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प्रदर्शन और बोलने की आज़ादी नियंत्रित करने के लिए सर्विलांस को सही मानती है जनता

राजनीतिक आंदोलन को दबाने के लिए सीसीटीवी, ड्रोन, फेशियल रेकॉग्निशन के इस्तेमाल को जनता का समर्थन। पंजाब में निगरानी की आलोचना सबसे ज्यादा, जबकि गुजरात के लोगों का निगरानी को सबसे अधिक समर्थन हासिल।


By Rohin Kumar, 30 Apr 2023


डिजिटल युग के विस्तार के साथ निजता का प्रश्न महत्वपूर्ण होता जा रहा है। जहां एक तरफ पुट्टस्वामी बनाम भारतीय संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और केंद्र सरकार द्वारा लाया गया ‘डेटा संरक्षण बिल’ निजता के मसले पर एक सकारात्मक नजरिए पेश करता है, वहीं दूसरी ओर सरकार के द्वारा पेगासस जैसे स्पाईवेयर के कथित अवैध इस्तेमाल ओर आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 के तहत पुलिस को मिली छूट जैसे हिरासत में लिए गए और ‘संदिग्ध’ लोगों का बॉयोमेट्रिक विवरण इकट्ठा करना चिंताजनक स्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करवाता है।

कॉमन कॉज नाम की संस्था ने सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के सहयोग से ‘स्टेट ऑफ पुलिसिंग रिपोर्ट 2023: सर्विलांस एंड द क्वेश्चन ऑफ प्राइवेसी’ रिपोर्ट जारी किया। रिपोर्ट में 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के 9,779 लोगों को शामिल किया गया। साथ ही शोधकर्ताओं ने इसमें सर्विलांस (निगरानी) के क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञों और पुलिस अधिकारियों से बातचीत और निगरानी से जुड़े मीडिया रिपोर्टिंग का विश्लेषण भी शामिल किया है।

रिपोर्ट के मुताबिक, सामान्य तौर पर जनता, सरकार की ओर से की जाने वाले सर्विलांस का समर्थन करती है। जबकि पुट्टस्वामी और पेगासस जैसे गंभीर मुद्दों पर जनता के बीच समुचित जानकारी का अभाव पाया गया। सरकार के ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ को नियंत्रित करने की बात का जनता मोटे तौर पर समर्थन करती है।

रिपोर्ट ने पाया कि सीसीटीवी कैमरों तक पुलिस की पहुंच बहुत कम है (इसमें निजी हैसियत से लगाए गए कैमरे, किसी संस्था या सोसायटी की तरह से लगाए गए कैमरे शामिल है)। यानी शहर में कैमरे ज्यादा है, पर पुलिस की उन तक पहुंच नहीं। वहीं, वर्ष 2016 से 2020 के बीच हो रहे वाहन चोरी, मर्डर और संज्ञेय अपराध की दरों में बढ़ोतरी और पुलिस के पास उपलब्ध कैमरों की संख्या के बीच कोई सार्थक सांख्यकीय संबंध नहीं है।

ऐसे राज्य जहाँ सायबर अपराध की घटनाएं अधिक संख्या में दर्ज होती हैं, उन राज्यों की ढांचागत क्षमता साइबर अपराध के मामलों से निपटने के लिए नाकाफी है। देशभर में साइबर अपराध के लिए चार्जशीट और सजा की दर कुल संज्ञेय आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) और एसएलएल (स्पेशल एंड लोकल लॉ) के तहत दर्ज हुए कुल अपराधों के दर के मुकाबले कम है।

उदारहण के लिए गौर करें, असम में वर्ष 2021 के दौरान साइबर क्राइम के लिए 6,096 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया था। लेकिन इनमें से सिर्फ 16 फीसद के खिलाफ चार्टशीट दायर की जा सकी और आरोप सिद्ध केवल 2.2 फीसदी आरोपियों पर ही किया जा सका।

रिपोर्ट ने बेहद प्रमुखता से इस बात को दर्ज़ किया है कि निगरानी का मुद्दा आमजन के विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाता है। सर्विलांस गिने-चुने विशेषज्ञों का ही विषय है।

विषेशज्ञों के अनुसार, हुकूमत की ओर से करवाई जा रही लक्षित (टारगेटेड सर्विलांस) निगरानी चिंता का सबसे बड़ा कारण है । वहीं, कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि निजी कंपनियों द्वारा करवाई जा रही निगरानी भी विरोध को दबाने, चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने जैसे कुटिल उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। अधिकतर विशेषज्ञों को सार्वजनिक सुरक्षा के नजरिए से सीसीटीवी का प्रयोग किया जाना उचित है। वहीं, विशेषज्ञ इस बात को लेकर एकमत थे कि निगरानी तकनीकी का उचित ढंग से निरीक्षण किया जाए और साथ ही उसका उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जाए।

