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राजस्थान: Right To Health Bill के पास होकर भी फेल होने का डर

एक तरफ जहां स्वास्थ्य कार्यकर्ता राइट टू हेल्थ (RTH) कानून को ऐतिहासिक बताते हुए इसकी तारीफ कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इसके क्रियान्वयन को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की जा रही है।


By Rohin Kumar, 24 Apr 2023


राजस्थान में RTH बिल के विरोध में प्रदर्शनरत स्वास्थ्य कार्यकर्ता। ©Social Media

शुरूआती विरोध प्रदर्शनों के बावजूद राजस्थान सरकार डॉक्टरों को राइट टू हेल्थ (स्वास्थ्य के अधिकार) बिल के लिए मना सकने में कामयाब हो गई। साथ ही राइट टू बिल (RTH) को लागू करवाने वाला राजस्थान भारत का पहला राज्य बन गया है। यह बिल राज्य के हर एक नागरिक को स्वास्थ्य सेवाओं का कानूनी अधिकार देता है, इस लिहाज से यह कानून ऐतिहासिक है। अब कोई भी सरकारी या निजी अस्पताल किसी भी आपातकालीन स्थिति से जूझ रहे मरीज का इलाज करने से इनकार नहीं कर सकते हैं।

इस विषय में राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि अशोक गहलोत की कांग्रेस सरकार के लिए विधानसभा चुनावों से पहले विधेयक को पारित करवा लेना एक बहुत महत्वपूर्ण कदम है, “यह कानून कांग्रेस के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है, बशर्ते सरकार इसे अच्छे से लागू करवा दे। कांग्रेस इस कानून के जरिए कह सकती है कि उसने वाकई लोगों को स्वास्थ्य का अधिकार दिया है।”

स्वास्थ्य कार्यकर्ता डॉ. अभय शुक्ला ने कहा, “यह (स्वास्थ्य का अधिकार कानून) सही दिशा में उठाया गया एक अच्छा कदम है। हमें निजी क्षेत्र का शुरूआती विरोध बिल्कुल समझ नहीं आया।” डॉ. शुक्ला ने वर्ष 2019 में विधेयक का मसौदा तैयार करने में राजस्थान सरकार को जरूरी परामर्श भी दिया था।

RTH बिल में क्या हैं प्रावधान

इस कानून के अंतर्गत राजस्थान में निवास कर रहे हर नागरिक को निजी या सार्वजनिक अस्पताल में बाह्य रोगी (ओपीडी) या आंतरिक रोगी परामर्श (आईपीडी), आपातकालीन परिवहन (एंबुलेंस सेवा), आपातकालीन चिकित्सा देखभाल और उपचार का अधिकार होगा। आपातकालीन उपचार में एक्सीडेंट में घायल हुए शख्स का इलाज, पशु या सांप के काटने से घायल व्यक्ति, गर्भावस्था में प्रसूति महिला को होने वाली जटिल समस्याएँ या राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण द्वारा परिभाषित आपात स्थिति में देखभाल करना शामिल है।

यह बिल आपातकालीन स्थिति में निजी अस्पताल में इलाज कराने वाले रोगी या उनके परिजनों को इलाज के लिए एडवांस भुगतान करने की बाध्यता से मुक्त करता है। अगर मरीज निजी अस्पताल में इलाज के लिए भुगतान नहीं कर सकता तो ऐसी स्थिति में मरीज का तत्कालीन इलाज और दूसरे अस्पताल में भर्ती कराने के खर्चे का भुगतान राज्य सरकार करेगी।

बिल के अनुसार, मरीज को यह भी चुनने का अधिकार होगा कि वह दवाएं कहां से ले या कहाँ से अपना टेस्ट करवाए। यह नियम मरीजों या उनके परिजनों को निजी अस्पतालों के इन-हाउस फार्मेसियों और टेस्ट सेंटर्स से ही दवा या जांच करवाने की मजबूरी से निजात दिलाएगा।

स्वास्थ्य के अधिकार कानून में मरीजों का इलाज करना सरकारी अस्पताल के लिए अनिवार्य शर्त है। वहीं, यह प्रावधान भी है कि जिन जगहों पर सरकारी स्वास्थ सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं, वहां निजी अस्पतालों के लिए आपातकालीन उपचार प्रदान करना अनिवार्य होगा।

