जलवायु परिवर्तन: प्राकृतिक आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित ग़रीब एवं वंचित वर्ग, ‘क्लाइमेट एक्शन प्लान व आर्थिक प्रोत्साहन की ज़रूरत’
दिल्ली की बारिश ने गर्मी से फ़ौरी राहत तो ज़रूर दे दी है, लेकिन भीषण गर्मी की चपेट में आए समुदायों की स्थिति पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा है।
उत्तर प्रदेश के बलिया के रहने वाले 29 वर्षीय संतोष कुमार पिछले तीन वर्षों से वज़ीराबाद में सब्ज़ी का ठेला लगाते हैं। वह हर रोज़ मंडी से माल लेकर सुबह आठ बजे तक वज़ीराबाद बाज़ार पहुँच जाते हैं। संतोष ने मोजो स्टोरी से बातचीत के दौरान बताया कि “सुबह कुछ घंटे तक ही सब्ज़ियाँ टटका (ताज़ा) रह पाती हैं। दोपहर तक सब्ज़ियाँ सूखने लगती हैं और उनका रंग भी फ़ीका पड़ने लगता है।”
“गर्मी की वज़ह से पहले की तुलना में कम मात्रा में ही सब्ज़ियाँ मंडी से उठाते हैं; बावज़ूद उसके पूरी सब्ज़ियाँ बिक नहीं पाती हैं। तापमान की वज़ह से मंडी से सुबह की ख़रीदी हुई सब्ज़ियाँ शाम तक ताज़ा नहीं रह पाती हैं। दोपहर में खरीददार घरों से बाहर नहीं निकलते हैं। सोसाइटी के बाहर भी ठेला लगा देने पर लोग गर्मी और लू की वज़ह से अपार्टमेंट से नीचे नहीं उतरते, लिहाज़ा शाम तक सब्जियाँ सूखने लगती हैं और सूखी सब्जियाँ लोग ख़रीदते नहीं - अगर ख़रीदते भी हैं तो हमें मजबूरन कम दामों में बेचना पड़ता है; लिहाज़ा लागत के अनुसार हमारा मुनाफ़ा कम हो रहा है। कम मुनाफ़े का मतलब है हमारी आमदानी पर असर,” संतोष अपनी स्थिति बयाँ करते हैं।
बेतहाशा गर्मी के बीच सब्जियों को ताज़ा रखने में ठेले वालों का संघर्ष • रोहिण कुमार
संतोष को आने वाले दिनों में भी हालात सुधरते नहीं दिखते; वह कहते हैं, “बारिश की वज़ह से सब्ज़ियों के भंडारण का संकट पैदा होगा। किसान की फ़सल ख़राब होगी तो उसका असर हम पर पड़ेगा ही पड़ेगा।”
वहीं, इंडिया गेट पर टूरिस्ट फ़ोटोग्राफ़ी करने वाले सतीश शर्मा ने टूरिस्ट की संख्या में कमी आने से अपने रोज़ी-रोटी का संकट समझाया, “आम दिनों में हम सात सौ से हज़ार रुपये का काम कर लेते हैं, जबकि अब वह सौ से दो सौ रुपये पर जा गिरा है। भीषण गर्मी और लू के कारण टूरिस्ट इंडिया गेट आने की बजाय किसी एयर कंडीशन वाली जगह पर जाना पसंद करते हैं। रात को भी लू चल रही होती है, जिसके कारण पहले की तुलना में शाम को कम ही लोग इंडिया गेट आते हैं।”
क्या कहते हैं लू संबंधी आँकड़े?