रिटायर्ड जस्टिस चेलमेश्वर ने रिपोर्ट से उभरी जानकारियों के संदर्भ में कहा कि एक कुशल विधेयक ही निर्धारित कर सकता कि नागरिकों का इकठ्ठा किया गया निजी डेटा जनता के हित में है या नहीं।

“सरकारों का हर कदम जनता के कल्याण के लिए ही होना चाहिए, और यह तब ही संभव है जब डेटा एकत्र करने और उसके नियमन के लिए एक कानून हो। कानून के माध्यम से ही यह तय होगा कि निगरानी का कार्य जनता की भलाई के लिए है या फिर राजनैतिक आकाओं की सनक पूरी करने के लिए।”

उन्होंने आगे कहा, “बहुत से मामलों में देखा गया है कि डेटा एकत्र करना समाज के हित में नहीं होता है, बल्कि सत्ताधारियों के राजनैतिक हित की पूर्ती के लिए होता है। क्या हम भारत के लोग सरकार पर जनतांत्रिक दबाव बनाने की स्थिति में हैं?”

सीसीटीवी कैमरे और निजता

सीसीटीवी कैमरों को बड़े पैमाने पर डिजिटल निगरानी के एक अहानिकारक साधन के तौर पर देखा जाता है। हालांकि, सीसीटीवी के समर्थकों का दावा है कि सीसीटीवी से अपराध की घटनाओं में कमी आती है। हालांकि आंकड़े इस बात की गवाही नहीं देते। इसके बावजूद सर्वे के दौरान शोधकर्ताओं ने पाया कि एक बड़ा तबका सीसीटीवी के इस्तेमाल को जारी रखने की वकालत करता है।

सर्वे में पाया गया कि, दो में से एक (51 फीसद) का कहना था कि उनके घर या कॉलोनी में सीसीटीवी लगा है। हालांकि, मलिन व गरीब बस्तियों की तुलना में उच्च आय वाले घरों के पास सीसीटीवी लगे होने की संभावना तीन गुना अधिक रहती है। वहीं अगर सरकार की ओर से सीसीटीवी कैमरे लगाने की बात आती है, तब वो मलिन या गरीबों की बस्तियों पर मेहरबान हो जाती है। अमीरों की तुलना में मलिन बस्तियों में सीसीटीवी लगाने की संभावना तीन गुना अधिक रहती है। जबकि, गरीब और मुफलिसी में जीवन गुज़र-बसर करने वाले लोग सीसीटीवी कैमरों का कम समर्थन करते हैं; चाहे वो किसी भी स्थान पर हो घर के अंदर, घर के बाहर या काम करने की जगह पर।

उच्च शिक्षा प्राप्त तबके का मानना था कि सीसीटीवी कैमरे अपराध में कटौती, अपराधों की जांच-पड़ताल और जन सुरक्षा को मजबूत बनाने में मदद करते हैं। साथ ही इस वर्ग को सीसीटीवी के माध्यम से गैर कानूनी रूप से बड़े पैमाने पर निगरानी की संभावना भी कम दिखी।

वहीं, पांच में से दो (40 फीसद) व्यक्तियों का मानना था कि सीसीटीवी फुटेज के साथ छेड़छाड़ या हेरफेर संभव है। जबकि, 45 फीसद लोग यह मानते हैं कि पुलिस चौकियों में लगे सीसीटीवी कैमरों के माध्यम से कैदियों के मानवाधिकारों की सुरक्षा की जा सकती है। इनमें से लगभग आधे उत्तरदाताओं का यह भी मानना था कि पुलिस की ओर से की जाने वाली पूछताछ को भी सीसीटीवी कैमरे में रिकॉर्ड करना चाहिए।

पुलिस की निगरानी

रिपोर्ट में यह पाया गया कि जनता मोटे तौर पर पुलिस के प्रदर्शन से संतुष्ट है। निगरानी के लिए इस्तेमाल की जा रही अनेक तकनीकों जैसे ड्रोन, फेशियल रिकॉग्निशन इत्यादि से कोई खास दिक्कत नहीं है।

सर्वे में भाग लेने वाले आधे से अधिक लोगों का मानना था कि विचाराधीन बंदियों या संदिग्ध व्यक्तियों का बायोमेट्रिक डेटा जमा करना सही है। वहीं आदिवासी और मुस्लिम तबके से आने वाले लोग इसका विरोध करते पाए गए। करीब दो में से एक (50 फीसद) का मानना था कि सरकार, सैन्य व पुलिस बल की ओर से किए जा रहे ड्रोन का इस्तेमाल सही है। हालांकि, गरीब तबके से आने वाले उत्तरदाताओं ने सरकार के द्वारा किए जा रहे ड्रोन के इस्तेमाल को उचित नहीं माना। वहीं, दो में से एक (50 फीसद) फेशियल रिकॉग्निशन तकनीक का भी समर्थन करते पाए गए।

