असम: संथाल समुदाय की सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संरक्षण की मांग
ऐतिहासिक और संवैधानिक परिपेक्ष्य का हवाला देते हुए ऑल संथाल स्टूडेंट यूनियन ने गृहमंत्री को सौंपा चार सूत्रीय मांगों का मेमोरेंडम।
बीते दिनों असम के कोकराझार से आए ऑल संथाल स्टूडेंट यूनियन के छात्रों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया। ये छात्र काफ़ी समय से असम में प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन सरकार ने उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया; ऐसे में वे अपनी मांगों के साथ दिल्ली के जंतर मतंर पहुंचे। यूनियन की सेंट्रल कमेटी ने गृहमंत्री को अपना मेमोरेंडम (मांग-पत्र) सौंपा, जिसमें उन्होंने संथाली भाषा और समुदाय के संरक्षण संबंधी मांगें रखीं।
असम से आए छात्रों ने संथाली समुदाय के स्वदेशी (इंडिजिनस) होने के प्रमाण के रुप में इतिहासकारों के शोध को पेश किया। मसलन, प्रियम गोस्वामी की बहुचर्चित किताब, “द हिस्ट्री ऑफ़ असम” के हवाले से बताया कि ‘यंदबू ट्रीटी’ 1826 के दौर में संथाली समुदाय असम की कई जनजातियों में से एक था। डॉ. बनी कांता ककाति की किताब, “द मदर गोडेस कामख्या” में बताया गया है कि कमारुप शब्द संथाली भाषा के ‘कामरु’ से आया है।
डॉ. कांती की ही दूसरी किताब, ‘असमिया फॉर्मेशन एंड डेवलपमेंट’ हवाले से ऑल संथाल स्टूडेंट यूनियन ने बताया कि असमिया समाज को समृद्ध करने में संथाल समुदाय की बड़ी भूमिका रही है।
उक्त छात्र संगठन द्वारा गृहमंत्री को सौंपी मेमोरेंडम की कॉपी का मोजो स्टोरी ने अध्ययन किया। मेमोरेंडम के अनुसार, यूनियन की पहली मांग संथाली समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की है। फिलहाल, संथाली समुदाय असम में अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) में चिन्हित किया जाता है। ऑल संथाल स्टूडेंट यूनियन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 342 (अ) के हवाले से असम के संथाल समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहा है।
संगठन की दूसरी मांग है कि ट्रेडिशनल फॉरेस्ट ड्वेलर्स एक्ट, 2006 के अंतर्गत पारंपरिक संथाल वन निवासियों को संरक्षण प्राप्त हो। जबकि, तीसरी मांग संथाल समुदाय की पहचान चाय जनजातियों (टी ट्राइब) से अलग किए जाने और चौथी संथाली भाषा को प्रभावी तरीके से असम के सभी शिक्षण संस्थानों में लागू किए जाने की है।
ऑल संथाल स्टूडेंट यूनियन के सचिव रिमन सोरेन मीडिया से बात करते हुए • रोहिण कुमार
ऑल संथाल स्टूडेंट यूनियन के सचिव रिमन सोरेन ने मोजो स्टोरी को बताया, “वर्ष 1973 से संथाली भाषा असम के स्कूलों में कक्षा पाचवीं से 10वीं तक पढ़ाई जाती रही है। बतौर विषय संथाली भाषा बोडोलैंड टेरोटोरिअल क्षेत्र में पढ़ाया जाता है। राज्य में कई ऐसे स्कूल हैं, जहां कम से कम 40 फ़ीसद बच्चे संथाली भाषा पढ़ और लिख सकते हैं। ऐसे में संथाली भाषा का सभी शिक्षण संस्थानों में सुचारु रूप से लागू किया जाना अति आवश्यक है।”
संगठन का कहना है कि संथाली समुदाय के संरक्षण के लिए उन्हें राजनीतिक और सामाजिक सुरक्षा मिलना ज़रूरी है, “हमें लोकसभा, राज्यसभा, विधान सभा के सदस्य के साथ-साथ स्थानीय निकायों में भी सीट के लिए आरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।”
संथाली भाषा की सुरक्षा के सवाल पर संगठन का कहना है कि संथाली भाषा भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है। संथाली का अपना डायलेक्ट (बोली), शब्दकोष, व्याकरण और कई पाठ्यपुस्तकें भी हैं। संथाली पाठ्यपुस्तकें असम पाठ्यपुस्तक उत्पादन और प्रकाशन निगम द्वारा प्रकाशित की जाती रही हैं। उन्हें हाई स्कूल और प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाया जाता है। ऐसे में राज्य सरकार और केंद्र सरकार को मिलकर संथाली भाषा को बढ़ावा देना चाहिए और उसे शिक्षण संस्थानों में लागू किया जाना चाहिए।
