झारखंड के सारंडा जंगल में बड़ी संख्या में हाथियों का वास है, लेकिन यहां से ओडिशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट होते जा रहे हैं. जंगल की कटाई के कारण भोजन-पानी की तलाश में हाथी रिहायशी इलाके में प्रवेश कर जा रहे हैं, और यहीं से शुरू हो रहा है मानव-हाथी संघर्ष.
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झारखंड राज्य में पिछले पांच वर्षों में तकरीबन 50 हाथियों की अलग-अलग वजहों से मौत हुई है. वन विभाग के मुताबिक, केवल बिजली के करंट की चपेट में आने से 20 हाथियों ने अपनी जान गंवाई. हालांकि, राज्य में आखिरी बार 2017 में हाथियों की जनगणना हुई थी; जिसके अनुसार इनकी संख्या 555 बताई गई. जबकि, वर्ष 2017 से पांच साल पहले हुई गणना में यह संख्या 688 थी. ऐसे में सवाल यह है कि साल दर साल हाथियों की संख्या घट क्यों रही है?
हाथियों की मौत पर सवाल किए जाने पर झारखंड के दलमा एलिफेंट कॉरिडोर में बतौर फील्ड डायरेक्टर कार्यरत अभिषेक कुमार कहते हैं कि झारखंड ही नहीं पूरे भारत में रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों की चपेट में आने, करंट लगने एंव तस्करों का शिकार होने से हाथियों की मौत बढ़ रही है.
वह आगे कहते हैं कि समय के साथ बहुत बदलाव हुआ है. पूर्व में जिन सड़कों को पार कर हाथियों का झुंड एक जंगल से दूसरे जंगल की तरफ विचरण करता था, उन सड़कों की एक दशक पहले चौड़ाई कम हुआ करती थी; अब वह फोर-लेन हाईवे में तब्दील हो गई हैं. उस दौर में सड़कों के किनारे घने पेड़-पौधे हुआ करते थे. वन के अलावा प्राइवेट लैंड में भी जंगल की तरह घने पेड़-पौधे हुआ करते थे, जो हाथियों को एक जंगल से दूसरे जंगल तक जाने में कनेक्ट करते थे. लेकिन अब ऐसे रास्ते जिन्हें आज एलिफेंट कॉरिडोर कहा जाता है, वह कम हो गए हैं.
अभिषेक कुमार के अनुसार, इसका मुख्य कारण जनसंख्या वृद्धि है. इसके कारण लोग रिहायशी इलाकों के नज़दीक पेड़-पौधों को काट कर उसे खेतों में तब्दील कर रहे हैं. दूसरी ओर, रिहायशी इलाकों में बढ़ोतरी हो रही है, जबकि हाईवे बनने के बाद लोग व्यापार की दृष्टि से सड़कों के किनारे विभिन्न धंधे शुरु कर रहे हैं. इस कारण एलीफेंट कॉरिडोर प्रभावित हो रहे हैं.
वह आगे कहते हैं कि एनएच-18 के निर्माण के दौरान कई स्थान पर एक जंगल से दूसरे जंगल में हाथियों के प्रवेश हेतु अंडरपासिंग बनाई गई. इस प्रक्रिया में एक दशक से अधिक समय लगा, जिसके कारण अंडरपास के निकट या तो आबादी आ गई या फिर आसपास के घने पेड़ पौधे अब सपाट ज़मीनों में तब्दील हो गए. यह हाईवे हाथियों के परंपरागत रास्ते यानी दलमा कॉरिडोर के निकट से कोलकाता-रांची मार्ग के तौर पर गुज़रता है. उन क्षेत्रों में अलग-अलग झुंडों में लगभग 70 हाथी विचरण करते हैं. लेकिन अंडरपास के पास खत्म होते पेड़-पौधे या फिर उनके रिहायशी क्षेत्र में तब्दील होने के कारण जब झुंड इधर पहुंचता है, तो कोई न कोई हाथी रास्ते से भटक जाता है.
जमशेदपुर के रहने वाले वाइल्ड लाइफ प्रेमी राहत हुसैन कहते हैं कि हाथी रास्ता भटक कर रिहायशी इलाकों या खेतों के पास पहुंच जाता है. ऐसे में ग्रामीण हाथी को भगाने की कोशिश में घातक कदम उठाते हैं. इससे हाथी भी भड़क जाते हैं और घरों की दीवारों से लेकर खेतों की फसल तक नष्ट करते दिखाई देते हैं, जिससे ग्रामीणों को अपूरणीय क्षति होती है. इस दौरान मानव-हाथी द्वंद आरंभ होता है.
