प्रकृति की पूजा करते आए हैं जिसे ‘सरना धर्म’ कहा जाता है. हमारी अपनी वर्षों पुरानी भाषा है जिसे कुड़माली भाषा कहते हैं, जबकि उत्तर प्रदेश या बिहार के कुर्मियों की भाषा हिंदी है.
पुनअरिआर के अनुसार, कुड़मी समाज में शादी-ब्याह का तरीका कुर्मी समाज से एकदम अलग है. वह कहते हैं कि हमारे यहां सिंदूर-दान से पहले लड़के व लड़की को एक प्रथा से गुज़रना पड़ता है. इस प्रथा में लड़के का विवाह आम के वृक्ष से होगा, जबकि लड़की का विवाह महुआ के वृक्ष से होगा.
“महुआ-ब्याह व आम-ब्याह नाम की प्रक्रिया के बाद दोनों को ‘सिनइ’ प्रथा से गुज़रना पड़ता है. इस प्रक्रिया में दोनों के बाएं हाथ की पिंकी फिंगर से रूई में ब्लड लिया जाता है, जिसे मिक्स करने के बाद दोनों अपने हथेली पर खून लेकर एक-दूसरे के सीने पर लगाते हैं. इसके बाद सिंदूर-दान की प्रक्रिया समाज के वृद्ध व्यक्ति की मौजूदगी में होती है.”
दीपक पुनअरिआर आगे कहते हैं, “विवाह की यह प्रक्रिया हम ट्राइब्स कुड़मी में हमारे वृद्ध व्यक्तियों की मौजूदगी में ही होती है, जबकि कुर्मी समाज में अन्य हिंदू समाज की तरह विवाह सिर्फ़ पंडित की मौजूदगी में भिन्न तरीके से होता है. अब आप ही बताइए कि हम कुड़मी को कैसे कुर्मी कहा जा सकता है!”
कुड़मी समाज के पर्वों को बताते हुए दीपक पुनअरिआर कहते हैं कि “कुड़मी समाज 13 देवताओं का अनुयायी है, जो 13 पर्व मनाता है. ये सभी देवता व पर्व प्रकृति से जुड़े हैं, क्योंकि हम ट्राइब्स हैं और हमारा जीवनयापन पूरी तरह से प्रकृति पर निर्भर है.”
दीपक पुनअरिआर का दावा है कि छोटा नागपुर पठार क्षेत्र के कुड़मियों की आबादी कुल 81 गुसटि (वंश) से बढ़ी है, जो उत्तर प्रदेश या बिहार के कुर्मियों से संबंधित नहीं है.
बीते माह अप्रैल में आंदोलरत कुड़मी समाज ओडिशा में चुआर विद्रोह के नेता रघुनाथ महतो (21 मार्च 1738-5 अप्रैल 1778) की फोटो के साथ रेलवे लाइन पर प्रदर्शन करते हुए.
दीपक पुनअरिआर का दावा है कि ब्रिटिश राज में हुई 1931 की जातिगत जनगणना में कुड़मी समाज अनुसूचित जनजाति (ST) की लिस्ट में शामिल था.
वह कहते हैं, “मैं 1865 से ज़िक्र करना चाहूंगा, उस समय भारत सरकार ने ‘इंडियन सक्सेसन एक्ट-1865’ ने लाया जिसमें लिखा है कि ये एक्ट हिंदू, सिख, जैन व बुद्ध के लिए लागू होगा. इसमें कुड़मी जैसी जनजातियों को ‘ मूल आदिवासी’ वर्ग (Aboriginal) में रखा गया.”
दीपक पुनअरिआर कहते हैं कि अंग्रेज़ों ने पाया कि धर्मों से बाहर भी लोग हैं जोकि ट्राइब हैं और आइसोलेटेड स्थानों पर रहते हैं, जिन्हें मूलवासी-आदिवासी कहा गया. उनके अपने गॉड, भाषा, पर्व, कल्चर और प्रथाएं होती हैं. अत: छोटानागपुर पठार क्षेत्र में कितने प्रकार के ट्राइब्स रहते हैं, ये जानने के लिए ब्रिटिश ने 1885 में एंथ्रोपोलॉजिस्ट एच एच रिज़ले को सर्वे करने के लिए कहा.
रिज़ले ने 1885 से 1891 के बीच किए गए अपने सर्वे रिपोर्ट के आधार पर एक किताब ‘द ट्राइब्स एंड कास्ट इन बेंगाल’ नाम की किताब लिखी. इसमें उन्होंने बताया कि छोटा नागपुर पठार में 13 जनजातियां रहती हैं, जो इस प्रकार हैं – मुंडा, उरांव, संथाल, हो, भूमिज, खड़िया, गोंड, घासी, माल सौरिया, पान, कुड़मी, कांद और कोरवा.
