सरकार के निर्देशानुसार अगले कुछ महीनों में हरिग्राम की जमीन नए हवाई अड्डे के लिए अधिग्रहित की जाएगी। इसमें खेतीहर जमीनें भी शामिल हैं, जिसमें पिछले नब्बे वर्षों से जैविक किसान बुद्धा पारदी का परिवार देसी तुरई उगाता रहा है।
खेत में पौधों की क्यारी व्यवस्थित करते हुए बुद्धा पारदी।
मुंबई शहर से कुछ किलोमीटर दूर हरिग्राम गांव के ठाकुरबाड़ी में रहने वाले बुद्धा पारदी (35) एक जैविक किसान हैं। कईं साल पहले वह अपने परिवार के साथ हरिग्राम की पहाड़ियों पर आ बसे थे। उन्होंने तभी देसी श्रिरोली (तुरई या तोरी का स्थानीय नाम) की खेती शुरू की। “पहाड़ की तलहटी में हमने श्रिरोली की खेती शुरू की थी,” वह कहते हैं, “हालांकि धीरे-धीरे गांव की ऊंची जातियों ने खेती छोड़ दी, लेकिन हम ठाकुर आदिवासी खेती करते रहे।”
गांव के लोगों से बातचीत करने पर महसूस होता है कि बुद्धा अपने क्षेत्र के काफी लोकप्रिय और जानकार किसान हैं। वह हमेशा खेत में कुछ नया करने की कोशिश करते हैं। पारदी मुख्य रूप से जैविक खेती को बढ़ावा देते हैं और कृषि में रासायनिक उपयोग का प्रसार भी करते हैं।
जिन पहाड़ियों के आसपास बुद्धा तुरई की खेती करते हैं, मानसून में उन्हीं पहाड़ियों से एक प्राकृतिक झरने का उद्मगम होता है। इस खूबसूरत नज़ारे का लुत्फ़ उठाने के लिए यहां आसपास के गांवों से भी पर्यटक भी आते हैं।
बुद्धा बताते हैं कि यह झरना उनकी खेती के लिए सिंचाई का साधन बन जाता है। वहीं, पर्यटक उनके देसी जैविक तुरई के खरीददार भी बन जाते हैं। इस तरह से वह एक ऐसे किसान के तौर पर भी उभरे हैं, जिन्होंने खुद को सीधे तौर पर उपभोक्ताओं से जोड़ा है। जबकि अक्सर जैविक किसानों की यही सबसे बड़ी चिंता होती है कि उन्हें अपने जैविक उत्पाद के लिए सही दाम और उपभोक्ता कैसे मिलें।
बुद्धा के खेत में उगा हुआ तुरई का फल।।
बुद्धा से हमने जैविक खेती और बीज भंडारण की शुरुआत के बारे में बातचीत की –
वह बताते हैं, “मेरे दादा-दादी तुरई उगाते थे। उनसे मेरे माता-पिता ने सीखा और मैंने उनसे।” उन्होंने कहा कि “हालांकि मुझसे पहले किसी ने भी इतने बड़े स्तर (एक एकड़ से थोड़ा ज्यादा) पर और बाज़ार के लिए तुरई की खेती नहीं की थी।”
बुद्धा कहते हैं कि फसलों की तरह बीज का संरक्षण नहीं किया जा सकता। “खेत में उगाए तुरई को सूखाकर वे बीज इकट्ठा करते हैं। उन बीजों को कांच की शीशी में राख मिलाकर रखते हैं। इससे बीज स्वस्थ रहते हैं और बाज़ार से बीज खरीदने का झंझट नहीं रहता। चूंकि हमने तुरई की खेती पहाड़ी मिट्टी पर की है तो जो बीज हम ख़ुद ही तैयार करते हैं। उन्हें पहाड़ की तलहटी में ही बोया जा सकता है।”
तुरई के बीज संरक्षण का काम बुद्धा का परिवार अब लगभग नब्बे वर्षों से कर रहा है। “बीज संरक्षण हमारे परिवार का अनुष्ठान बन गया है,” हंसते हुए वह कहते हैं।
इन दिनों बुद्धा तुरई के साथ-साथ करेले की भी खेती कर रहे हैं। वह बताते हैं कि जैविक खेती और बीज संरक्षण के पारंपरिक नियमों का पालन करके वह लगभग लाख रुपये की आमदानी कर पाते हैं।
बुद्धा पारदी अपने खेत में काम करते हुए।
बुद्धा अपनी खेती की पद्धति के कारण अपने क्षेत्र में काफ़ी लोकप्रिय हैं। उनकी लोकप्रियता का तकाज़ा है कि उन्होंने ग्राम पंचायत के चुनाव में भी जीत दर्ज की थी। कृषि में उनकी सफलता के बारे में जानने-समझने के लिए दूसरे गांवों के किसान भी उनके मार्गदर्शन के लिए आते हैं। बुद्धा चाहते हैं कि कृषक समुदायों के बीच भाईचारा हो और उनकी ओर से खेती के पारंपरिक मूल्यों और संस्कारों का संरक्षण किया जाए।
