समलैंगिक विवाह (Same-Sex Marriage) पर कानूनी अधिकार को लेकर उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) के फ़ैसले से एक तरफ़ जहां समलैंगिक (LGBTQ+) एक्टिविस्ट निराश दिखे, वहीं दूसरी ओर उन्हें पांच जजों की बेंच में अल्पमत से ही सही उनके अधिकारों के बारे में हुई बात से एक उम्मीद भी बंधी है।
बीते 17 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह (Same-Sex Marriage) को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया। फ़ैसला सुनाते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट विशेष विवाह अधिनियम के प्रावधानों को रद्द नहीं कर सकती है। उन्होंने कहा कि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के मामले में संसद को फ़ैसला करना चाहिए।
जब हम समलैंगिक विवाह की बात करते हैं तो ज़ेहन में एक्टिविस्ट माया शर्मा का नाम आता है। माया 16 वर्षों तक विषमलैंगिक विवाह में रहने के बाद अपने पति से अलग हुईं और फिर समलैंगिक विवाह पर याचिका दायर किया। माया की उम्र आज 70 वर्ष से भी अधिक हो गई है और मौजूदा वक़्त में वह वडोदरा में अपनी महिला पार्टनर के साथ रहती हैं।
समलैंगिक विवाह का ज़िक्र हो और मध्यप्रदेश की उन दो लेस्बियन महिलाओं उर्मिला श्रीवास्तव और लीला नामदेव का ज़िक्र ना किया जाए तो बेमानी होगी। वे दोनों मध्यप्रदेश पुलिस बल में महिला पुलिसकर्मी थीं। दोनों ने एक-दूसरे को चाहने के बाद शादी की और उनकी शादी भारत में पहला समलैंगिक विवाह था। लेकिन क्या यह सब इतना आसान था? नहीं। उन्हें पुलिस विभाग में इसके लिए कई तरह की यातनाएं झेलनी पड़ीं। यहां तक कि लगातार प्रताड़ित करने के बाद उर्मिला श्रीवास्तव और लीला नामदेव को नौकरी से बर्खास्त तक कर दिया गया।
ग़ौरतलब है कि वर्ष 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था और तभी से समलैंगिक विवाह को कानूनी अधिकार देने की मांग उठनी शुरू हो गई थी। देश के अलग-अलग न्यायालयों में लगभग 20 याचिकाएं दायर की गई थीं। हैदराबाद के रहने वाले ‘गे कपल’ सुप्रिया चक्रवर्ती और अभय डांग द्वारा दायर की गई याचिका प्रमुख याचिकाकर्ताओं में शामिल है।
अमरजीत झारखंड के जमशेदपुर में रहती हैं और सुप्रीम कोर्ट के जजों की बेंच द्वारा समलैंगिक विवाह पर दिये गए फ़ैसले को लेकर उनकी राय थोड़ी भिन्न है। वह कहती हैं, “अप्राकृतिक चीज़ों को बढ़ावा देना मेरे ख़्याल से सही नहीं है। धर्म के नज़रिए से देखें तो सेम सेक्स मैरिज को जगह नहीं दी गई है। बाइबल और कुरआन में भी लिखा गया है कि अगर कोई लडका लड़के से और लड़की लड़की से शादी करेगा तो गुनाह माना जाएगा।”
“ट्रांसजेंडर शादी कर सकती हैं, लेकिन गे और लेस्बियन शादी करें यह संभव नहीं है। किन्नरों ने कई देवताओं के साथ विवाह किए हैं। किन्नर तो इंद्र के समक्ष नर्तकी के तौर पर नाचती भी थीं। कृष्ण ने कई बार किन्नर का रूप धारण किया था। विष्णु ने भी किन्नर का रूप धारण किया था। विष्णु ने तो मोहिनी का अवतार लेकर शिव के साथ संभोग भी किया था। उस समय इसका अस्तित्व था और ग्रंथों में भी इसका ज़िक्र है, लेकिन गे और लेस्बियन का ज़िक्र किसी ग्रंथ में नहीं है।” ट्रांसजेंडर्स की शादी पर उठने वाले सवालों को लेकर ये बातें अमरजीत ने कहीं।
समलैंगिक एक्टिविस्ट हेमन्त (बाएं)।
LGBTQ+ कम्यूनिटी एक्टिविस्ट हेमन्त, समुदाय के लोगों के साथ होने वाली हिंसाओं पर बात करते हुए कहते हैं कि “लोग हमें स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं। हमें सपोर्ट करने वाले लोग बेहद कम हैं। हमारी सबसे बड़ी चुनौती है एग्ज़िस्टेंस की है – कोई समलैंगिक व्यक्ति है तो उसे रिप्रज़ेंटेशन नहीं मिलता है। हमारे अंदर की भावनाओं को कोई समझ नहीं पाता है।”
समलैंगिक विवाह पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का ज़िक्र करते हुए हेमन्त कहते हैं, “संसद को कानून बनाना होता तो कब का बन चुका होता। हमने वर्ष 2018 के बाद पांच वर्ष तक इंतज़ार किया। हम लोग ज़िंदा हैं; यह भी नेताओं को चुभता है। संसद में बैठे 70-80 वर्ष के नेताओं को पता भी नहीं है कि LGBTQ+ कम्यूनिटी आखिर है क्या!”
