द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित Purnima Mahato का तीरंदाज़ी खिलाड़ी से Padma Shri कोच बनने तक का सफ़र
वर्ष 2013 में द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित तीरंदाज़ी कोच पूर्णिमा महतो को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किए जाने की घोषणा की गई.
30 Jan 2024 1:24 PM IST
वर्ष 1987 से बतौर ऑर्चरी (तीरंदाज़) खिलाड़ी पूर्णिमा महतो (Purnima Mahato) ने अपने 13 साल के कैरियर के दौरान विश्वपटल पर शानदार सफलता अर्जित की, जबकि साल 2000 से वह बतौर तीरंदाज़ी कोच योगदान दे रही हैं. इस दौरान उन्होंने एक के बाद एक दर्जनों खिलाड़ी तराशे, जिन्होंने तीरंदाज़ी के क्षेत्र में भारत का परचम लहराकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताएं जीतीं. बतौर भारतीय कोच उन्हें अपने खिलाड़ियों से पहले ओलंपिक पदक का इंतज़ार है. अपनी इस तमन्ना से लेकर पद्मश्री (Padma Shri Award) मिलने की घोषणा तक के सफ़र पर उन्होंने मोजो स्टोरी (Mojo Story) से बात की.
राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में लगभग दो दर्जन स्वर्ण हासिल करने वालीं पूर्णिमा महतो का नाम उन हस्तियों में से एक है जिन्हें इस साल पद्मश्री सम्मान से नवाज़ा जाएगा.
“जब गृह मंत्रालय से कॉल आई; उस समय कानों पर यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि मैं पद्मश्री सम्मान के लिए चुनी गई हूं.”
दरअसल बतौर खिलाड़ी व कोच पूर्णिमा महतो के 35 वर्षीय कैरियर में मिलीं उपलब्धियों की लंबी फ़ेहरिस्त है, जो साल दर साल उनके सफ़र में जुड़ती गईं. वह कहती हैं कि “जब भी कोई नई सफलता मिलती है तो लगता है कि यह सबसे बड़ी उपलब्धि है. इस प्रकार पहले खिलाड़ी और अब बतौर कोच सफलता का ये सिलसिला बदस्तूर जारी है.”
बतौर खिलाड़ी पूर्णिमा के कैरियर की शुरुआत
जमशेदपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर जोड़सा गांव में बचपन गुज़ारने वालीं पूर्णिमा महतो के तीन बहन व दो भाई हैं. उनके पिता टाटा मोटर्स में जॉब करने के दौरान सभी को जमशेदपुर स्थित बिरसा नगर ले आए. वहां उनका स्थानीय विवेकानंद विद्यालय में दाख़िला हुआ. “मेरी सफलता की कहानी मेरे बचपन ने लिखी; दरअसल हमारा बचपन आज के बच्चों की तरह नहीं था कि स्कूल से आए और घरों में क़ैद हो गए. मुझे याद है कि मुहल्ले के सभी बच्चे स्कूल से लौटने के बाद शाम चार बजे के बाद घर से बाहर निकल कर इडेन इंग्लिश स्कूल के मैदान में ख़ूब खेलते थे. वहां मेरे स्कूल के सीनियर बच्चे एक आर्चरी क्लब (तीरंदाज़ी क्लब) में तीरंदाज़ी का अभ्यास करते थे; जिसे देखकर मैं बहुत आकर्षित हुई. मैंने उनसे तीरंदाज़ी सीखने की इच्छा जताई जिस पर उन्होंने मेरे हाथ देखे और हामी भर दी, उस समय मेरी उम्र लगभग 11 साल थी जब मैंने बांस के धनुष से तीरंदाज़ी करना आरंभ किया. उस समय पापा देखा करते कि मैं तीर-धनुष लेकर बाहर निकलती और अंधेरा होने से पहले घर वापस आती, लेकिन वह कभी रोक-टोक नहीं करते थे; सब यही समझते कि मैं तीर-धनुष से खेलती हूं.”
ये बात साल 1986 की है जब सात से आठ महीनों के अभ्यास के बाद पूर्णिमा महतो सब-जूनियर स्तर हेतु तीरंदाज़ी में निपुण हो गईं; लेकिन किन्हीं कारणों से वह क्लब बंद हो गया.
लेकिन जमशेदपुर शहर में आयोजित हुई सब-जूनियर स्तर की एक प्रतियोगिता में पूर्णिमा महतो को कांस्य पदक (ब्रॉन्ज़ मेडल) मिला, जबकि उनको स्वर्ण पदक की उम्मीद थी. इस जीत के बाद पूर्णिमा के पिता ने हौसला बढ़ाते हुए कहा कि अगली प्रतियोगिता में तुम गोल्ड ज़रूर जीतोगी. बहरहाल उस प्रदर्शन के बाद स्टेट की टीम (झारखंड तीरंदाज़ी टीम) में उनका चयन हो गया.
