महिला आरक्षण विधेयक देश की दोनों सदनों में बहुमत से पास हुआ, लेकिन उसकी नींव रखने वाली प्रमिला दंडवते (Pramila Dandavate) का किसी ने जिक्र तक नहीं किया।
महिलाओं को सदन में 33 फीसद आरक्षण देने वाला महिला आरक्षण बिल नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023 आखिरकार 27 वर्षों बाद 19 सितंबर, 2023 को देश की दोनों सदनों में अभूतपूर्व समर्थन से पास हुआ। लेकिन, महिला आरक्षण बिल से जुड़े बीते लगभग तीन दशकों की यात्रा की शुरुआत कैसे हुई थी; इसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है।
वर्ष 1996 में 543 सीटों की लोकसभा में मात्र 40 महिलाएं थीं। उन दिनों राजनीति में महिलाओं की सक्रिय राजनीति में भागीदारी और लैंगिक हिंसा पर बहस का दौर शुरू हो चुका था। ऐसे समय में समाजवादी एवं मुंबई से जनता दल की लोकसभा सदस्य प्रमिला दंडवते (Pramila Dandavate) ने देश की संसद और राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने संबंधी बिल का प्रस्ताव सदन में रखा।
इस दौरान प्रमिला दंडवते का बिल ड्राफ्ट करने में गीता मुखर्जी (सीपीआई नेत्री), मृणाल गोरे (समाजवादी सांसद), सुशीला गोपालन (सीपीआई नेत्री) और डॉ. रंजना कुमारी (फिलहाल सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक) ने साथ दिया।
बीते दिनों ही वर्ष 2023 में जो महिला आरक्षण बिल पास किया गया है, उसका स्वरुप लगभग वही है जो वर्ष 1996 में था। सिर्फ एक बदलाव है; वह ये कि बिल के अनुच्छेद 334 के मुताबिक बिल परिसीमन के बाद ही लागू किया जा सकेगा – जिसके परिसीमन के लिए जनगणना करने की जरूरत होगी।
कोंकन महाराष्ट्र के मालवन तालुका में 27 अगस्त 1928 को जन्मीं प्रमिला दंडवते का शुरुआती राजनीतिक परिक्षण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में हुआ। हालांकि कुछ ही वर्षों में उन्हें यह एहसास हो गया कि आरएसएस उनकी जगह नहीं है। 1978 में दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “मेरी सोच पूरी तरह से गरीब मजलूमों को न्याय दिलाने की हो चली थी। मैं आरएसएस की राजनीति से खुद को जोड़े रखने में असमर्थ पा रही थी।”
आरएसएस से निकलने के बाद वह राष्ट्रीय सेवा दल से जुड़ी। उन दिनों राष्ट्रीय सेवा दल आरएसएस का प्रतिद्वंदी था।
ज्योतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले और हामिद दलवाई जैसे समाज सुधारकों से प्रेरित प्रमिला आपातकाल में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में सक्रिय थीं। 22 अक्टूबर 1953 को प्रमिला ने मधु दंडवते जोकि एक समाजवादी नेता थे, उनसे शादी की। 1980 में पहली बार प्रमिला मुंबई सेंट्रल से लोकसभा में चुनकर पहुंची। प्रमिला और मधु ने कई पार्टियों को एक साथ लाकर दहेज निषेद्ध और सति के खिलाफ कानून पास करवाया।
अपने एक्टिविज्म के कारण कई बार जेल जा चुकी प्रमिला आपातकाल के दौरान 18 महीने तक मीसा कानून (मेंटेनेंस ऑफ इंटर्नल सुक्युरिटी ऐक्ट) के तहत यरवदा जेल में भी बंद रहीं।
इमेरजेंसी क्रॉनिक्लस: इंदिरा गांधी एंड डेमोक्रेसी टर्निंग प्वाइंट पुस्तक में ज्ञान प्रकाश ने प्रमिला की सैद्धांतिक राजनीति के प्रति प्रतिबद्धता का जिक्र करते हुआ लिखा –
दोनों प्रमिला और मधु जेल में थे उन दिनों। एक दूसरे को पत्र लिखा करते। उसमें अपने पसंद-नापसंद, परिवार, आजादी से जुड़ी बातें लिखी होती। एक किसी पत्र में प्रमिला ने मधु को लिखा, “मैं चाहे जितना भी आपसे मिलना चाहूँ, मैं अपने निजी लाभ के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं कर सकती। और अगर आप इस बात को किसी और तरह से लेंगे तो शायद मुझे अच्छा नहीं लगेगा।”
प्रमिला की सहयोगी रहीं कम्युनिस्ट नेत्री मृणाल गोरे ने प्रमिला के बारे में एक दिलचस्प किस्सा कई साल पहले टाइम्स ऑफ इंडिया से साझा किया था। किस्सा कुछ यूं कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ का उद्धोष करते हुए कहीं भाषण दे रहीं थी। प्रमिला उस सभा में इंदिरा गांधी की तरफ इशारा करते हुए नारे लगाने लगीं – “जनता राशन चाहती है, भाषण नहीं।”
प्रमिला दंडवते के बेटे उदय के अनुसार, “मां हमेशा ही अन्याय के खिलाफ लड़ती रहीं। राजीव गांधी की सरकार में जब शाह बानो विवाद हुआ तब मां ने कुछ दिनों तक बानो को अपने साथ अपने घर में रखा। उन्होंने दहेज के खिलाफ देशभर में घूम-घूमकर आंदोलन किया।”