हालांकि, सीजेआई द्वारा कही गई बहुत सारी बातों को लेकर हेमन्त आशावान हैं। उनका कहना है कि भले ही मामले को टालकर संसद की तरफ़ मोड़ दिया गया, लेकिन सीजेआई ने कम-से-कम समलैंगिकों को होने वाली समस्याओं पर बात तो की। नेपाल का उदाहरण देते हुए हेमन्त कहते हैं कि छोटे से देश नेपाल में भी समलैंगिक को अधिकार दिये गए हैं।
समलैंगिक एक्टिविस्ट शरीफ़ डी रंगनेकर।
वहीं, समलैंगिक एक्टिविस्ट शरीफ़ डी रंगनेकर कहते हैं, “यदि हम मैरिज इक्विलिटी के नज़रिए से कोर्ट के फ़ैसले को देखेंगे तो यह बेहद निराशाजनक है। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने लगभग हर चीज़ पर कहा है कि हमारी डिग्निटी होनी चाहिए! उन्होंने एडॉप्शन, कोहैबिटेशन और नेटल फ़ैमिली वायलेंस के बारे में भी बात की – ऐसे में विवाह किसी व्यक्ति का मौलिक अधिकार कैसे नहीं हो सकता है?”
ग़ौरतलब है कि दिल्ली हाइकोर्ट ने अपने एक ऑर्डर में कहा था कि विवाह एक मौलिक अधिकार है। इस पर शरीफ़ कहते हैं कि “दिल्ली हाइकोर्ट ने अपने ऑर्डर में गे या लेस्बियन शब्द का प्रयोग नहीं किया। ऐसे में यह विरोधाभासी है और होमोफोबिया को बढ़ावा देगा।”
बता दें कि समलैंगिक विवाह पर फ़ैसला देने के दौरान जजों की बेंच ने कहा कि दो लोग यदि अपनी सहमति से एक साथ रह रहे हैं तो पुलिस को इसमें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है।
याचिकाकर्ता और 'नज़रिया' की संस्थापक रितुपर्णा बोरा।
इस मामले में याचिकाकर्ता और ‘नज़रिया’ की संस्थापक रितुपर्णा बोरा कहती हैं, “सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ब्रॉडर पर्सेपैक्टिव से देखना चाहिए। हमारी याचिका विवाह (मैरिज), राइट टू फॉर्म फेमिली, नेटल फैमिली वायलेंस आदि के ऊपर था। अगर हम जजमेंट को देखें तो मेजॉरिटी जजों ने कहा है कि आप रिलेशनशिप में रह सकते हैं, लेकिन आपको कानूनी अधिकार नहीं मिलेंगे। दूसरी बेहद ज़रूरी बात उन्होंने हमारी सुरक्षा (प्रोटेक्शन) की की। उन्होंने कहा कि कपल्स को प्यार करने का अधिकार है, एक साथी चुनने का अधिकार है।”
जजों की बेंच ने कहा कि यदि समलैंगिकों के साथ हिंसा हो रही है, चाहे वह खाप पंचायत करे या माँ-बाप करें, तो उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी स्टेट की है। इस पर रितुपर्णा कहती हैं, “स्टेट में पुलिस भी आती है और कोर्ट भी आता है। अगर कोई भी हमारे साथ हिंसा करेगा तो हम स्टेट को ज़िम्मेदार ठहराएंगे और स्टेट से बोलेंगे कि हमें प्रोटेक्ट करो, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने बोला है।”
ग़ौरतलब है कि बेंच ने बार-बार शक्ति वाहिनी जजमेंट का ज़िक्र करते हुए कहा कि “हम शक्ति वाहिनी जजमेंट का समर्थन करते हैं और किसी भी कपल को प्यार करने का अधिकार है – चाहे वो हेट्रोसेक्शुअल या क्वीर कपल हो।”
बेंच ने कहा कि अगर समलैंगिकों पर उनके आपसी संबंध के कारण कोई भी हिंसा होती है तो उन्हें प्रोटेक्शन और शेल्टर का हक़ है। रितुपर्णा कहती हैं, “वर्तमान सरकार ने तो समलैंगिक विवाह को सपोर्ट करने से इनकार ही कर दिया है, लेकिन दुखद है कि विपक्षी दल भी इस बारे में ख़ामोश हैं। सुप्रिया सुले के अलावा किसी ने भी इस बात का ज़िक्र तक नहीं किया। इससे मैं नाखुश हूं।”
रितुपर्णा बोरा की याचिका का अंश।
कानूनी अधिकार का ज़िक्र करते हुुए रितुपर्णा कहती हैं कि “अगर मैं मरने लगूंगी या अस्पताल में मेरे लिए किसी को कोई महत्वपूर्ण फैसला लेना होगा तो वह फ़ैसला कौन लेगा? क्योंकि हमें तो कोई कानूनी अधिकार ही नहीं हैं। मेरी एक्सटेंडेड फैमिली को लीगल राइट्स ही नहीं है।”