वर्ष 1988 में पूर्णिमा की पहली नेशनल सब-जूनियर चैंपियनशिप थी, जिसमें उनकी टीम ने सिलवर जीता था. लेकिन, साल 1989 के दौरान फ़रीदाबाद में हुई सब-जूनियर चैंपियनशिप में पूर्णिमा महतो को छह मेडल मिले; जिनमें तीन रजत (सिलवर) व तीन स्वर्ण पदक (गोल्ड) थे. उस दौरान गोल्ड मेडल जीतने वालों को ईनाम के तौर पर सूटकेस भी दिए जाते थे. वह कहती हैं कि “तीन गोल्ड मिलने पर मुझे तीन सूटकेस मिले, उस पल को मैंने आज भी यादों में संजोकर रखा है, क्योंकि वह पल जीवन भर ऊर्जा व हौसला का स्रोत रहेगा.”
सब जूनियर से नेशनल खेलने तक का सफ़र
पूर्णिमा महतो छोटी सी उम्र में राष्ट्रीय स्तर की सब-जूनियर प्रतियोगिता का हिस्सा बनने के बाद घर से 10 किलोमीटर दूर टीआरएफ मैदान में अभ्यास करने लगीं. लेकिन वहां बस से जाना पड़ता था, इसलिए पूर्णिमा के पापा ने उन्हें एक साइकिल खरीद कर दी ताकि अभ्यास में आसानी हो सके. इसके बाद वह प्रतिदिन सुबह पांच बजे ग्राउंड पर जातीं, वहां 11 बजे तक अभ्यास करतीं और उसके बाद स्कूल जातीं. “परिश्रम के इस सिलसिले का सुखद परिणाम वर्ष 1992 में आया; जब मुझे सीनियर टीम से खेलने का मौक़ा मिला,” पूर्णिमा बताती हैं.
जमशेदपुर में हुई उस राष्ट्रीय प्रतियोगिता में पूर्णिमा महतो टॉप 12 तीरंदाज़ी खिलाड़ियों में आ गईं. इस प्रदर्शन के आधार पर उन्हें उसी साल दिसंबर में सीनियर टीम के कैम्प का हिस्सा बनने का मौक़ा मिल गया. वह कहती हैं, “उस कैंप में मुझे नये वातावरण में अभ्यास करने का का अवसर मिला, जिसकी वज़ह से मेरे प्रदर्शन में बहुत निखार आया. परिणामस्वरूप जनवरी, 1993 में मेरा चयन भारतीय टीम में हो गया.”
वर्ष 1994 पूर्णिमा के लिए कामयाबियों का साल रहा. उस साल उन्हें पुणे नेशनल गेम्स में स्वर्ण पदक मिलने के कारण उनको ‘प्लेयर ऑफ द इयर’ चुना गया. उस प्रदर्शन के बाद पूर्णिमा महतो को टाटा स्टील की तरफ से जॉब का ऑफ़र मिला. वह कहती हैं, “उस समय मेरी उम्र 18 वर्ष पूरी नहीं हुई थी, अत: टाटा स्टील ने मुझे संविदाकर्मी (कॉन्ट्रेक्ट बेसिस) के तौर पर जोड़ लिया. लेकिन जैसे ही 15 अगस्त 1994 को मैं 18 साल की हुई; वैसे ही कंपनी ने मुझे स्थायी कर्मचारी के तौर पर जोड़ लिया.”
पूर्णिमा आगे कहती हैं कि “नौकरी के लिए मुझे कोल इंडिया सेल व अन्य कंपनियों से भी ऑफर मिले थे, लेकिन मैंने टाटा स्टील को ही चुना; उसकी वज़ह यह है कि मुझे जूनियर स्तर पर खेलने के समय से ही टाटा का सहयोग मिल रहा था, अत: माता-पिता के बाद टाटा स्टील ही मेरे लिए सबकुछ है.”
नौकरी लगने के बाद पूर्णिमा महतो ने हीरो पुक (Hero Puch Bike) खरीदी ताकि जेआरडी कॉम्प्लेक्स में स्थित टाटा स्टील की तीरंदाज़ी अकैडमी में अभ्यास कर सकें. वह कहती हैं कि “वर्ष 1994 में ही टाटा ने आर्चरी ट्रेनिंग सेंटर खोला जो मेरे लिए वरदान साबित हुआ.”
पढ़ाई को लेकर वह कहती हैं, “पढ़ने में मैं बहुत तेज़ नहीं थी, जबकि मेरे बाकी भाई-बहन मेधावी छात्रों में थे. मुझे लेकर परिवार में सभी चिंतित थे; लेकिन जब मैं नेशनल खेलने लगी तब परिवार ने मेरा हौसला बढ़ाते हुए कहा कि सफलता मिलनी चाहिए, और वह मिल गई. बहरहाल मैंने उसी वर्ष हाईस्कूल किया.”
बतौर अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी पूर्णिमा महतो ने वर्ष 1993 में बैंकॉक में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय तीरंदाज़ी चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीता. जबकि, साल 1996 में चौथे फेडरेशन कप अंतरराष्ट्रीय तीरंदाज़ी चैंपियनशिप एवं पहले कॉमनवेल्थ तीरंदाज़ी चैंपियनशिप में उन्होंने सिलवर जीता. बतौर खिलाड़ी उन्हें वर्ष 1994 में पुणे में आयोजित नेशनल गेम्स में आउटस्टैंडिंग स्पोर्ट्स पर्सन (महिला), 1995 में बिहार का बेस्ट प्लेयर व चार साल 1994, 1995, 1996, 1997 में राज्य की ओर से ‘अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी’ (International Player by State) जैसे सम्मानों से नवाज़ा गया.