वर्ष 1989 में पहली बार वीपी सिंह की सरकार को प्रमिला दंडवते ने पत्र लिखकर सदन और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसद आरक्षण की मांग की। हालांकि, प्रमिला का कहना था कि वह राजनीति के अपने शुरुआती दिनों से ही राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की पक्षधर रही हैं।
प्रमिला ने महिला आरक्षण बिल का प्रस्ताव सदन में पेश करने के पहले देश का भ्रमण किया। कई राज्यों में उन्होंने महिलाओं की जमीनी हकीकत समझने की कोशिश की। जब महिला आरक्षण का प्रस्ताव सदन में आया, वामपंथी दलों की मांग थी कि सरकार महिला आरक्षण बिल को फौरन पास करे। हालांकि, बहुत सारे दूसरे राजनीतिक दलों को बिल के कई प्रावधानों से असहमति थी। नतीजतन, सीपीआई नेत्री गीता मुखर्जी की अध्यक्षता में पार्लियामेंट्री कमेटी का गठन हुआ। ममता बैनर्जी, मीरा कुमार, सुमित्रा महाजन, नीतिश कुमार, शरद पवार, सुष्मा स्वराज, उमा भारती, हनान मुल्ला सहति कई दूसरे सदस्य इस कमेटी के सदस्य थे।
प्रमिला दंडवते द्वारा प्रस्तावित बिल के अनुसार, एक सीट एक बार के लिए ही रिजर्व की जा सकती थी। उनका मानना था कि उससे लोकसभा और विधानसभा की हर एक सीट पर एक बार महिला के चुने जाने का अवसर होगा। लेकिन वर्तमान बिल के अनुसार, ऐसा संभव तभी होगा तब परिसीमन के आंकड़ें आ जाएं।
गीता मुखर्जी की पार्लियामेंट्री कमेटी का सुझाव था कि एक सीट पर 15 वर्षों तक महिला आरक्षण हो। कमेटी चाहती थी कि एंग्लो-इंडियन्स को भी इस बिल का लाभ मिले।
वर्ष 1997 में 11वीं लोकसभा के दौरान बिल पर बहस शुरू तो जरूर हुई, लेकिन सत्ताधारी गठबंधन के बीच ही सहमति नहीं बन पाने के कारण बिल ठंडे बस्ते में चली गई।
यूपीए के दौर में साल 2008 और 2010 में भी महिला आरक्षण विधेयक को सदन में पेश किया गया था। इसी तरह 1996, 1998 और 1999 में भी यह विधेयक सदन में पेश किया गया था।
2008 के विधेयक का समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल (यूनाइटेड) ने कड़ा विरोध किया था। इन दलों ने विधेयक में ओबीसी और मुस्लिम महिलाओं के लिए क्षैतिज आरक्षण की मांग की थी। सदन में हंगामे को देखते हुए 2008 में सदन ने इस विधेयक को स्टैंडिंग कमेटी (कानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति) को भेज दिया।
सामाजवादी पार्टी का कहना था कि आरक्षण को 33 फीसद से 20 फीसद या उससे भी कम किया जाए, ताकि ओबीसी और मुस्लिम महिलाओं को भी शामिल किया जा सके। वर्ष 2023 में भी जब बिल पास हुआ है, ओबीसी और मुस्लिम महिलाओं के लिए आरक्षण सुनिश्चित नहीं करना ही इस बिल की सबसे बड़ी आलोचना है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने विधेयक का समर्थन किया और कहा, “मेरी नजर में एक चीज (ओबीसी कोटा नहीं होना) इस बिल को अपूर्ण बनाती है। मैं चाहता हूं कि इस बिल में ओबीसी आरक्षण को शामिल किया जाना चाहिए। यह बहुत जरूरी है कि भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से की आरक्षण तक पहुंच होनी चाहिए।”
राजद के राज्यसभा सदस्य मनोज कुमार झा ने कहा, “महिला आरक्षण बिल को सरकार चाहे तो अभी भी सेलेट कमेटी को भेज सकती है। अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो वह ओबीसी समाज के साथ अन्याय करेंगे।”
वहीं राजद नेत्री कंचना यादव ने कहा, “भारत के संविधान में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की बात की गई है। उसी सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लिए 1996 में महिला आरक्षण बिल लाया गया था। पर, अगर समाज में हाशिये पर खड़ी 26 फीसद ओबीसी महिलाओं (3743 ओबीसी जातियों) को ही इस बिल में शामिल न किया गया हो, तो उसे न्याय कैसे कहा जा सकता है।”
कलकत्ता यूनिवर्सिटी में बतौर शोधकर्ता कार्यरत सायमा अहमद भी वर्तमान महिला आरक्षण विधेयक में ओबीसी और मुस्लिम महिला आरक्षण की माँग को जायज मानती हैं। “समझने की जरूरत है कि आरक्षण किसे दिया जाता है? वह जिसका प्रतिनिधित्व कम रहा होगा। यहाँ पर बेशक महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है लेकिन जितना प्रतिनिधित्व है भी, उनमें प्रतिनिधित्व किसका है — कितनी ओबीसी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, मुस्लिम महिलाएँ देश की सदन या विधानसभाओं में पहुँच सकी हैं? संख्या बेहद सीमित है।
वह आगे कहती हैं, “उदाहरण के लिए, 17वीं लोकसभा चुनावों तक कुल 8992 सांसद चुनकर लोकसभा पहुँचे हैं। उनमें से मात्र 520 मुस्लिम सांसद रहे हैं, जिसमें एक भी मुस्लिम महिला सांसद नहीं रही हैं। इसीलिए जरूरत है कि महिला आरक्षण विधेयक में कोटा के तहत कोटा को शामिल किया जाए।”