पटना की ट्रांस वूमेन सुमन मित्रा अपने संघर्षों को याद करते हुए बताती हैं कि जब बचपन में उन्हें एहसास हुआ कि पुरुष के तौर पर ग़लत शरीर में उनका जन्म हुआ है तब उन्होंने सर्जरी के ज़रिए सेक्स चेंज कराकर महिला बनने का फ़ैसला किया। उनके इस फ़ैसले में परिवार ने भी साथ नहीं दिया, साथ ही समाज से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में हिसाओं का सामना करना पड़ा।
पटना की ट्रांस वूमेन सुमन मित्रा।
सुमन का कहना है कि शायद समलैंगिक विवाह पर आने वाले दिनों में कोई सकारात्मक फैसला आ जाए, लेकिन लोगों की मानसिकता भी तो बदलनी पड़ेगी। इस बारे में समाज के तौर पर हमें सोचना शुरू करना होगा।
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने भले ही अपने फ़ैसले में संसद को समलैंगिक विवाह मामले में कानून बनाने के लिए कहा है, लेकिन अच्छी बात यह है कि बेंच ने समुदाय के साथ होने वाली हिंसाओं पर चर्चा का स्पेस तैयार किया। कोर्ट की पुलिस और स्टेट को समलैंगिकों को सुरक्षा प्रदान करने वाली बात एक प्रगतिशील विचार की ओर बड़ा क़दम है।
हमने झारखंड के दुमका, गोड्डा और जमशेदपुर के पुलिस अधीक्षक (एसपी) को फ़ोन कर यह समझने की कोशिश की कि आख़िर सुप्रीम कोर्ट के समलैंगिकों की सुरक्षा को देने वाले फ़ैसले पर उनकी क्या राय है? जब हमने तीनों ज़िलों के एसपी से पूछा कि अगर समलैंगिकों के साथ हिंसा होती है तो उन्हें सुरक्षा देने की बात पर पुलिस महकमे में कितनी संवेदनशीलता है या वे इस बारे में क्या सोचते हैं, तो सभी ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि हम फ़ैसला पढ़ेंगे तब इस पर कुछ कहेंगे।
मुंबई के अधिवक्ता और समलैंगिक विवाह मामले में रितुपर्णा बोरा की ओर से याचिकाकर्ता सूरज सनप।
मुंबई के अधिवक्ता और समलैंगिक विवाह मामले में रितुपर्णा बोरा की ओर से याचिकाकर्ता सूरज सनप कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट ने सेम सेक्स मैरिज मामले में कहा है कि संसद अगर कानून बनाना चाहे तो विचार कर सकते हैं, लेकिन संसद में यह मामला अटकने की संभावना है। इस मामले में शुरुआत से ही सुप्रीम कोर्ट से उम्मीदें जुड़ी थीं। ट्रांस की आइडेंटिटी पर 2014 का निर्णय हो या समलैंगिकता को अपराध मानने वाली आईपीसी की धारा 377 को खत्म करने का निर्णय हो, इन सब मामलों में कोर्ट ने ही फ़ैसला सुनाया था।”
इन सबके बीच अब जब संसद को समलैंगिक विवाह मामले में कानून बनाना है तो यह जानना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि वहां बैठे लोग समलैंगिकों को लेकर आख़िर कितना संवेदनशील हैं? इसका एक उपयुक्त उदाहरण राज्यसभा सांसद और बीजेपी के नेता सुशील मोदी हैं, जिन्होंने बीते दिनों ही संसद में कहा कि “अगर भारत में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दी गई तो तबाही आ जाएगी। साथ ही, उन्होंने कहा कि मैं भारत सरकार से समलैंगिक विवाह का कड़ा विरोध करने का अनुरोध करता हूं।”
वहीं, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि “मैं न्यायालय के फ़ैसले का दिल से स्वागत करता हूं। मुझे खुशी है कि मेरी दलील स्वीकार कर ली गई।”
जबकि, विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष आलोक कुमार ने कहा कि “हम इस बात से खुश हैं कि उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई अनुयाईयों समेत सभी संबंधित पक्षों को सुनने के बाद फ़ैसला सुनाया है कि दो समलैंगिकों के बीच विवाह के रूप में रिश्ता पंजीकरण योग्य नहीं है। समलैंगिकों को बच्चा गोद लेने का अधिकार ना देना भी सराहनीय कदम है।”
अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के आधार पर आने वाले दिनों में समलैंगिक विवाह मामले में संसद कोई ठोस क़ानून बना पाती है या फिर समलैंगिकों को इसके लिए अभी और इंतज़ार करना पड़ेगा। समुदाय के साथ यदि आने वाले दिनों में किसी प्रकार की हिंसा होती है तो पुलिस प्रशासन का उसको लेकर क्या रुख़ होता है, यह भी देखना अहम होगा।