इसके अलावा, कई बार राह से भटके ये हाथी हाईटेंशन इलेक्ट्रिक तारों की चपेट में आ जाते हैं, जिससे हाथियों की मौत हो जाती है.
राह से भटके हाथियों को जंगल ले जाने के लिए आप क्या करते हैं? इसके जवाब में दलमा एलिफेंट कॉरिडोर के फील्ड डायरेक्टर कार्यरत अभिषेक कुमार कहते हैं कि राह से भटके हाथियों को वापस जंगल ले जाने के लिए हमारी क्विक रिस्पांस टीम काम करती है.
मानव-हाथी द्वंद के सवाल पर अभिषेक कुमार कहते हैं कि हाथी इंसान से अधिक समझदार है, यही वजह है कि विपरीत हालातों में भी हाथी इंसान से कहीं अधिक सामंजस्य बिठा रहे हैं.
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पर्यावरण विशेषज्ञ के अनुसार हाथियों के परंपरागत रास्ते यानी एलिफेंट कॉरिडोर ऐसी जगह होने चाहिए, जहां मानवीय गतिविधियां न्यूनतम हों. अभिषेक कुमार के अनुसार, देश के 22 राज्यों में 27 हाथी कॉरिडोर अधिसूचित हैं, लेकिन झारखंड में एक भी हाथी कॉरिडोर नहीं है.
अभिषेक कुमार बताते हैं कि भारत में हाथियों के 108 कॉरिडोर चिह्नित हैं. उनमें से 14 झारखंड में हैं, जो अभी अधिसूचित नहीं हैं; लेकिन उनके जल्द ही अधिसूचित होने की संभावना है.
पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि कॉरिडोर अधिसूचित न होने के कारण हाथियों के कॉरिडोर वाले इलाकों में भी बगैर सोचे-समझे निर्माण या खनन कार्य कराए जा रहे हैं. इस दौरान अनियोजित विकास कार्य, खनन गतिविधियों, अनियमित चराई, जंगल की आग एवं माओवादियों व सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ों ने जानवरों के रिहायशी क्षेत्रों को बड़ा नुकसान पहुंचाया है.
अभिषेक कुमार का मानना है कि पेड़-पौधों के न कटने के कारण जंगल घने नहीं रहे. इससे एक तरफ उनके भोजन में कमी आ रही है, तो दूसरी तरफ क्लाइमेट चेंज के कारण जंगल की हरियाली प्रभावित हो रही है. इस कारण हाथियों को पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा है. कभी-कभी भोजन की तलाश में भी हाथी एलिफेंट कॉरिडोर से भटक जाते हैं.
आज हाथियों को बांस और घास की छतरी के पतले होने के कारण भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है. झारखंड में सारंडा जंगलों से ओडिशा में सुंदरगढ़ तक के हाथी कॉरिडोर खनन के कारण नष्ट होते जा रहे हैं.
अभिषेक कुमार सिर्फ सड़क मार्ग के विस्तार से चिंतित नहीं हैं. रेलवे लाइन के विस्तार के कारण भी हाथी-मानव द्वंद है. वह कहते हैं कि हाथी जब एक जंगल से दूसरे जंगल जाने के लिए बाहर निकलते हैं तो स्वाभाविक तौर पर उनका गुस्सा भड़क उठता है, क्योंकि उनके खाने के साधन जंगल के अलावा बाहर भी कम होते जा रहे हैं. जबकि स्थानीय लोग भी हाथी को देख कर उसके साथ छेड़छाड़ पर उतर आते हैं.
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झारखंड की तरह उसके पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ व उड़ीसा भी हाथियों की मौत का दंश झेल रहे हैं. पड़ोसी राज्यों से लगी झारखंड की सीमा पर घने जंगल मौजूद हैं. उनमें से एक सारंडा जंगल है, जहां हाथियों का आगमन होता रहता है.
केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले एक दशक में 784 हाथियों की मौत केवल ओडिशा में हुई. यदि बात सिर्फ पिछले तीन साल की हो तो इस राज्य में 245 हाथियों की मौत विभिन्न कारणों से हो चुकी है. आंकड़े के मुताबिक हर साल ओडिशा राज्य में औसतन 80 हाथियों की मौत हो रही है.