केंद्रीय स्वास्थ मंत्रालय के अनुसार 20 जून तक, देश भर में 143 लोग लू (Heatwave) से जान गँवा बैठे हैं; उनमें से ज़्यादातर आर्थिक और कमज़ोर वर्ग से आने वाले थे। विशेषज्ञों के अनुसार, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का आँकड़ा राज्यों की ओर से भेजे गए आँकड़ों से तैयार किया गया है। ग़ौरतलब है कि उसमें लू से मौत वही मानी जाएगी जिसमें लू के मरीज़ तत्काल प्रभाव से अस्पताल आएँगे और इलाज़ के दौरान उनकी मौत हो जाएगी। अगर किसी को लू की वज़ह से बुखार चढ़ा है और तेज़ बुखार से घर पर उसकी मृत्यु हो जाए तो उस मौत को ‘लू से मौत’ की बजाय ‘बुख़ार से मौत’ में गिना जाएगा। ऐसे में स्वाभाविक है कि लू की वज़ह से हुई मौत की असल संख्या आँकड़ों से कहीं अधिक होगी।
राज्यवार आँकड़ों को उन्हीं राज्यों के अख़बारों में छप रही रिपोर्टों से आँकने पर लू के इंसानी प्रभावों की एक वीभत्स सच्चाई सामने आती है। ख़बरों की मानें तो पिछले महीने ही ख़त्म हुए लोकसभा चुनाव के दौरान ड्यूटी करते हुए लगभग 50 से ज़्यादा पोलिंग अधिकारी एवं अन्य सरकारी कर्मचारियों की मौत हो गई।
इस बाबत बीते दिनों पलकिया फ़ाउंडेशन नाम की संस्था ने सब्ज़ी विक्रेताओं, सुरक्षा कर्मियों, ऑटो चालकों, निर्माण श्रमिकों व अन्य दिहाड़ी मज़दूरों को समर्पित एक रिपोर्ट में बताया, “प्राकृतिक आपदाओं या जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का सबसे अधिक असर बाहरी और ख़ासकर विस्थापित मज़दूरों पर पड़ता है।”
लू और संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य
लू का सीधा प्रभाव संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) पर भी पड़ता है। लू दिहाड़ी कामगारों को ग़रीबी की तरफ़ ढकेल रहा है। वहीं, कृषि में उसके प्रकोप से मिट्टी की उर्वरता नष्ट हो रही है। उसके अलावा, लू मौसमी फलों एवं सब्ज़ियों की उत्पादकता को भी प्रभावित कर रहा है।
समावेशी शहर बनाने की दिशा में लू अथवा किसी भी तरह की जलवायु परिवर्तन संबंधी आपदाएँ अवरोध पैदा करती हैं। तापमान में वृद्धि जैव-विविधता के लिए बड़ा संकट पैदा कर रही है।
‘फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन’ की रिपोर्ट ‘अनजस्ट क्लाइमेट’ के अनुसार, निम्न और मध्यम आय वाले देशों में माहिलाएँ तापमान में वृद्धि के कारण प्रति दिन औसतन चार घंटे पानी एकत्र करने संबंधी कार्यों में देती हैं। पानी की कमी और जल प्रदूषण का असर भी पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर ज़्यादा होता है।
संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार की रिपोर्ट ‘राइट टू वाटर’ के अनुसार, प्रति वर्ष औसत गर्मी के दिनों में बढ़ोतरी हो रही है। साथ में लू, जल संकट की समस्या को पहले से भी अधिक विकराल रूप दे रही है। महिलाओं पर सामाजिक और सांस्कृतिक बंदिशें उन्हें घरों के भीतर जल प्रबंधन से दूर रखता है।
रिपोर्ट के अनुसार, “गर्भवती और उम्रदराज़ महिलाएँ लू और लू संबंधी समस्याओं से प्रभावित हो रही हैं; लू, जच्चा और बच्चा दोनों के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास को प्रभावित करता है। पानी की कमी के कारण महिला रोग संबंधी समस्याएँ और व्यक्तिगत स्वच्छता दूसरी बीमारियों का ख़तरा भी पैदा करती हैं।”
दिल्ली में पानी की किल्लत के बीच टैंकर आने पर स्थानीय लोगों के बीच अफ़रा-तफ़री • मुकुल सिंह
उक्त समस्या के संबंध में बात करते हुए दक्षिणी दिल्ली में रहने वाली चित्रा ने मोजो स्टोरी को बताया, “पिछले हफ़्ते मेरे मोहल्ले में चार दिन तक पानी नहीं आया, जिसकी वज़ह से हमें बहुत-सी परेशानियों का सामना करना पड़ा। पानी न आने के कारण घर के कार्यों में तो रुकावट आई ही, साथ ही बतौर महिला मुझे पीरियड के कारण भी बहुत परेशानी हुई; उस दौरान साफ़-सफ़ाई न रखने से हमें दूसरी बीमारी होने का डर भी रहता है।”
