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लंबित मज़दूरी, सिकुड़ते अधिकारों के विरोध में मनरेगा मज़दूरों का देशव्यापी अभियान

जहां बेरोज़गारी और महंगाई पर बहस की मांग पर सदन से निलंबित हो रहे सासंद, वहां संसद से थोड़ी ही दूर हो रहे मनरेगा मजदूरों के अभियान की सुध कौन लेगा?


By Rohin Kumar, 31 Jul 2022


मनरेगा (महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम) को शुरू हुए 17 साल हो चुके हैं लेकिन अभी भी यह योजना देश के एक बड़े भू-भाग में ठीक से लागू नहीं की जा सकी है और न ही वक्त के साथ इसमें जरूरी संसोधन किए जा सके हैं। मनरेगा मजदूरों के वेतन भुगतान में देरी, कम मजदूरी दर, मनमाने ढंग से डिजिटल उपस्थिति, 10,000 करोड़ से अधिक की लंबित राशि और श्रमिकों के सिकुड़ते अधिकारों के संबंध में दिल्ली में 1 अगस्त से देशव्यापी अभियान की शुरूआत हो रही है।

नरेगा संघर्ष मोर्चा, सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन (सीटू), किसान संगठन अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस), और खेत मज़दूर संगठन अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन (एआईएडब्ल्यूयू) के तत्वाधान में ‘संयुक्त देशव्यापी अभियान’ 15 अगस्त तक चलेगा। मजदूर संगठनों के मुताबिक यह अभियान केंद्र सरकार के आज़ादी का अमृत महोत्सव से प्रेरित है, जिसमें वे केंद्र सरकार की ‘जनविरोधी’ नीतियों को उजागर करेंगे।

“मौजूदा मोदी सरकार में श्रमिकों, किसानों, खेत मज़दूरों, कारीगरों और मेहनतकश लोगों सहित सभी वर्गों की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है। सरकार ने कोरोना के दौरान लोगों के स्वास्थ्य, जीवन और आजीविका की रक्षा के उपाय करने के बजाय उल्टा लोगों पर ही अधिक बोझ डालने के अवसर के रूप में महामारी का उपयोग किया है,” देशव्यापी अभियान की जरूरत के संबंध में पूर्व लोकसभा सांसद और एआईकेएस के महासचिव हन्नान मुल्ला ने कहा, “लोगों को कोई राहत देने के बजाय, इन्होंने (मोदी सरकार) विदेशी कंपनियों सहित बड़े कॉरपोरेट्स को ‘प्रोत्साहन’ और रियायतें देने के लिए जनता के पैसे का इस्तेमाल किया है और उन्हें बड़ी संपत्ति खड़ी करने में मदद की है।”

केंद्र सरकार कर रही देरी

नरेगा कामगारों की मजदूरी में देरी के संबध में पिछले साल जारी “हेवी वेट” रिपोर्ट के मुताबिक, “वित्त वर्ष 2021-22 की पहली छमाही के 18 लाख से अधिक फंड ट्रांसफर ऑडर (एफटीओ) के विश्लेषण से पता चला कि 71% एफटीओ अनिवार्य  सात दिनों की अवधि में प्रोसेस नहीं किए जा सके। जबकि 44% एफटीओ 15 दिन की अवधि में भी पूरे नहीं किए जा सके।” रिपोर्ट  में अप्रैल 2021 से सितंबर 2021 के बीच दस राज्यों के 18 लाख एफटीओ के दूसरे स्टेज का अध्ययन करती है।

गौरतलब हो कि नरेगा पेमेंट प्रोसेस के दो स्टेज होते हैं – काम खत्म होने के बाद कामगार के डिटेल के साथ फंड ट्रांसफर ऑडर तैयार किया जाता है। एफटीओ तैयार करने की जिम्मेदारी पंचायत या ब्लॉक की होती है और यह पूरी तरह से राज्य सरकार का विषय है। दूसरा स्टेज होता है कि केंद्र सरकार इन एफटीओ को प्रोसेस करती है और सीधे कामगारों के खाते में राशि भेजी जाती है। नरेगा गाइडलाइन के मुताबिक, पहले स्टेज को पूरा करने में आठ दिन से ज्यादा का वक्त नहीं लगना चाहिए। जबकि दूसरा स्टेज पहले स्टेज के पूरा होने के सात दिनों के भीतर पूरा होना चाहिए।

नरेगा मजदूरी राशि में देरी का मामला सुप्रीम कोर्ट में भी उठाया जा चुका। वर्ष 2018 में स्वराज अभियान बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को फटकार लगाते हुए कह चुकी है कि सरकार मजदूरों को भुगतान करने में देरी न करे। ‘हेवी वेट’ रिपोर्ट के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद से राज्य सरकारों ने एफटीओ जेनेरेट करने में चुस्ती दिखाई है लेकिन केंद्र सरकार ने भुगतान में होने वाली देरी को गंभीरता से नहीं लिया है।

