घरेलू कामगार महिलाएं: कम पैसा, अत्यधिक काम का बोझ और काम से निकाले जाने का डर

घरेलू कामगार महिलाएं: कम पैसा, अत्यधिक काम का बोझ और काम से निकाले जाने का डर

लोगों के घर की सफ़ाई का ध्यान रखने वाली घरेलू महिला कामगारों को ख़ुद के घर ख़र्च का सताता है डर। मामूली से पैसे के लिए पूरे दिन श्रम करने के बाद भी वह इतना धन इकट्ठा नहीं कर पातीं जिससे अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकें। ऐसी ही कुछ महिलाओं ने हमसे साझा की अपनी रोज़मर्रा की दिक़्क़तें:

“पढ़ी-लिखी तो मैं हूं नहीं कि मुझे नौकरी मिल जाएगी, इसलिए मैं झाड़ू-पोछा और बर्तन धोने का काम करती हूं। केवल एक घर में ये काम करने पर मुश्किल से 800-1200 रुपये मिलते हैं, इसलिए मैं दो घरों में काम करती हूं ताकि महीने के अंत तक कम-से-कम 2400 रुपये मिल जाएं। धूप, बारिश, ठंड कुछ भी हो; हमें काम पर जाना है, वरना मालिक सीधे मुंह बोल देते हैं कि कल से काम पर आने की ज़रूरत नहीं है। ऐसा पहली दफ़ा में नहीं बोला जाता, लेकिन किसी काम से यदि लंबी छुट्टी ली या बार-बार छुट्टी लेनी पड़ी तो काम छूटने का डर हर पल सताता है।” ये बातें बिहार के समस्तीपुर ज़िले के बंगाली टोला इलाक़े में घरेलू कामगार महिला के तौर पर काम करने वाली सोनी ने कही।

सोनी ने अपना पक्ष रखते हुए काम छूटने की चिंता प्रकट की। ऐसे में इस मसले को बेहतर तरीक़े से समझने के लिए हमने समस्तीपुर के बंगाली टोला की 67 वर्षीय सेवानिवृत्त शिक्षिका ज्योत्स्ना चटर्जी से बात की। हमने उनसे जानना चाहा कि घरेलू कामगार महिलाओं को लेकर उनकी क्या राय है? ये बातें अक्सर सामने आती हैं कि वे अत्यधिक काम के दबाव और कम पैसे में काम करती हैं और साथ ही कभी भी काम छुटने का डर उन्हें सताता है।

उस पर ज्योत्स्ना कहती हैं, “सबसे बड़ा मसला है गरीबी; तभी वे झाड़ू-पोछा और बर्तन धोने का काम करती हैं। किसी मिडिल क्लास परिवार की महिला को आप ये काम करने कहेंगे तो क्या वे करेंगी? अब सवाल आता है कि क्या घरेलू कामगार महिलाओं पर काम का अधिक दबाव रहता है; तो चाहे किसी भी व्यवसाय में आप रहें, यदि आपमें समय प्रबंधन की बेहतर क्षमता नहीं हैं तो आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। चाहे वह घरेलू कामगार महिला हो या किसी बड़ी कंपनी का सीईओ।”

“मैंने अब तक अपने घर में लगभग 15 से 20 घरेलू कामगार महिलाओं को मैनेज किया है। एक कॉमन समस्या सभी कामगार महिलाओं में थी कि वे बगैर बताए छुट्टी कर लेती थीं। इसको इस तरह से समझें कि किसी छोटी कंपनी में छोटी टीम है और टीम का एक सदस्य यदि बगैर पहले से बताए छुट्टी ले लेता है, तो अन्य लोगों पर अतिरिक्त भार पड़ेगा या नहीं? हां, उन्हें कम पैसे मिलना का एक मसला है। मैं समझती हूं कि यदि कोई संगठन उनके लिए काम करता भी है तो वह सक्रिय नहीं है, जिसके कारण उनको उनके काम के हिसाब से बेहतर पैसे देने की बात मुख्यधारा में नहीं आती।” ये बातें ज्योत्स्ना ने जोड़ीं।


काम पर जातीं घरेलू कामगार महिलाएं • प्रतीकात्मक तस्वीर

झारखंड के दुमका ज़िले के रसिकपुर इलाक़े में बतौर घरेलू कामगार महिला काम कर रहीं पार्वती (बदला हुआ नाम) बताती हैं, “हम घरेलू कामगार महिला हैं, उससे कोई दिक़्क़त नहीं है। हमें आदत है यह काम करने की। पढ़ी-लिखी नहीं हूं, शुरू से यही काम करती आई हूं इसलिए इस पेशे से कोई शिकायत नहीं है; लेकिन जिन जगहों पर काम करती हूं, वहां के लोगों से शिकायत है।”