‘टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइसेंस’ की शोधकर्ता ताशिफा शकील ने लू और महिलाओं पर उसके प्रभाव के संबंध में बताया, “भारत में तक़रीबन 54 फ़ीसद महिलाएँ घरेलू कामकाज में रहती हैं। सर्दी, गर्मी या बरसात हो; वे घर में ही रहती हैं। हमने अपने शोध में पाया कि उनमें से ज़्यादातर घरों में वेंटिलेशन नहीं होते। कमरों के अंदर का तापमान बाहर के मुक़ाबले मात्र दो से पांच डिग्री ही कम होता है। घरों के अंदर कूलिंग सिस्टम (एसी, कूलर आदि) नहीं होते। रसोई की जगह बेहद छोटी और कई बार तो जिस कमरे में रहते हैं, उसी के एक कोने में होती है। ऐसे में अगर आप ग़ौर करें तो लू सामान्य तौर पर सबके लिए हानिकारक है, लेकिन महिलाओं और ख़ासकर आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय की महिलाओं के लिए जानलेवा साबित होता है।”
तपती गर्मी में दिल्ली के एक ओपन ढाबे पर ग्राहकों के आने का इंतज़ार करती महिला • महिमा बंसल
सामाजिक न्याय से जुड़ा है ‘क्लाइमेट जस्टिस’
अत्याधिक गर्मी के कारण दिल्ली के चाणक्यपुरी, गीता कॉलोनी, महरौली, पटेल नगर, छत्तरपुर एवं अन्य कई इलाक़ों में भू-जल स्तर में गिरावट दर्ज़ की गई; जिससे उन इलाक़ों में रहने वाले लोगों को जल संकट का सामना करना पड़ रहा है। जबकि, दिल्ली के कई रिहायशी इलाक़ों में नगर निगम ने पानी की बर्बादी करने वालों पर कार्रवाई तक की।
पलकिया फाउंडेशन की निदेशक महिमा बंसल ने मोजो स्टोरी से बातचीत के दौरान कहा, “जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सब पर एक जैसा नहीं है। जो समुदाय सबसे कम उपभोग करता है, वही जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को सबसे अधिक झेल रहा है। आप देखें कि पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ने में सहयोगी आधुनिक तंत्र; कार, एसी, रेफ्रीजिरेटर, अन्य माध्यमों से बिजली की खपत, हवाई यात्राएँ जैसी सुविधाओं का उपभोग अमीर या मध्य वर्ग कर रहा है - जबकि, जो वर्ग या समुदाय आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित है; उन सुविधाओं का कम से कम लाभ उठा पाते हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ प्राकृतिक आपदाओं की मार सबसे अधिक उन पर ही पड़ती है। यही कारण है कि सामाजिक न्याय और ‘क्लाइमेट जस्टिस’ का मसला एक-दूसरे से जुड़ा है।”
“बढ़ते तापमान और मौसमी घटनाओं के कारण होने वाली मौत सिर्फ़ संख्या मात्र नहीं हैं, बल्कि वे इनसानी जीवन हैं। ये वो लोग हैं जिनके पास अत्यधिक गर्मी और मौसमी परिस्थितियों से जूझने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उनके पास वर्क फ्रॉम होम (घर से काम) का विशेषाधिकार नहीं है। उन्हें धूप, लू, बारिश, तूफ़ान, बाढ़; सभी परिस्थितियों में कार्यस्थल पर जाकर ही काम करना पड़ता है। ऐसे में जब जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव उनके रोज़गार पर असर डालते हैं, तो वे अपनी और अपने परिवार की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं कर पाते। इसलिए यह वक़्त केवल जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर ध्यान देने का नहीं, बल्कि उससे होने वाले आर्थिक नुक़सान को भी दर्ज करने का है,” महिमा जोड़ती हैं।
जलवायु परिवर्तन से जुड़े विषयों पर काम करने वाले विशेषज्ञों का मानना है कि सरकारी नीतियाँ जलवायु परिवर्तन के अनुरूप बनाई जानी चाहिए। किसी भी समाज या देश के विकास के लिए की जा रही तमाम कोशिशों तभी सफल हो सकती हैं जब वे बदलते तापमान, मौसमी चक्र, प्रकृति में मानव हस्तक्षेप से उत्पन्न होने वाली आपदाओं आदि को ध्यान में रखकर बनाई जाएँ।
जामिया मिल्लिया इस्लामिया से जुड़ी शोधकर्ता तुबा सिद्दीक़ी उक्त मसले पर बात करते हुए कहती हैं, “देश की आर्थिक प्रगति के लिए ज़रूरी है कि जलवायु परिवर्तन को वरीयता दी जाए। क्षेत्रीय जलवायु कार्य-योजना बनाने की ज़रूरत है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों में सुधार करने और जोखिम प्रबंधन आँकलन में निवेश पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।”
“क्लाइमेट एक्शन प्लान में कमज़ोर वर्ग की सामाजिक सुरक्षा के लिए लक्षित हस्तक्षेप किए जाने चाहिए। बाहरी श्रमिकों के रोज़गार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, क्योंकि उनकी रोज़ी-रोटी जलवायु आपदाओं के दौरान सबसे अधिक प्रभावित होती है,” तुबा ने जोड़ा।
पलकिया फाउंडेशन ने भी अपनी रिपोर्ट में माँग की है कि भारतीय मौसम विभाग (IMD) जलवायु परिवर्तन और विभिन्न इलाकों की ज़रूरतों के अनुरूप स्थानीय पूर्वानुमान प्रणाली विकसित करे।