दीपक पुनअरिआर बताते हैं, “इन 13 जनजातियों को 1908 में बने छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट अर्थात ‘CNT Act’ के अधीन रखा गया, ताकि आदिवासी आबादी के भूमि अधिकारों की रक्षा हो सके.”
इसके बाद 2 मई 1913 को तत्कालीन ब्रिटिश राज की भारत सरकार अपने गज़ट में एक नोटिफिकेशन निकालती है कि मुंडा, उरांव, संथाल, हो, भूमिज, खड़िया, गोंड, घासी, माल सौरिया, पान, कुड़मी, कांद और कोरवा जनजातियों के उत्तराधिकार और विरासत मामले में उनके अपने प्रथागत नियम (Customary Law) हैं; अत: सभी 13 जनजातियों को ट्राइब्स होने के कारण 1865 इंडियन सक्सेशन एक्ट से मुक्त किया जाता है.
ब्रिटिश हुकूमत के दौरान 1913 में भारत का गजट.
दीपक पुनअरिआर कहते हैं कि सभी 13 जनजातियों को लैंड लॉ से लाभ मिल रहा है. यानी, हमारी ज़मीन हम ही खरीद सकते हैं, वह भी उसी ज़िले का होने पर. इसका मतलब यह नहीं कि भूमिज की ज़मीन कुड़मी और कुड़मी की जमीन संथाल खरीद लें.
पुनअरिआर के अनुसार, 1931 में भारत की पहली व अंतिम जातीय जनगणना हुई. उस समय छोटा नागपुर में आदिवासी कुड़मियों की जनसंख्या छह लाख पाई गई, जिसे झारखंड, बिहार, बंगाल, ओडिशा व छत्तीसगढ़ में बांट दिया गया. ऐसे में उनका अपना होमलैंड अलग-अलग राज्य व भाषा में बंट गया, और उनकी भाषा ‘कुड़माली’ से कुड़मी समाज को दूर कर दिए गया.
“1931 की जातीय जनगणना के तहत हमें ट्राइब्स में रखा गया, जबकि इसके 10 साल बाद 1941 में हम कुड़मियों के साथ सबसे दुर्भाग्य कदम उठा; उस जनगणना में हमारी कुड़माली भाषा को हटा दिया गया. उसके बाद 1950 में अनुसूचित जनजाति की नई लिस्ट बन जाती है. इसमें 11 को एसटी में रखा जाता है, जबकि घासी समाज को अनुसूचित जाति (SC) और हमारे कुड़मी समाज को ओबीसी वर्ग में कर दिया गया. ऐसा क्यों हुआ, इसका जवाब आज तक की किसी भी सरकार के पास नहीं है”, उन्होंने अपनी बात में जोड़ा.
झारखंड के चांडिल प्रखंड में महाजुटान रैली के दौरान जुटे कुड़मी समाज के लोग.
दीपक पुनअरिआर बताते हैं, “हम 70 साल से संघर्ष कर रहे हैं कि कुड़मियों को हमारी मूल जनजातियों में वापस शामिल किया जाए. इसके साथ ही हमारी भाषा कुड़माली को भी आठवीं अनुसूची में जगह दी जाए. चूंकि, हम कुड़मी हिंदू नहीं हैं, अत: प्रकृति पूजक होने के नाते हमारे धर्म सरना को हिंदू, इस्लाम, सिख, जैन, बौद्ध, इसाई की तर्ज़ पर अलग ‘सरना धर्म कोड’ दिया जाए.”
आदिवासी कुड़मी समाज के अध्यक्ष शशांक शेखर महतो कहते हैं, “हमारा समाज कृषि पर निर्भर है, इसलिए हम साल में केवल तभी आंदोलन कर पाते हैं जब फ़सल खेत से घर चली जाती है.”
शशांक शेखर महतो के अनुसार, 20 सितंबर से 25 सितंबर 2022 तक कुड़मी समाज ने रेल रोको आंदोलन किया. पश्चिम बंगाल में हुए रेल रोको आंदोलन के दौरान महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ जाने वाली सेकड़ों ट्रेन रद्द हुई.
बीते वर्ष 12 दिसंबर 2022 को झारखंड, ओडिशा व पश्चिम बंगाल के कुड़मियों ने कुड़मी समाज को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग को लेकर संसद का घेराव किया.
वहीं, बीते महीने आंदोलन के कारण 5 अप्रैल से 9 अप्रैल तक रेल-रोड जाम के बाद एनएच-49 थम गया था. इससे रेलवे को 1700 करोड़ के नुक़सान का अनुमान जताया गया. इस दौरान 435 ट्रेन रद्द करने के कारण सवा चार लाख यात्रियों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा.