छात्र संगठन ने अपनी मांग में जनसंख्या अनुपात और पैटर्न के अनुसार योग्य संथाली युवाओं के लिए नौकरी में आरक्षण का सुझाव भी पेश किया है, जो इस प्रकार है; असम सरकार में 20 फ़ीसद, केंद्र सरकार में 10 फ़ीसद, केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम में 20 फ़ीसद, केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र में 20 फ़ीसद और असम के निजी क्षेत्र में 30 फ़ीसद तक।
संथाल समुदाय का दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन • रोहिण कुमार
संगठन के अध्यक्ष बिमल कुमार हेमब्रोम ने मोजो स्टोरी को संथाली भूमि के संरक्षण के संदर्भ में बताया, “असम भूमि और राजस्व विनियमन 1886 के अध्याय 10 की धारा 160 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राज्य सरकार पिछड़े वर्गों के संरक्षण के लिए सुरक्षात्मक उपाय अपना सकती है। हमारी मांग है कि संथाल समुदाय के लोग जो वनों में निवास करते हैं, उनके पास रहने और जीवनयापन के लिए भूमि हो और उस भूमि पर उनका मालिकाना हक़ हो। उससे उन्हें सम्मानजनक जीवन की उम्मीद मिलेगी और साथ ही जंगलों को अतिक्रमण से बचाया जा सकेगा।”
फिलहाल, राज्य सरकार की सूचि में असम का संथाल समुदाय, पिछले वर्ग (ओबीसी) के रुप में चिन्हित किया जाता है। साथ ही, उनकी पहचान “ट्री ट्राइब” अर्थात् चाय की खेती, उत्पादन और बिक्री से जुड़े समुदाय के रूप में है। पिकल कुछ समय से चाय की खेती में कम मुनाफ़ा होने और बेरोज़गारी बढ़ने से संथाल समुदाय में निराशा बढ़ी है। समुदाय के बुज़ुर्गों के अनुसार, यह भी एक कारण है कि अब वे ट्री ट्राइब से अलग अपनी स्वतंत्र और सांस्कृतिक पहचान चाहते हैं। उनके अनुसार, “अनुसूचित जनजाति की पहचान उन्हें अपनी संस्कृति, परंपरा, रीति-रिवाज और सामाजिक व्यवहार के संरक्षण में मदद करेगी।”
छात्र संगठन के सदस्यों का मानना है कि चूंकि असम के संथाल ओबीसी श्रेणी में हैं, इसलिए उन्हें ख़ुद को वनवासी साबित करने के लिए 75 साल के दस्तावेज पेश करने होंगे। वरना सरकार ख़ुद से वनवासियों को उनके हक़ नहीं देगी। ओबीसी श्रेणी में भी संथाल समुदाय असम के कोकराझार, चिरांग, सोनितपुर, विश्वनाथ जिलों में समग्र संरक्षण का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं, क्योंकि असम के उन जिलो में संथाल वन निवासी के रुप में चिन्हित किए जाते हैं।
“अभी तक बिना सरकारी सहायता के हमने अपनी संस्कृति को संरक्षित रखा है। सरकार ने हमें ‘ट्री ट्राइब’ की श्रेणी में डालकर अनुसूचित जनजाति के लाभ से दूर रखा है।” कोकराझार निवासी और ऑल संथाल स्टूडेंट यूनियन के सदस्य सुनीराम हेमब्रोम ने मोजो स्टोरी से कहा।
फिलहाल, ऑल संथाल स्टूडेंट यूनियन की मांगों पर असम सरकार या भारत सरकार ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। हालांकि, असम सरकार के ‘डॉयरेक्टॉरेट ऑफ असम इंस्टिट्यूट ऑफ रिसर्च फॉर ट्राइबल एंड शेड्युअल कास्ट’ के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, “संस्थान संथालों की मांगों से वाकिफ़ है। वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए उनकी कुछेक मांगें जायज़ हैं; जिन पर विचार किया जा सकता है।”
वह आगे कहते हैं, “हालांकि, हमारे पास उनकी मांग की प्रति नहीं पहुंची है। हमारा संस्थान संथाल मुद्दे पर संवेदनशील है और तर्कसंगत मांगों पर सरकार को अनुशंसा भेजने में परहेज नहीं करेगा।” उन्होंने मांगों के संदर्भ में कहा कि संथाल और बोडो समुदाय लंबे समय तक नस्लीय हिंसा में शामिल रहे हैं, जो उनके सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के साथ-साथ उनके प्रति सरकार की उदासीनता का एक कारण रहा है।