सुंदरबन आज उन इलाकों में शामिल है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित है। हर साल आनेवाली बाढ़, चक्रवाती तूफान, समुद्र के बढ़ते जलस्तर सुंदरबन के सामने चुनौतियां बढ़ाती चली जा रही हैं।
कमरे में खामोश बैठी उत्तरा मंडल की आर्थिक स्थिति आज भी बहुत ज्यादा नहीं बदली। लगभग बीस साल पहले उनके पति खेत में काम कर रहे थे और बाघ ने उनपर हमला किया था। उस हमले में वे इतने जख्मी हो गए कि बेहतर ईलाज के लिए बिना कलकत्ता ले गए, उनके बचने की कोई संभावना नहीं थी। परिवार की आर्थिक स्थिति और बैकुंठपुर से कोलकाता पहुंचने के साधन के अभाव में वे पति को नहीं बचा सकीं।
“पहले बाघ काफी आते थे इधर। बाघ पानी में तैरकर इस तरफ आ जाते थे। उस रात बारिश बहुत हुई थी। सर्दी की रात थी। मेरे पति को लगा कि कहीं तटबंध टूट न जाए। खेतों में नमकीन पानी (स्लाइन वॉटर) घुस जाने से धान की फसल खराब हो जाती। इसीलिए वे रात में ही तटबंध की मरम्मत के लिए तीन अन्य लोगों के साथ निकल गए। वही जानवर ने उनपर हमला किया था,” यह बताते हुए उत्तरा की आंखें भर आती हैं।
वैसे तो सुंदरबन की पहचान दुनिया के सबसे बड़े मैंग्रोव फॉरेस्ट के रूप में की जाती है। 9,630 किलोमीटर में फैला, भारत और बांग्लादेश के बीच बंटा यह जंगल न सिर्फ जैव विविधता से भरपूर है बल्कि ये जंगल यहां रहनेवाले 45 लाख लोगों की आबादी के जीवन के लिए भी बेहद ज़रूरी है। ये आबादी दक्षिण एशिया की सबसे गरीब और संवेदनशील आबादी में से एक है। यहां के लाखों लोग अपनी आजीविका के लिए इस द्वीप से मिलनेवाले संसाधनों पर ही निर्भर हैं। लेकिन जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) के बढ़ते प्रभावों के साथ सुंदरबन की स्थिति भी विकट होती जा रही है।
अब सुंदरबन की चर्चा दुनिया के सबसे बड़े मैंग्रोव फॉरेस्ट के रूप में कम और हर साल इस इलाके में आनेवाले प्राकृतिक संकटों के लिए अधिक होती है। सुंदरबन आज उन इलाकों में शामिल है जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित है। हर साल आनेवाली बाढ़, चक्रवाती तूफान, समुद्र का बढ़ता जलस्तर, इत्यादि सुंदरबन के सामने चुनौतियां बढ़ाते चले जा रहे है। कई द्वीपों पर मिट्टी कटने (सॉइल इरोज़न) की समस्या भी गंभीर होती जा रही है।
जलवायु परिवर्तन: एक वास्तविकता
सुंदरबन दुनिया के उन इलाकों में शामिल है जहां लगभग हर साल चक्रवाती तूफान आते हैं। बीते वर्षों में इन तूफानों के कारण यहां की जैव-विविधता और जन जीवन पर उसका असर स्पष्ट दिखता है। भारतीय मौसम विभाग ने सुंदरबन को साइक्लोन कैपिटल ऑफ इंडिया का तमगा दे रखा है। बंगाल की खाड़ी में आनेवाले ट्रॉपिकल साइक्लोन से सबसे अधिक सुंदरबन का इलाका ही प्रभावित होता है। सिर्फ 2021 में ही सुंदरबन ने दो भीषण चक्रवाती तूफानों- ‘यास’ और ‘जवाद’ को झेला।
वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक ओडिशा और सुंदरबन साल 1877-2016 के दौरान सबसे अधिक चक्रवाती तूफानों से प्रभावित हुए हैं। हर साल आनेवाले चक्रवाती तूफानों ने सुंदरबन को विनाश के एक कुचक्र में डाल दिया है। जानकार बताते हैं कि समुद्र के बढ़ते जलस्तर और बढ़ते तापमान के कारण इन तूफानों के और अधिक तीव्र होने की संभावना है।
“पिछले डेढ़ साल में मैं अपने घर की तीन बार मरम्मत करवा चुका हूं। सामान का नुकसान जो होता है, वह अलग। आप सोच सकते हैं कि जब रोजगार के साधन तंग हों और आपका आसरा भी न रहे तो इंसान पर क्या बीतती होगी,” अरूणा हलदर कहते हैं, “अब तो ऐसा भय बैठ गया है कि ज्वार-भाटा (हाई टाइड – लो टाइड) के दिन भी घर में जरूरी समान का बक्सा रिलीफ कैंप में जाने को तैयार रहता है।”
दरअसल, पूर्णिमा के दिन चंद्रमा की आकर्षण शक्ति का प्रभाव पृथ्वी पर सबसे अधिक होता है। सागरीय जल पर इसका प्रभाव पड़ता है। जब लहरें ऊपर की ओर आती हैं तो उसे ज्वार कहा जाता है। और जब नीचे जाती हैं तो भाटा। ज्वार-भाटा चंद्रमा और सूर्य के पृथ्वी पर गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा खिंचाव के कारण उत्पन्न होता है।