“हमारे ऊपर काम का अत्यधिक दबाव रहता है। उदाहरण के तौर पर मान लें कि किसी घर में बतौर घरेलू कामगार महिला हमने काम शुरू किया; 1500 रुपये में झाड़ू, पोछा और बर्तन साफ़ करने के लिए बात हुई। इतना काम तो रोज़ करना ही है। लेकिन मैं जिन भी घरों में काम कर रही हूं या पहले कर चुकी हूं, वहां ऐसी समस्याएं होती हैं कि सारा काम हो जाने के बाद भी वे सोचते हैं कि इससे और क्या काम कराया जाए। वहां से काम करके लौटते वक़्त वे आवाज़ लगाते हैं; ज़रा पेड़ में पानी दे देना, आदि। काम हाथ से न चला जाए, उसके डर से हमें वह भी करना पड़ता है,” पार्वती ने जोड़ा।

घरेलू कामगार महिलाओं की स्थिति और उनकी दिक़्क़तें देश के विभिन्न क्षेत्रों में एक जैसी ही दिखीं। कानपुर की घरेलू कामगार महिला बेबी ने बताया, “हम अगर लगातार तीन-चार दिन छुट्टी कर लें तो हमें काम से निकाल दिया जाता है। फ़ोन पर ही कह दिया जाता है कि कल से काम पर आने की ज़रूरत नहीं है। कंट्रोल से राशन मिल जाता है तो भोजन का जुगाड़ हो जाता है, लेकिन परिवार चलाने में और ख़र्चे भी तो होते हैं; जिसके लिए किसी के घर पर चौका-बर्तन का काम करना ही पड़ता है। कोई भी हमें हज़ार रुपये से अधिक पैसे नहीं देना चाहता है। एक-दो दिन से अधिक अगर छुट्टी लेनी पड़ी तो बोलकर पैसे नहीं काटे जाते हैं, बल्कि पैसे काटकर हमें दे दिए जाते हैं। इस डर से घर पर कोई ज़रूरत भी होती है तो छुट्टी नहीं लेते हैं।”

बेबी से पूछे जाने पर कि क्या माहवारी के दौरान छुट्टी मांगने पर उन्हें छुट्टी मिलती है? वह बताती हैं, “ये सब बात हम नहीं करते हैं उनसे; घर में पुरुष सदस्य भी रहते हैं, वे क्या सोचेंगे! तबियत ख़राब होने पर तो छुट्टी मिलती नहीं है, आप माहवारी के दौरान छुट्टी मिलने की बात कर रहे हैं। हां, माहवारी के दौरान हम महिलाएं तबीयत ख़राब बोलकर छुट्टी ले लेती हैं।”


घरेलू महिला कामगारों और महिला मज़दूरों के साथ एक कार्यक्रम के दौरान संथाल परगना मोटिया मज़दूर कामगार यूनियन के महासचिव विजय कुमार दास •

मज़दूर एवं घरेलू महिला कामगार यूनियन का पक्ष

संथाल परगना मोटिया मज़दूर कामगार यूनियन के महासचिव विजय कुमार दास कहते हैं, “अगर घरेलू कामगार महिलाएं मेहनताना बढ़ाने की मांग करती हैं तो उनको हटाकर दूसरे को काम पर रख लिया जाता है। घरेलू कामगार महिलाएं और सशक्त हों, इसके लिए हमलोग काम कर रहे हैं। हमारी मांग है कि उनका भुगतान न्यूनतम मज़दूरी के दर से हो। अभी होता यह है कि किसी घर में घरेलू कामगार महिलाएं चौका-बर्तन का काम करती हैं तो कहीं पर 800 रुपये तो कहीं 1000 रुपये दिए जाते हैं।”

वह आगे कहते हैं, “यदि किसी घरेलू कामगार महिला ने दो घरों में काम किया तो उसका पूरा दिन उसमें ही बीत जाता है। अगर वे सुबह घर से निकलती हैं तो दोपहर के 12 से एक बजे तक घर लौटती हैं, उतना ही समय उनको शाम में भी लगता है। दो घर में काम करने पर उनकी महीने की औसत कमाई 2000-2500 रुपये की होती है, जिससे उनका जीवन-यापन बमुश्किल है। उनके बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाती है। उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं।”

“घरेलू कामगार महिलाएं आर्थिक तंगी से जूझ रही हैं। उनके साथ शोषण हो रहा है। उनमें जागरूकता की कमी है; वे अपनी बातों को सामने लाने से कतराती हैं। अगर उनके साथ कुछ अनहोनी हो गया तो काम छूट न जाए इस वजह से वे बात को सामने नहीं आने देती हैं। घरेलू कामगार महिलाओं के लिए यूनियन भी व्यापक स्तर पर इसीलिए काम नहीं कर पाता है क्योंकि वे आवाज़ उठाने से कतराती हैं। अगर उनका काम छूट गया तो उन्हें रोज़ी-रोटी कौन देगा? वहीं, एक दिहाड़ी मज़दूर को आवाज़ उठाने में दिक्कत नहीं है, आज यहां नहीं तो कल वहां काम मिल जाएगा,” विजय कुमार ने यह कहकर अपनी बात पूरी की।


