सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ‘जीएम’ फसलों पर राष्ट्रीय नीति बनाने की क़वायद तेज़

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ‘जीएम’ फसलों पर राष्ट्रीय नीति बनाने की क़वायद तेज़

किसान संगठन, 23 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ द्वारा दिए गये आदेश के बाद से ‘जीएम’ फसलों के लिए राष्ट्रीय नीति तैयार करने में हितधारकों के साथ व्यापक परामर्श की मांग कर रहे हैं।

देश में एक बार फिर से जीएम (जेनिटेक्ली मोडिफाइड) अनाजों की चर्चा तेज हो गई है। पिछले गुरुवार (22 अगस्त) को 18 राज्यों के किसान संगठनों और किसानों ने ‘जीएम’ फसलों के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया। किसान यूनियनों के अनुसार, “जीएम और उनके उत्पाद भारत की खाद्य और कृषि प्रणालियों में अनावश्यक और असुरक्षित हैं। भारत में किसान जैविक, ’रिजेनेरेटिव’ और समावेशी खेती चाहते हैं। ‘जीएम’ हमारी कृषि के तौर-तरीकों को कॉरपोरेट नियंत्रण में लाने का एक मौक़ा है। यह कृषि और किसानों के लिए अहितकारी है।”

चंडीगढ़ में हुए इस एक दिवसीय गोष्ठी में किसान संगठनों और विशेषज्ञों ने ‘जीएम’ फसलों पर एक संयुक्त प्रस्ताव पास किया। उस प्रस्ताव में कहा गया कि वे जीएम फसलों पर बनाई जाने वाली राष्ट्रीय नीति को जैव सुरक्षा संरक्षण नीति के तर्ज़ पर बनाना चाहते हैं; एक ऐसी नीति जो जैव सुरक्षा के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक समरसता को बढ़ावा देने वाली हो।

संगठनों ने सरकार को आगाह भी किया कि सरकार सावधानी बरते और किसानों पर जोखिमपूर्ण, ख़तरनाक और अनावश्यक तकनीक लागू करने का दबाव न बनाया जाए।


क्या है सुप्रीम कोर्ट का आदेश?

पीठ ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को सभी हितधारकों और किसान प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए सार्वजनिक परामर्श के माध्यम से चार महीने के भीतर ‘जीएम’ फसलों पर एक राष्ट्रीय नीति विकसित करने का आदेश दिया है।

गोष्ठी में आए किसान अमरदीप सिंह ने मोजो स्टोरी को बताया, “वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो चुका है कि ’जीएम’ स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। दुनिया के कई देशों ने उसके पर्यावरणीय और स्वास्थ्य प्रभावों के कारण ‘जीएम’ फसलों को प्रतिबंधित कर रखा है। वह रसायनों के बढ़ते उपयोग को जन्म देते हैं। पहले से ही मौजूद कृषि संकटों में यह एक अतिरिक्त संकट जुड़ रहा है।”

किसान संगठनों ने चिंता ज़ाहिर की कि दुनिया भर में ‘जीएम’ फसलों और खाद्य पदार्थों को व्यापक रूप से अस्वीकार किए जाने के कारण भारत ‘जीएम’ मुक्त होने का अपना वैश्विक बाजार लाभ भी खो देगा और ‘जीएम’ फसलों की खेती का विकल्प चुनकर अपनी व्यापार सुरक्षा भी खो देगा।

गोष्ठी में मौजूद आशा समूह के हरजोत बंटी ने कहा, “हमारी कृषि-विविधता के लिए ’जीएम’ एक ऐसा परिवर्तन है जो हमारे पेशे पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। यह हमें अस्वीकार्य है,” वह आगे कहते हैं, “कुछ 30 साल पहले अमेरिका ने जीएम फसलों के व्यावसायीकरण किया था, लेकिन फिर भी दुनिया भर के अधिकांश देश ‘जीएम’ फसल की खेती की अनुमति नहीं देते हैं।”


‘जीएम’ नहीं है कारगर

किसान संगठनों की ओर से जारी प्रस्ताव में कहा गया है कि भारत में ‘बीटी कॉटन’ की विफलता की कहानी विनाशकारी तकनीक (जीएम) का प्रमाण है, जिसे समाधान के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है। अकेले पंजाब में इस वर्ष कपास के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में 46 फ़ीसद की कमी आई है। गुलाबी ‘बॉलवर्म’ और अन्य कीटों को नियंत्रित करने में बीटी कॉटन असफल रहा है।

साथ ही कपास की खेती में रासायनिक उपयोग में वृद्धि हुई है, जबकि पैदावार स्थिर या कम हो गई है। वहीं, क़रीब सभी कपास के बीजों पर बहुराष्ट्रीय निगम ‘बेयर/मोनसेंटो’ का नियंत्रण है।

“आप पाएंगे कि पंजाब में अधिकांश आत्महत्याएं कपास किसानों द्वारा की जाती हैं। भारत सरकार ने भी अपने अदालती हलफ़नामे में स्वीकार किया है कि ‘बीटी कॉटन’ के कारण देश में किसानों की आत्महत्या में वृद्धि हुई है। बावजूद उसके ’जीएम’ को विस्तार देने की तैयारी हो रही है,” युवा किसान कार्यकर्ता सुखपाल सिंह ने कहा।