यह कानून, जिला स्वास्थ्य प्राधिकरणों को जिलेवार दिशानिर्देश और उपचार संबंधित प्रोटोकॉल बनाने का अधिकार देगा। शिकायतों की स्थिति में ये प्राधिकरण उसके निवारण के लिए अधिकृत होंगे। कानून का उल्लंघन करने पर अस्पताल या डॉक्टर को 10,000 रुपये का जुर्माना देना होगा। भविष्य में दुबारा से उल्लंघन करने पर यह जुर्माना 25,000 रुपये तक बढ़ जाएगा।

डॉ. शुक्ला के अनुसार, ‘राइट टू हेल्थ एक्ट’ सरकार के दायित्वों और मरीजों के अधिकारों को परिभाषित करता है। इसके साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र में अवसरों की हिमाकत करता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी ग्रामीण क्षेत्र में दुर्घटना में कोई घायल होता है और उसके इलाज के सरकारी अस्पताल में जाता है तो उसके देखभाल और प्राथमिक इलाज के लिए अस्पताल को स्वास्थ्य सुविधाओं से लैस होना पड़ेगा। इसके लिए स्वास्थ्य केंद्रों पर कर्मचारियों की नियुक्ति करनी होगी।

क्या हो सकती हैं संभावित चुनौतियां

सरकार के आश्वासन के बाद डॉक्टरों और अस्पतालों का विरोध भले ही शांत पड़ गया हो, लेकिन अभी भी कानून के प्रावधानों में अस्पष्टता उन्हें परेशान कर रही है। उनकी चिंता है कि अस्पताल की फीस भुगतान करने में असमर्थ मरीज़ों के इलाज के लिए सरकार उनके बिल का भुगतान कैसे करेगी?

राजस्थान सरकार को अपने बजट में राज्य एवं जिला स्तर पर स्वास्थ्य प्राधिकरणों की स्थापना और प्राइवेट हॉस्पिटल के बिलों के भुगतान का आर्थिक प्रावधान करना होगा, जबकि वित्त वर्ष 2023-24 में राइट टू हेल्थ के मद्देनज़र कोई बजट आवंटित नहीं किया गया है।

कॉम्युनिटी मेडिसीन पर काम कर रहे डॉ. अनिल गुप्ता राइट टू हेल्थ को सही ठहराते हैं। वह कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च का बोझ हर किसी को प्रभावित करता है और पैसे के अभाव में किसी गरीब को इलाज से वंचित किया जाना मानवीय त्रासदी से कुछ कम नहीं।

साथ ही वह अपनी बात में जोड़ते हैं कि “कानून पारित हो जाना एक बात होती है। कानून की सफलता इस पर निर्भर करेगी कि अस्पताल या डॉक्टर मरीजों को कागजी पचड़े में न उलझाने लगें। वह बेवजह की जांच या दवाइयां न लिखने लग जाएं, क्योंकि खर्च तो सरकार को देना है। अगर कहीं सरकार और अस्पताल के बीच भुगतान की अस्पष्टता रही तो इससे बड़ा मरीजों का अहित कुछ नहीं हो सकता।”

कुछ डॉक्टरों का मानना है कि सरकार अपनी प्रतिबद्धता के दायरे को कम करना चाहती है, इसीलिए निजी क्षेत्र को आगे ला रही है। जयपुर में प्राइवेट क्लिनिक चलाने वाली डॉ. नीलम अग्रवाल का कहना है कि यह डॉक्टरों के साथ अन्याय है, “सरकार इस कानून के आधार पर चुनावी जंग जीतना चाहती है।”

राजस्थान में मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी की मांग थी कि केवल 50 या अधिक बिस्तरों वाले मल्टी-स्पेशियलिटी अस्पतालों को ही इस कानून के तहत लाया जाना चाहिए। लेकिन विशेषज्ञों का मानना था कि ऐसा करने से छोटे नर्सिंग होम, अस्पतालों और क्लीनिकों का एक बड़ा हिस्सा कानून के दायरे से बाहर हो जाता; जबकि आमतौर पर कई मरीजों का इलाज वहीं से सबसे पहले शुरू होता है।