घरेलू कामगार महिलाओं के साथ बैठक के दौरान घरेलू महिला कामगार यूनियन, कानपुर की महासचिव मीनू सूर (दाईं ओर चश्मा पहने बैठी बुज़ुर्ग महिला) •

घरेलू महिला कामगार यूनियन, कानपुर की महासचिव मीनू सूर बताती हैं, “कानपुर में सूती मीलें बंद होने के बाद से मज़दूरों के घर की महिलाएं भारी संख्या में घरेलू कामगार महिला बन गईं। वे पूरी तरह से दूसरे के घरों में काम करने पर ही निर्भर हैं, इसलिए दबाव में काम करने के बाद भी वे आवाज़ नहीं उठा पाती हैं। कुछ जगहों पर हर वर्ष घरेलू कामगार महिलाओं के मेहनताने में 50-100 रुपये बढ़ाए जाते हैं। एक चीज़ अभी कम हुई है; वह यह कि पहले लोग घरेलू कामगार महिलाओं को बचाखुचा खाना देते थे, लेकिन अब लोअर मिडिल क्लास या मिडिल क्लास के पास बहुत अधिक खाना बचता ही नहीं है। अब भी जिन जगहों पर घरेलू कामगार महिलाओं को बचाखुचा खाना देते हैं, उनमें कुपोषण देखने को मिलता है।”

मीनू आगे कहती हैं, “सबको लगता है कि कम से कम पैसे में घरेलू कामगार महिलाओं से काम कराया जाए। कानपुर के बाहरी इलाके जैसे; गुजनी और रामादेवी के पास सोसाइटी के जो मकान बने हैं, वहां हालत और भी बदतर हैं। वहां एक हज़ार रुपये में तीन घरों में झाडू-पोछा और बर्तन धुलवाने का काम कराया जाता है। घरेलू कामगार महिलाएं वहां बेहद दयनीय स्थिति में हैं, वे झोपड़पट्टी में रहती हैं। उन सोसाइटी के पास ही रहना उनकी मजबूरी है, क्योंकि अगर वे प्रॉपर कानपुर शहर आएंगी तो उनका सारा पैसा किराये में ही चला जाएगा। ऐसे में कामगार महिलाएं वहीं मन मारकर काम करती हैं।”

“आईएलओ की मीटिंग में हमें बुलाया जाता है और वहां हम घरेलू कामगार महिलाओं के हक़ की आवाज़ें बुलंद करते हैं। हम चाहते हैं कि घरेलू कामगार महिलाओं को एक तय वेतन मिले। एक और मसला यह है कि कई जगहों पर घरेलू कामगार महिलाओं के अंदर तालमेल नहीं है। यह भी एक बड़ी वज़ह है कि उनकी बातें खुलकर सामने नहीं आ पती हैं,” यूनियन की महासचिव ने जोड़ा।


रसोई में खाना बनाते हुए घरेलू महिला कामगार •

इन सबके बीच घरेलू कामगार महिलाओं से बातचीत में एक और गंभीर समस्या सामने आई; वह यह कि उन्हें अपने कार्यस्थल पर छूआछूत का सामना भी करना पड़ता है। गैर सरकारी संस्था ‘जागोरी’ ने घरेलू कामकाज में महिलाओं के व्यावसायिक स्वास्थ्य और कल्याण को उजागर करने के लिए एक अध्ययन किया। सर्वे में शामिल 25 फ़ीसद महिलाओं ने कहा कि वह जहां काम करती हैं, वहां उनके इस्तेमाल में आने वाले बर्तन अलग रखे जाते हैं। वहीं, 18 फ़ीसद ने कहा कि उनके लिए पानी और खाने का कोई इंतज़ाम नहीं होता है। जबकि, 13 फ़ीसद महिलाएं ऐसी थीं जिन्होंने बताया कि बीमार पड़ने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है।

आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में 42.5 लाख घरेलू कामगार हैं; जिनमें से 30 लाख महिलाएं हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार, असल में यह आंकड़ा इससे भी अधिक है; दो करोड़ से आठ करोड़ के बीच। वहीं, भारत के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 13 ने ही घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मज़दूरी की गारंटी देने वाले कानून बनाए हैं। जबकि, केन्द्र सरकार द्वारा बनाये गए कानून में यह सुनिश्चित नहीं किया है कि उनका क्रियान्वयन सभी राज्यों में समान रूप से हो। उदाहरण के लिए, असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 सभी राज्यों से कल्याण बोर्ड स्थापित करने के लिए कहता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि घरेलू कामगारों को लाभ मिले - लेकिन कुछ राज्यों ने अभी तक ऐसा नहीं किया है।

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