बुद्धा सरकार के कृषि पहलों को लेकर खुश नहीं हैं। उन्होंने ग्राम के कृषि मित्र का ज़िक्र करते हुआ कहा कि उन्होंने हमें खाद की कुछ बोतलें फसल पर छिड़काव के लिए दी थी। लेकिन उन उर्वरकों का इस्तेमाल कैसे किया जाए, कब और कितनी बार छिड़काव करना चाहिए, इस संबंध में कोई जानकारी नहीं दी। जबकि, बाद में मालूम हुआ कि उन खाद की बोतलों में बायोफर्टिलाइज़र था।
उन्होंने कहा कि कृषक समुदायों के बीच सरकार और उनके प्रतिनिधियों पर भरोसे की कमी भी है। उसके कारण के तौर पर उन्होंने एक उदाहरण दिया। “पिछली बार कृषक मित्र ने हम लोगों (किसानों) में कुछ बीज बांटे थे। मैंने बीज बो दिए, लेकिन वे बीज अंकुरण के दो सप्ताह के भीतर ही मर गए। जब हमने शिकायत की तो हमें कहा गया कि हम बीज की तस्वीरें साझा करें। मेरे साथ-साथ अन्य किसानों ने भी बीज की तस्वीरें भेजी। लेकिन, उसके बाद कोई उस पर कार्रवाई नहीं हुई।”
बुद्धा पारदी की मेहनत से उनके खेत में हरे-भरे पौधे।
वह आगे कहते हैं, “आमतौर पर कृषि मित्र से बीजों और कृषि संबंधित नई योजनाएं जानने को इच्छुक होते हैं, लेकिन कृषि मित्र के पास जानकारी नहीं होती।”
वन विभाग के अधिकारी जाधव श्री कहते हैं कि बुद्धा के काम को गहनता से समझा जाना चाहिए। लोगों को उनसे जुड़ना चाहिए, क्योंकि उनके पास जैविक खेती के अलावे भी कई पारंपरिक जानकारियां हैं जिससे किसानों को लाभ मिल सकता है।” इसके बावजूद तुरई की जैविक खेती में सरकार ने किसी भी तरह से न तो बुद्धा का उत्साहवर्धन किया है और न ही उनके काम में हस्तक्षेप किया है।
एक अधिकारी ने नाम न लिखने की शर्त पर कहा कि बुद्धा पारदी का काम सराहनीय है। उनके काम की चर्चा इस संदर्भ में भी होनी चाहिए कि उन्होंने जैविक खेती और देसी बीज संरक्षण की पद्धति को अपनाकर जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में बेहद जरूरी भूमिका निभाई है। जहां ज्यादातर किसान पैदावर और आमदनी बढ़ाने की नीयत से रसायनिक खाद के इस्तेमाल में पुनर्विचार नहीं करते, वहीं बुद्धा पारदी ने जैविक खेती से न सिर्फ़ पैदावर बढ़ाया बल्कि आमदनी भी बढ़ाई है। उन्होंने जैविक खाद का इस्तेमाल करके अपने खेतों से कार्बन उत्सर्जन न्यूनतम किया है और जमीन को उर्वरक बनाया है। यह कृषि के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान है।
बुद्धा की इन दिनों सबसे बड़ी चिंता है कि सरकार के निर्देशानुसार अगले कुछ महीनों में उनके गांव की ज़मीनें हवाई अड्डे के लिए अधिग्रहित की जाएगी। इसके लिए किसानों को मुआवजा देकर ज़मीन खाली करने को कहा जाएगा। ये चर्चाएं अभी से ही गांव में शुरू हो गई हैं।
“सरकार मुझे मुआवजा दे सकती है, लेकिन वह खेत नहीं दे सकती जिसे पसीने से सींचकर तैयार किया मैंने,” कहते हुए बुद्धा भावुक हो जाते हैं, “कई किसानों को मुआवजे की राशि अभी आकर्षित कर रही है। वे स्वेच्छा से अपनी जमीन दे देना चाह रहे हैं। पर दूरदृष्टि से कोई यह नहीं समझ पा रहा कि खेती तो नष्ट हो ही जाएगी, किसानों के बीच भाईचारा भी नष्ट हो जाएगा और इससे पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।”