वह कहती हैं कि “जब मैं वर्ष 1989 में सब-जूनियर चैंपियन बनी, तब स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया गई ताकि वहां मेरा चयन हो जाए; लेकिन वहां मैं सिर्फ़ पुशअप नहीं कर सकी जिसके कारण मेरा चयन नहीं हो सका. वह पल मुझे बहुत चुभा और मैंने ठान लिया कि मैं ऐसी बनूंगी कि भविष्य में कभी स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के बुलाने पर भी उन्हें इंकार कर दूं. वह दिन तब आया जब साल 1994 में मैं नेशनल चैंपियन बनी और मुझे स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया की ओर से बुलाया गया, लेकिन मैंने उन्हें इंकार कर दिया.”
कोच के तौर पर कैरियर
पूर्णिमा महतो वर्ष 1998 तक अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में भारत का प्रतिनिधित्व करती रहीं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर वह साल 2000 तक सक्रिय रहीं. इसके बाद उन्होंने बतौर कोच अपना सफ़र आरंभ किया. इस दौरान उन्होंने तीन ओलंपिक व दो एशियन गेम्स के अलावा छह एशियन तीरंदाज़ी चैंपियनशिप एवं पांच सीनियर वर्ल्ड चैंपियनशिप में भारतीय खिलाड़ियों को प्रशिक्षण दिया. वह बताती हैं कि “उस दौरान उन्होंने लगभग साढ़े तीन दर्जन अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में बतौर भारतीय कोच टीम इंडिया का प्रतिनिधित्व किया.”
वर्ष 2013 में पूर्णिमा महतो को भारत सरकार ने बतौर कोच द्रोणाचार्य अवार्ड से सम्मानित किया. वह कहती हैं, “दर्जनों खिलाड़ियों को निखारने का मौक़ा मिला, लेकिन उनमें से दीपिका, अंकिता भगत व कोमोलिका बारी जैसी खिलाड़ियों को तराशने का अवसर पाकर मैं गौरवान्वित महसूस करती हूं.”
पूर्णिमा महतो के अनुसार, “मेरे दौर से आज के दौर में बहुत बदलाव आ चुका है. हमारे दौर में खिलाड़ियों को साल में एक से दो टूर्नामेंट ही खेलने को मिलते थे, लेकिन आज की बदली परिस्थिति में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साल भर में दर्जनों टूर्नामेंट मिलते हैं; जिसे देश भर के खिलाड़ी हाथोंहाथ लेकर नाम भी कमा रहे हैं.”
वह आगे कहती हैं, “ओलंपिक में भारतीय तीरंदाज़ी टीम को पदक न मिलने के कारण सफलता आज भी अधूरी लगती है. मेरा सपना है कि जल्द से जल्द भारत को तीरंदाज़ी में पहला ओलंपिक पदक मिले.”
Purnima Mahato का पारिवारिक जीवन
पूर्णिमा बताती हैं, “जिस दौर में मेरी शादी की बात शुरू हुई, उस समय लोग सोचते थे कि खेल-कूद करने वाली लड़की कैसे घर सम्भाल पाएगी. उसी दौर में भारत मैट्रिमोनी के माध्यम से मेरा संपर्क राजीव रंजन प्रसाद (मेरे पति) से हुआ. मैंने उनसे एक शर्त रखी कि मैं शादी होने पर मेरा ‘महतो’ उपनाम नहीं बदल सकती, इसलिए मैं महतो लड़के से ही शादी करूंगी. इस पर राजीव ने बताया कि वह महतो ही हैं; बस उनका उपनाम बदल गया है. उसके बाद मैंने कहा कि मैं जमशेदपुर नहीं छोड़ सकती, इस बात पर वह बोले कि उनका परिवार जमशेदपुर में ही रहता है. इस प्रकार वर्ष 2006 में हमारी शादी हो गई.”
पूर्णिमा महतो के पुत्र सिद्धार्थ प्रसाद 11वीं कक्षा के छात्र हैं; जो इस समय तीरंदाज़ी से भी जुड़े हुए हैं, जबकि उनकी बेटी आर्चिशा कक्षा तीसरी की छात्रा हैं. पूर्णिमा के पति राजीव रंजन इंजीनियरिंग के बाद मर्चेंट नेवी में जॉब करने लगे. वह कहती हैं, “शादी के बाद मेरा पढ़ा-लिखा ससुराल बहुत ही सपोर्टिव साबित हुआ, उन्हीं के सहयोग से मैं आगे बढ़ रही हूं. पद्मश्री मिलने की ख़बर से परिवार में खुशी का माहौल है. न कभी पद्मश्री के लिए और न ही इससे पहले द्रोणाचार्य सम्मान के लिए मैंने सोचा था, लेकिन तीरंदाज़ी ने मुझे ये सब दे दिया.”
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