वरिष्ठ प्रवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका के जबाव में वित्त मंत्रालय ने भी माना कि मनरेगा के पेमेंट में देरी हुई है। “भुगतान में देरी होने पर हर्जाना देने के प्रावधान के बावजूद सिर्फ 21% भुगतान पंद्रह दिनों की अनिवार्य अवधि के दौरान किया जा सका,” वित्त मंत्रालय ने कहा, “एफटीओ जेनेरेट होने के बावजूद केरल (76%), राजस्थान (60%), पश्चिम बंगाल (53%), ओडिशा (53%) और उत्तर प्रदेश (54%) में भुगतान में देरी पाया गया है।”

यहां तक की मजदूरी में जो वृद्धि भी की गई है, वह महंगाई के अनुपात में कम ही है। वित्तीय वर्ष 2022-23 में मनरेगा के तहत जो राज्यवार प्रतिदिन मजदूरी में वृद्धि है, वह किसी राज्य में प्रतिदिन बढ़े हैं 11 रूपये तो कहीं 9 रूपये। जैसे छत्तीसगढ़ में 193 रूपये प्रतिदिन मजदूरी थी, जो बढ़ाकर इस वर्ष के लिए 204 रूपये कर दी गई। उसी तरह उत्तरप्रदेश में 204 रूपये प्रतिदिन से बढ़ाकर 213 रूपये किए गए हैं।

बीजेपी और मनरेगा: कभी हां, कभी ना

27 फरवरी 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में मनरेगा का उपहास उड़ाते हुए कहा, “मेरी राजनीतिक सूझ बूझ कहती है कि मनरेगा को कभी बंद मत करो। मैं ऐसी गलती नहीं कर सकता हूं।  क्योंकि मनरेगा आपकी (कांग्रेस की) विफलताओं का जीता जागता स्मारक है। आजादी के 60 साल के बाद आपको लोगों को गड्ढे खोदने के लिए भेजना पड़ा। ये आपकी विफलताओं का स्मारक है और मैं गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा।”  हालांकि 2016 में मनरेगा के दस साल पूरे होने पर मोदी सरकार ने इस योजना की उपलब्धियों को राष्ट्रीय गर्व और उल्लास का विषय बताया था। वर्ल्ड बैंक जो हमेशा से मनरेगा को गरीबी खत्म करने के नज़रिये से हमेशा एक रुकावट मानता रहा, उसने साल 2014 में मनरेगा को ग्रामीण विकास का एक सशक्त उदाहरण बताया था।

जब देश कोरोना महामारी से जूझ रहा था और प्रवासी मजदूर अपने गांवों की तरफ लौट रहे थे, तब मनरेगा की जरूरत सबसे ज्यादा महसूस की गई। कोविड-19 राहत पैकेज के तहत मोदी सरकार ने मनरेगा के लिए अतिरिक्त 40,000 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। तब उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने भी मनरेगा के तहत अतिरिक्त 50 लाख नौकरियों के सृजन का आदेश दिया था। तब सीएम योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि चूंकि कोविड लॉकडाउन के कारण प्रवासी मज़दूर वापस अपने राज्य लौट रहे थे इसलिए बड़ी संख्या में मनरेगा नौकरियों की ज़रूरत पड़ेगी।

केंद्र सरकार के मनरेगा का पहले मज़ाक  उड़ाने और लॉकडाउन के दौरान उसका महत्व समझ आने पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी तंज कसा था, “जिस मनरेगा का कुछ लोग मजाक उड़ाते थे, उसने कोरोना और लॉकडाउन के दौरान करोड़ों लोगों की मदद की। इस योजना ने के तहत करोना और बाढ़ प्रभावित इलाकों में करोड़ों गरीब परिवारों को मदद मिली।  इस योजना ने उनको सहायता प्रदान करने में सरकार के बचाव में अहम भूमिका निभाई। केंद्र सरकार ने मनरेगा के लिए आवंटित बजट में लगातार कटौती की जिसके कारण लोगों को काम में और मजदूरों के भुगतान में काफी दिक्कतें हैं।”

जहां एक तरफ मानसून सत्र के दौरान बेरोजगारी और महंगाई पर बहस की मांग कर रहे सांसदों को निलंबित किया गया है, वैसे में संसद से थोड़ी ही दूर पर हो रहे श्रमिकों के अभियान को सरकार कितनी गंभीरता से लेगी यह गौरतलब होगा।