वहीं, छत्तीसगढ़ में 254 से ज़्यादा हाथी विचरण कर रहे हैं. 19 झुंडों में विचरण कर रहे हाथियों में 121 हाथी बिलासपुर सर्किल, 110 हाथी सरगुजा व 23 हाथी रायपुर सर्किल से हैं. जबकि छत्तीसगढ़ में पिछले पांच साल के आंकड़ों पर नज़र डाली जाए तो 70 हाथियों को जान गंवानी पड़ी है यानी, छत्तीसगढ़ में प्रतिवर्ष लगभग चौदह हाथियों की मौत होती है.
हाथियों व इंसानों की मौत के बीच फसल-संपत्ति के नुकसान से सरकार को प्रतिवर्ष करोड़ों की चपत लग रही है. इसके कारण छत्तीसगढ़ में पिछले पांच वर्षों के दौरान 75 करोड़ का भार सरकार पर आया है, जबकि इस संघर्ष और हाथियों के उत्पात से पर्यावरण को हुए नुकसान अलग हैं.
छत्तीसगढ़ वाइल्डलाइफ बोर्ड की सदस्य मीतु गुप्ता हाथियों की मौत पर कहती हैं कि “हाथियों का रहवास बुरी तरह से प्रभावित हुआ है. जंगल की कटाई से लेकर खनन परियोजनाओं तक ने हाथियों के आवागमन के पारंपरिक रास्तों को भी प्रभावित किया है. हाथी यहाँ से वहाँ भटक रहे हैं और मारे जा रहे हैं.”
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छत्तीसगढ़ में भाजपा विधायक अजय चंद्राकर ने अपने लिखित प्रश्न में पूछा था कि वर्ष 2020-21, 2021-22 और 2022-23 में कितने हाथियों की मौत किन-किन कारणों से हुई है? इनमें करंट लगने से मृत्यु होने वाली संख्या कितनी है?
उक्त सवाल के जवाब में वन मंत्री मोहम्मद अकबर ने अपने लिखित जवाब में बताया कि वर्ष 2020-21, 2021-22 और 2022-23 के दौरान 55 हाथियों की मौत अलग-अलग कारणों से हुई है. इनमें से 14 हाथियों की मौत करंट से हुई है, जबकि 6 हाथियों की मौत शिकारियों द्वारा लगाए गए बिजली करंट से हुई है.
चंद्राकर के द्वारा पूछा गया एक प्रश्न यह भी था कि उन वर्षों में हाथी-मानव द्वंद्व में कितनी जान माल की हानि हुई? इसके जचाब में वन मंत्री ने कहा कि उक्त अवधि में द्वंद्व से जान माल की हानि के 58,581 प्रकरण दर्ज किए गए, जिनमें कुल 53.43 करोड़ रुपये के मुआवज़े का भुगतान सरकार के द्वारा किया गया है.
वन मंत्री के अनुसार, छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार हाथी मानव द्वंद्व की रोकथाम के लिए राज्य में योजना हाथी रहवास क्षेत्र का विकास एवं केंद्रीय योजना प्रोजेक्ट एलीफैंट और कैम्पा मद से लेमरू हाथी परियोजना संचालित है.
2017 में की गई हाथियों की जनगणना के अनुसार, ओडिशा में 1,976 हाथी हैं. जबकि ओड़िशा में आए दिन हो रही हाथियों की मौत पर भाजपा विधायक ललितेंदु बिद्याधर महापात्रा के एक प्रश्न का उत्तर देते हुए ओड़िशा के वन प्रदीप किमार ने स्वीकार किया कि पिछले 10 सालों के दौरान ओडिशा में हाथियों के हमलों में 925 लोग मारे गए हैं. मंत्री के अनुसार उन हमलों के कारण ओड़िशा में 212 लोग शारीरिक रूप से विकलांग हो गए हैं.
हाथियों के हमले में मानव हताहतों की संख्या वर्ष दर वर्ष बढ़ रही है. दरअसल 2012 से वर्ष 2022 के दौरान हूईं 784 हाथियों की मौत हूई. इन मौतों में से 39 हाथियों के मौत की जांच ओडिशा सरकार ने करवाई. जिसमें 50 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की गई. लेकिन इन मामलों में अब तक एक भी आरोपी को दोषी नहीं ठहराया गया है.