“यह चिंताजनक है कि नियामक व्यवस्थाएं अपर्याप्त हैं। फसल उत्पादक कंपनियों को यह तय करने की अनुमति देना कि वे क्या और कैसे परीक्षण करेंगे, यह किसानों की स्वायत्तता पर हमला है। हम संसदीय स्थायी समितियों सहित कई विश्वसनीय समितियों से भी अवगत हैं, जिन्होंने ग्रामीण रोजगार पर ‘हर्बिसाइड टॉलरेंट’ फसलों के नकारात्मक प्रभाव और हमारी जैवविविधता के स्थायी संदूषण जैसे गंभीर मुद्दे उठाए हैं,” सुखपाल ने जोड़ा।


चंडीगढ़ में बैठक के दौरान किसान संगठनों व किसानों ने ‘जीएम’ पर रखे अपने विचार •

ग़ौरतलब है कि लगभग सभी राज्य सरकारों ने ‘जीएम’ फसलों के प्रति सतर्क रुख अपनाया है और कई ने तो इस तकनीक पर प्रतिबंध लगाने के लिए औपचारिक नीतिगत स्थिति बनाई है।

पंजाब सरकार में कृषि विभाग के अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि यह आश्चर्यजनक है कि एक तरफ भारत सरकार प्राकृतिक एवं जैविक खेती की बात करती है और दूसरी तरफ ‘जीएम’ फसलों की। “किसानों के बीच के अपने अंतर अगर कम हो और वे तात्कालिक लाभ छोड़कर दूरगामी प्रभावों को तवज्जो दें तो एक बेहतर कृषि राष्ट्र नीति बनाई जा सकती है,” उन्होंने जोड़ा।

"हम यह सुनिश्चित करेंगे कि सरकार संप्रभु कृषि-पारिस्थितिकी का एक नया मार्ग तैयार करे। हम यह भी सुनिश्चित करेंगे कि आईपीआर के माध्यम से बीजों और आनुवंशिक सामग्री पर कोई कॉर्पोरेट नियंत्रण न हो," किसानों ने चंडीगढ़ में शपथ ली।


चंडीगढ़ में किसानों की बैठक में शामिल कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा •

मंत्री को लिखा पत्र

“चंडीगढ़ की गोष्ठी एक ऐतिहासिक मौका है जब विभिन्न विचारधाराओं के किसान संगठन एक साथ एक टेबल पर ‘जीएम’ विमर्श के लिए उपस्थित हुए हैं। हम सभी खेती-किसानी के उज्जवल भविष्य के लिए यहाँ जुटे हैं और सबकी सहमति से केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव को पत्र भेज रहे हैं,” कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा ने कहा, “हम चाहते हैं कि सभी किसान संगठन ‘जीएम’ जैसी नुकसानदेह तकनीक का विरोध करें। हमें किसानों, किसान नेताओं की क्षमताओं और खरीददारों के बीच जागरूकता फैलानी होगी। उसका किसानों की आमदानी, मिट्टी के स्वास्थ्य और खरीददारों के सेहत पर प्रभाव पड़ेगा, इसलिए जरूरी है कि सभी तबकों में ‘जीएम’ को लेकर विमर्श शुरू हो।”

‘जीएम’ फ्री इंडिया के बैनर तहत किसान संगठनों ने पर्यावरण मंत्रालय को पत्र लिखकर कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, कृषि और स्वास्थ्य/चिकित्सा/पोषण विशेषज्ञ, जैव प्रौद्योगिकी और आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र के वैज्ञानिक, किसान, किसान नेता, उपभोक्ता अधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरणविद और पारिस्थितिकीविद, सामाजिक कार्यकर्ता, उद्योग प्रतिनिधि, निर्यातक, भारतीय चिकित्सा पद्धति के चिकित्सक, अन्य कृषि-सहायक आजीविका का प्रतिनिधित्व करने वाले सभी लोगों के परामर्श के बाद ही जीएम फसलों पर राष्ट्रीय नीति बनाई जानी चाहिए।

‘जीएम फ्री इंडिया’ ने पर्यावरण मंत्री को लिखे पत्र में याद दिलाया है कि भारत में वाणिज्यिक खेती के लिए बीटी बैंगन के पर्यावरणीय विमोचन में तत्कालीन यूपीए सरकार में पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने सार्वजनिक परामर्श किए थे, वैसी ही समावेशी परामर्श प्रक्रिया अपनाई जाए। संगठन ने पत्र में मांग की है कि सार्वजनिक परामर्शों को स्थानीय भाषाओं में सभी प्रमुख स्थानीय समाचार पत्रों, दृश्य मीडिया और वेबसाइटों पर अच्छी तरह से प्रसारित किया जाना चाहिए। उसके अलावा, संगठन ने पत्र में गुज़ारिश की है कि परामर्श देने का अधिकार सभी नागरिकों के पास होना चाहिए।

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