“ज्वार-भाटा एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। लेकिन अब ज्वार-भाटे का प्रभाव अधिक है। उससे नुकसान बढ़ता जा रहा है,” ज्वार के दौरान अपने घर का सामान ऊंची जगह पर शिफ्ट करते हुए शिंटू पुरकैत बताते हैं, “बचपन में ज्वार के समय गांव के बच्चे मछलियां पकड़ते थे। कई तरह की मछलियां बाढ़ के पानी में आ जाती हैं। ज्वार अब वो उत्सव पैदा नहीं करता।”
समुद्र का खारा पानी खेती की ज़मीन, तालाबों और घरों को नुकसान पहुंचा रहा है। खारेपन के कारण मछलियों की संख्या भी कम हो रही है। ये मछलियां न सिर्फ यहां रहनेवाले लाखों लोगों की आजीविका का साधन हैं बल्कि ये उनके रोज़ के भोजन का भी एक बड़ा हिस्सा हैं। सुंदरबन के लोगों के लिए यह चौतरफा मार है – रोज़गार भी प्रभावित और स्वास्थ्य भी।
पिछले दो दशकों में समद्र का स्तर सुंदरबन में औसत रूप से 3 सेंटीमीटर प्रति वर्ष तक बढ़ा है। लोग हर साल अपनी जमीन, अपने घरों को समु्द्र में समाता देख रहे हैं। सुंदरबन में हर साल इंच दर इंच कम होती ज़मीन भी उन बहुत सारी समस्याओं में से एक है जिसका सामना यहां के लोगों को करना पड़ता है। जाधवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओशियनोग्रफिक स्टडीज़ की रिपोर्ट के अनुसार, साल 1986 से 2012 के बीच 124.418 किलोमीटर वर्ग मैनग्रोव फॉरेस्ट का इलाका सुंदरबन खो चुका है। साल 2015 में इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन द्वारा पेश की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक सुंदरबन अब तक अपना 3.71 फीसदी मैनग्रोव फॉरेस्ट और 9,990 हेक्टेयर ज़मीन खो चुका है।
लेकिन हो रही हैं कुछ कोशिशें
मैंग्रोव फॉरेस्ट बाढ़ और चक्रवाती तूफानों के जन जीवन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव से बचाने में एक सुरक्षा कवच की भूमिका निभाता है। बीते कुछ वर्षों में अगर बाघों के गांवों में घुसने और हमले की खबरों में कमी आने का कारण भी मैंग्रोव रिस्टोरेशन की पहल ही है।
चक्रवाती तूफानों से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए साइक्लोन रेजिस्टेंस घर बनाने की मांग हो रही है। कुछ मॉडल घर मुक्ति नाम की स्वयंसेवी संस्था ने रायगिढ़ी में बनाए भी हैं। इन घरों को जमीन से कम से कम फीट ऊपर (लगभग एक तल्ला) बनाया जाना है। इसकी छत गुबंदाकार होती है जिसमें सरिया का प्रयोग नहीं किया जाता। एक कमरे में करीब डेढ़ सौ लोगों के रहने की व्यवस्था की जा सकती है।
“साइक्लोन रेजिस्टेंट शेल्टर होम अच्छा है लेकिन हमें कोशिश करनी है कि ऐसे घर समूचे सुंदरबन में बने। कई बार लोग बाढ़ का पानी बढ़ते रहने के बावजूद घरों से नहीं निकलते क्योंकि उन्हें अपने घर से सामान बर्बाद और खोने का डर होता है। हो भी क्यों नहीं? घर की माली हालत ठीक करने के उद्देश्य से कोई बड़े शहर जाता है, और उससे अपना जीवन बेहतर करने के उपाय करता है तो बाढ़ और तूफान से बर्बादी कैसे झेल पाने को मानसिक रूप से तैयार होगा?,” मुक्ति संस्था के संस्थापक शंकर हलदर कहते हैं, “एक साइक्लोन रेजिस्टेंट घर की कीमत कुछ दो लाख रुपये के आसपास आती है। सरकार अगर इसे योजनाबद्ध तरीके से लागू करें तो सुंदरबन सारी दुनिया में क्लाइमेट चेंज से लड़ने का एक संदेश दे सकता है।”
2009 के आइला तूफान के बाद, सुंदरबन के किसानों द्वारा खेती में भी एक बड़ा परिवर्तन किया गया है । “पहले हम एक तरह के ही धान की खेती करते थे। आइला में जब समुद्र का नमकीन पानी हमारे खेतों में घुसा, सारी फसल बर्बाद हो गयी थी। लोगों के पास खाने तक को अनाज नहीं बचा था। तब तय किया गया कि हम सुंदरबन के पारंपरिक धान की वैरायटी वापस लाएंगें जो नमकीन पानी में भी खड़ी रहे। दूधेशार, जेपी110, तुलाई पंजी, गोबिंदभोज, कलावती की खेती शुरू की गई,” पिंटू पुरकैत ने बताया, “चूंकि सरकार इसे किसानों से नहीं खरीदती, एमएसपी का प्रावधान नहीं है, किसान इसे सिर्फ अपने घर के इस्तेमाल के लिए उगा रहे हैं। अगर सरकार इन चावल की वैरायटी को पीडीएस में शामिल कर ले तो सुंदरबन के किसानों और यहां की पर्यावरण के लिए यह एक गेम चेंजर साबित होगा।”