कमर तोड़ती महंगाई लोअर मिडिल और मिडिल क्लास के जीवन को कैसे कर रही प्रभावित
महंगाई की हालत कुछ ऐसी है कि पिछले एक दशक में फुल क्रीम दूध 39 रुपये से बढ़कर 68 रुपये का हो गया है, जबकि रसोई गैस 410 रुपये से 860 रुपये पर पहुंच गया है। पेट्रोल 66 रुपये लीटर से 100 रुपये पार कर चुका है और डीजल 52 रुपये से 95 रुपये प्रति लीटर हो गया है। ऐसे में यह ज़रूरी है कि देश के नागरिकों की चुनी हुई सरकारें इस ‘आसमान छूते’ महंगाई की समीक्षा करें और उचित क़दम उठाएं।
अनिरुद्ध दिल्ली की एक प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं। वह पत्नी और दो बच्चों के साथ दल्लूपुरा इलाके में पिछले 10 वर्षों से रहते हैं। साल 2014 तक अनिरुद्ध बिहार के समस्तीपुर ज़िले में रहते थे, जहां बमुश्किल उन्हें दिहाड़ी पर काम मिलता था। समस्तीपुर में रहकर आजीविका चलाने में उन्हें बहुत कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था, इसलिए वर्ष 2015 में वह दिल्ली आए और नोएडा सेक्टर-10 की एक कंपनी में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करने लगे। तब से लेकर अब तक वह विभिन्न कंपनियों में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी कर चुके हैं।
पिछले क़रीब एक दशक में ‘दिल्ली दूर है’ वाली कहावत अनिरुद्ध और उनके परिवार के लिए चरितार्थ होती नज़र आ रही है। दिल्ली से स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस में सफर कर भले ही वह 24 घंटे के अंदर समस्तीपुर पहुंच जाते हैं, लेकिन दिल्ली में रहकर 12 घंटे की ड्यूटी करना और पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को ठीक से न निभा पाने की कश्मकश अक़्सर उन्हें मुंह चिढ़ाती है।
हताशा भरे स्वर में अनिरुद्ध कहते हैं, “मैं सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करके हर महीने 17000 रुपये कमाता हूं, वह भी तब जब ओवर टाइम किया। यदि ओवरटाइम नहीं किया तो मुश्क़िल से 12000-13000 रुपये ही बैंक अकाउंट में क्रेडिट होते हैं। बच्चों के स्कूल की फ़ीस, घर का राशन, रूम रेंट, दफ़्तर आने-जाने के किराये आदि में इतने पैसे ख़र्च हो जाते हैं कि सैलरी क्रेडिट होने के 10 दिन में ही बैंक बैलेंस ख़त्म हो जाता है। फिर दोस्तों और कुछ क़रीबी रिश्तेदारों से कर्ज़ लेकर बाक़ी के 20 दिन काटने होते हैं। अगले महीने जैसे ही सैलरी मिलती है तो सबसे पहले जिनसे कर्ज़ लिया था उनका कर्ज़ चुकाता हूं, फिर महीने के ख़र्च में कटौती करता हूं और पता चलता है कि 7000 से 8000 रुपये कम पड़ रहे हैं। कई साल से मैंने अपनी पत्नी को नई साड़ी नहीं दी है। वह भी समझती है; कभी डिमांड नहीं करती, फटी साड़ियों की सिलाई कर पहनने की अब उसे आदत-सी पड़ गई है। बच्चे भी चॉकलेट नहीं मांगते हैं और न ही मैगी खाने की ज़िद्द करते हैं।” वह जोड़ते हैं, “बच्चे पढ़ाई में अच्छे हैं, अब उनसे ही उम्मीदें हैं।”
10 दिन गुज़रते ही रसोई से प्याज़, लहसुन और अदरक ग़ायब