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वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के द्वारा पेश की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और दक्षिण पश्चिम बंगाल से 21 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हाथियों के आवास के तौर पर चिन्हित है. जानकारों का मानना है कि मानव-हाथी द्वंद के कारण देशभर में जो जानें जाती हैं, उनमें से 45 फीसद इसी इलाके से हैं.
वर्ष 2017 में राष्ट्रीय स्तर पर हाथियों की जनगणना किए जाने के बाद देश भर के 23 राज्यों से जारी फाइनल रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में हाथियों की संख्या 27,312 बताई गई है. लेकिन मौजूदा हालात में इन हाथियों के साथ-साथ इंसानों की जान दिन प्रतिदिन जोखिम का शिकार हो रही है. जिस तेज़ी से देश के विभिन्न राज्यों में हाथियों की संख्या घट रही है, उसी तेज़ी से हाथियों के द्वारा इंसानों पर हमलों की संख्या भी बढ़ रही है. इन हमलों से होने वाली क्षति से सरकार पर खर्च का भार बढ़ रहा है. जिससे निपटने के लिए ‘प्रोजेक्ट एलीफैंट’ नाम से चल रही योजना ने बीते अप्रैल में तीस साल पूरे कर लिए, लेकिन देश भर में न हाथियों से होने वाली क्षति रुकी, न तो उनकी मौत रुकी और न ही इंसानों की दर्दनाक मृत्यु.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, झारखंड बनने के बाद से अब तक हाथियों के हमलों से 1681 लोगों की मौत हो गई, जबकि घायलों की संख्या 3078 दर्ज की गई. इस दौरान लोगों की मृत्यु, घायल और अन्य क्षति के लिए सरकार ने 92 करोड़ रुपये बतौर मुआवज़ा भुगतान किए.
वहीं, राज्य में 2017 से अभी तक हाथियों के हमले में 462 लोगों की मौत हुई.
जबकि, झारखंड के पड़ोसी राज्य ओडिसा में बीते 10 वर्षों के दौरान हाथियों के हमलों में 925 लोगों की जान गई. बात फरवरी के दूसरे-तीसरे हफ्ते की है, जब झारखंड में मात्र 12 दिनों के अंदर हाथियों के हमले में 16 लोगों की जान चली गई. वन विभाग के अनुसार ये घटना झुंड से एक हाथी के बिछड़ने के बाद घटी.
उस दौरान गुस्साए हाथियों ने झारखंड के पांच ज़िलों – हजारीबाग, रामगढ़, लोहरदगा, चतरा और रांची में तबाही मचा दी. हाथियों ने जहां एक तरफ फसलें रौंदी और दर्जनों दीवारें गिराईं, तो वहीं कई जगहों पर पेड़ों को उखाड़ फेंका. हाथियों ने उस दौरान रास्ते में आए कम से कम 20 लोगों पर हमला कर दिया, जिससे 16 लोगों ने अपनी जान गंवाई. उस दौरान हालात ऐसे हो गए कि हाथियों के खौफ से रांची के एसडीओ को इटकी प्रखंड और आसपास के इलाकों में धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी.
वहीं, पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में पिछले तीन वर्षों में हाथियों के हमलों में कुल 220 लोगों की जान गई. छत्तीसगढ़ में हाथियों के हमलों से गई 220 लोगों की जान को लेकर मीतु गुप्ता चिंतित हैं. वह कहती हैं कि “हाथियों का पारंपरिक रहवास, उनका कॉरिडोर प्रभावित हुआ है तो भोजन-पानी की तलाश में वे आबादी की ओर आ रहे हैं. कल तक जो हाथी कभी-कभार आबादी के इलाक़े में आते थे, वे लगातार आने लगे जिससे संघर्ष बढ़ गया है.
वह आगे कहती हैं, “जंगल के साथ-साथ सह अस्तित्व का भाव भी कम हुआ है. इस कारण भी हाथियों के साथ दुश्मनों की तरह का व्यवहार शुरु हुआ, उन पर हमले हुए और उन्हें खदेड़ा व प्रताड़ित किया गया. पहले से ही अपने घर से बेदख़ल हाथियों का व्यवहार और बदला, उनमें और आक्रमकता आई जिसके परिणाम हम आज देख रहे हैं.”