44 फीसद लोगों का मानना है कि पुलिस को बिना वारंट के लोगों के फोन चेक करने की आजादी नहीं होनी चाहिए। पांच में से दो लोगों का मानना था कि किसी के भी लैपटॉप या फोन को ट्रैक करने से पहले पुलिस को हमेशा सर्च वारंट हासिल करना चाहिए।

सेवानिवृत्त आइपीएस अफसर और पुलिस कार्यशैली में सुधारों के प्रवर्तक श्री प्रकाश सिंह का मानना है कि ऐतिहासिक काल से ही मानव समाज में निगरानी मौजूद थी। लेकिन टेक्नोलॉजी में तेज़ दर से होने वाले विकास ने विकसित निगरानी के उपकरणों को सरकार के हाथों में हथियार के रूप में सौंप दिया है।

निजता का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक, मोटे तौर पर जनता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के किसी भी रूप जैसे असहमति, विरोध आदि पर रोक लगाने के लिए सरकार द्वारा की गई निगरानी का समर्थन करती है। इसके अलावा, जहां एक तरफ लोग ऑनलाइन प्लेटफार्म पर अपनी राय व्यक्त करने से डरते हैं, वहीं दूसरी तरफ अवैध स्पाइवेयर जैसे पेगासस के उपयोग से कथित निगरानी की गतिविधियों का समर्थन करते हैं।

हालांकि, लोगों में पेगासस स्कैंडल के बावजूद मौजूदा निगरानी मुद्दों से संबंधित जानकारी का अभाव है। ऐसे आधे से अधिक लोग विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित करने के लिए सीसीटीवी कैमरों के इस्तेमाल का पुरजोर समर्थन करते हैं। जबकि, राजनीतिक आंदोलनों या विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए सीसीटीवी के उपयोग का समर्थन करने वालों में छोटे शहरों और कमज़ोर पृष्ठभूमि के लोगों की संख्या कम है।

रोचक है कि हर पांच में से एक व्यक्ति का मानना है कि सरकार का आम लोगों की सोशल मीडिया पोस्ट पर नजर रखना सही है। जबकि, हर तीन में से लगभग दो उत्तरदाता कानूनी कारवाई के डर से ऑनलाइन पोस्ट में अपनी राजनीतिक या सामाजिक राय व्यक्त करने से डरने की बात स्वीकारते हैं।

उच्च वर्ग को लगता है कि सरकारी निगरानी द्वारा विरोध और राजनीतिक आंदोलन को दबाने के लिए सीसीटीवी (52 फीसद), ड्रोन (30 फीसद), फेशियल रेकॉग्निशन (25 फीसद) आदि का इस्तेमाल बहुत हद तक उचित है। विरोध प्रदर्शनों के दौरान सरकारी निगरानी की आलोचना पंजाब से सबसे ज्यादा उभरी, जबकि गुजरात के लोगों ने निगरानी का सबसे अधिक समर्थन किया।

इन्टरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक अपार गुप्ता ने कहा कि डिजिटल निगरानी कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो हाल ही में शुरू हुई हो। मलिमथ और माधव मेनन कमेटी का सन्दर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रॉनिक निगरानी 2000 के दशक में शुरू हो गई थी। “सरकार इस निगरानी को सामान्य बनाने के लिए साधन और तरीके तलाश कर रही है,” अपार ने कहा।

मज़ेदार तथ्य यह भी है कि जो लोग सरकार के द्वारा निगरानी का समर्थन करते हैं, वे व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा और निजी संस्थानों द्वारा उनके दुरुपयोग को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त करते हैं। यह तब और भी साफ हो जाता है जब सरकारी दस्तावेजों जैसे आधार या पैन कार्ड की बात आती है। आम लोग इन दस्तावेजों को निजी कंपनियों के साथ साझा करने से डरते हैं।

सर्वेक्षण इस ओर इशारा करता है कि निजी कंपनियाँ आम लोगों की ऑनलाइन गतिविधियों पर नजर बनाए हुए हैं। लोगों को उनके प्रोफाइल और अतीत में की गई उनकी ऑनलाइन गतिविधियों के आधार पर उन्हें विज्ञापन दिखाए जाते हैं। इसे लोग बेहतर नहीं मानते।

टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस मुंबई में क्रिमिनोलॉजी और जस्टिस की अध्यापक प्रोफेसर रूचि सिन्हा ने कहा कि प्राइवेट टेक कॉर्पोरेट कंपनियाँ भी नागरिकों की अति-निजी इच्छाओं पर नज़र रखते हैं और फिर उससे कमाई करते हैं। इससे जनता में आक्रोश पैदा होना चाहिए। “जो डेटा एकत्र किया जाता है, वह कॉर्पोरेट कंपनियों को शक्ति प्रदान करता है। यह डेटा पूर्वाग्रहों से संलिप्त है, क्योंकि कोडिंग करने वाले प्रोग्रामर की मानव अधिकार प्रशिक्षण के कोई सबूत नहीं मिलते हैं।”