ये रेल गाड़ियां महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ के विभिन्न स्टेशनों तक जाने वाली थीं, जिनके या तो रूट बदले गए या फिर उन्हें रद्द किया गया. यह रेल रोको आंदोलन पश्चिम बंगाल के पुरुलिया के पास कस्तूर स्टेशन एवं खड़गपुर रेल डिवीजन के खेमाशोली स्टेशन पर रेलवे ट्रैक जाम कर किया गया, जिससे टाटा-खड़गपुर सेक्शन में ट्रेन परिचालन पूरी तरह से ठप था.
बता दें कि 22 अगस्त 2003 को जमशेदपुर की तत्कालीन भाजपा सांसद आभा महतो के नेतृत्व में झारखंड के सभी सांसदों ने तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को ज्ञापन सौंपा था. इसमें कुड़मी जाति को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने की मांग शामिल थी.
ज्ञापन में भाजपा के आठ एवं कांग्रेस के दो लोकसभा सदस्य व भाजपा के पांच राज्यसभा सदस्यों ने हस्ताक्षर भी किए थे. इन सांसदों में भाजपा के गिरिडीह के रवींद्र कुमार पांडेय, धनबाद की प्रो. रीता वर्मा, जमशेदपुर की आभा महतो, रांची के रामहटल चौधरी, लोहरदगा के प्रो. दुखा भगत, पश्चिमी सिंहभूम के लक्ष्मण गिलुआ, पलामू के ब्रजमोहन राम, गोड्डा के प्रदीप यादव एवं कांग्रेस के कोडरमा सांसद तिलकधारी प्रसाद सिंह व राजमहल के थामस हांसदा शामिल थे.
यही नहीं, इनके अलावा राज्यसभा सदस्यों में परमेश्वर कुमार अग्रवाल, अजय मारू, अभयकांत प्रसाद, एसएस अहलूवालिया एवं देवदास आप्टे ने भी ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे.
कमाल की बात यह है कि जब भी जो राजनीतिक दल विपक्ष में रहा, वह कुड़मी आंदोलन का समर्थन करता रहा है.
अनुप महतो कहते हैं कि हम मानो वोट बैंक मात्र हैं, सत्ता में आने के बाद कोई भी दल हमें सहयोग नहीं करता; न राज्य में न ही केंद्र में.
मालूम हो कि मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास, पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा तक कुड़मी आंदोलन को समर्थन दे चुके हैं.
अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री रहते हुए 23 नवंबर 2004 को कुड़मियों की मांग को अपनी कैबिनेट से पारित कर केंद्र सरकार को भेजा भी था. लेकिन, आज झारखंड में स्थिति यह है कि झामुमो के लिए ना तो इस आंदोलन को समर्थन करते बन रहा है, और ना ही वह विरोध कर पा रहे हैं.
पूर्व सांसद व आदिवासी समाज के नेता सलखान मुर्मू कुड़मी समाज के दावों को खारिज करते हैं.
वह कहते हैं, “हम कुड़मी समाज को अनुसूचित जनजाति में शामिल किए जाने की मांग का शुरू से विरोध करते आए हैं. वे कभी एसटी वर्ग में नहीं थे. हां, हम आदिवासी चाहते हैं कि हमें सरना कोड मिले. इसके लिए हमने केंद्र की भाजपा सरकार से कहा है कि ‘2023 में सरना धर्म कोड दो, 2024 में आदिवासी वोट लो’.”
सलखान आगे कहते हैं, “झारखंड मुक्ति मोर्चा के स्वर्गीय मंत्री जगन्नाथ महतो ने केंद्र सरकार से पूछा है कि बिना किसी पत्र या गजट के कुर्मी को 1931में एसटी के सूची से क्यों बाहर किया गया है? यदि कुर्मी एसटी नहीं हैं तो उनकी जमीन सीएनटी में कैसे है?”
“अत: मेरा मानना है कि सीएनटी कानून की धारा 46 (ब) के तहत एससी और ओबीसी के जमीन की रक्षा के लिए भी सीएनटी में प्रावधान है, जिसको 2010 में तत्कालीन झारखंड सरकार के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा और उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन एवं सुदेश महतो ने तोड़ने का काम किया था. इसके ख़िलाफ़ झारखंड हाई कोर्ट में 4 दिसंबर 2010 को मुकदमा दायर करके मैंने इसे बचाया था.”
“झारखंड हाई कोर्ट ने 25 जनवरी 2012 को हमारे पक्ष में फैसला सुनाया था. इसमें कहा गया कि SC और OBC के ज़मीन का हस्तांतरण डीसी के अनुमति से ज़िले के भीतर ही संभव है. कोर्ट ने कहा कि इस मामले में उल्लंघन अविलंब बंद हो,” यह कहते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की.