अनिरुद्ध की पत्नी शांति एक गृहणी हैं। वह बताती हैं, “मेरे पति कई दफ़ा ओवरटाइम के चक्कर में दो-दो दिन तक घर नहीं आते हैं। हमें मालूम होता है कि वह हमारे लिए ही मेहनत कर रहे हैं। कर्ज़ और घर के ख़र्च के कारण महीने के शुरुआती 10 दिनों में ही उनकी सैलरी के पैसे ख़त्म हो जाते हैं। समय के साथ हमने भी अपनी भोजन की प्लेट में कटौती करना शुरू कर दिया है। महीने के 10 दिनों तक घर में प्याज़ रहता है, उसके बाद जब मेरे पति का बैंक अकाउंट ख़ाली हो जाता है तब मुझे भी पता होता है कि अब बगैर प्याज़, लहसुन और अदरक के सब्ज़ी बनानी है। जबकि, 15वें दिन जब सरसों तेल ख़त्म होने वाला रहता है तब जहां पहले हम सब्ज़ी में तीन-चार चम्मच तेल देते थे, उसे कम करके नाम मात्र तेल की कुछ बूंदें देते हैं।”
“जिस रोज़ मेरे पति की सैलरी आती है, केवल उस रोज़ वह चिकन लाते हैं; बाकी दिन हम शाकहारी ही खाते हैं। हमारा बच्चा जब पास के पार्क में खेलने जाता है तो दूसरों के बच्चों के अच्छे कपड़े और खिलौने देखकर उसके लिए खरीदने की ज़िद्द करता है, लेकिन हम एक नाकाम माता-पिता की तरह मन मारकर रह जाते हैं। पैसों की तंगी के कारण न तो मैं कहीं घूमने जाती हूं और न ही पति से ज़िद्द करती हूं कि बच्चों को कहीं घुमाने लेकर चलिए, क्योंकि हमें पता है यदि मैं ज़िद्द करूंगी तो मेरे पति या तो कहीं से कर्ज़ लेकर या राशन के ख़र्च को काटकर हमें घुमाने लेकर जाएंगे। सोच रहीं हूं कि कोई छोटी-सी नौकरी करूं, ताकि दोनों मिलकर घर चलाएं।”
अनिरुद्ध ने साल 2015 में जब दिल्ली में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी शुरू की थी, तब उनकी सैलरी सात हज़ार थी और 10 वर्षों में अब जाकर उनकी सैलरी 12000-13000 हुई है। ग़ौरतलब है कि साल 2015 में महंगाई दर 4.91 फ़ीसद था, जबकि वर्ष 2020 में महंगाई दर अप्रत्याशित उछाल के साथ 6.62 फ़ीसद पर पहुंच गया। वहीं, साल 2021 में यह 1.49 फ़ीसद की कमी के साथ 5.13 फ़ीसद पर जा लुढ़का। वर्ष 2022 में महंगाई दर फिर से 6.70 फ़ीसद पर आ पहुंचा, जबकि साल 2023 में 5.66 और वर्ष 2024 में 4.85 फ़ीसद है।
मसला यह है कि बढ़ती महंगाई दर के अनुपात से यदि लोगों की सैलरी नहीं बढ़ी तो उनकी जेब ढीली होने लगती है। उदाहरण के तौर पर अनिरुद्ध महंगाई दर जैसे ‘टर्म’ से अवगत नहीं हैं, लेकिन इसे समझने के लिए जब हमने उनसे पूछा कि बीते 10 वर्षों में किस वर्ष आपको परिवार चलाने में काफ़ी दिक्कतें हुईं? इस पर उन्होंने साल 2020, 2021, 2022 और 2023 का ज़िक्र किया और बताया कि “तब आटा, चावल, दाल और सरसों तेल आदि खरीदने के लिए पैसे कम पड़ जाते थे। दूध, पनीर और दही की तो बात ही छोड़ दीजिए।”
हमने जब अनिरुद्ध से ‘एफएमसीजी प्रोडक्ट’ जैसे; साबुन, शैंपू, टूथपेस्ट और डिटर्जेंट के बारे में पूछा, तब उन्होंने बताया कि इस दौरान उन्होंने समस्तीपुर से दातुन लाया था और टूथपेस्ट के विकल्प के तौर पर उसका प्रयोग करते थे, क्योंकि टूथपेस्ट काफ़ी महंगा हो गया था। उन्होंने बताया कि साल 2022 में उन्हें अपनी एक पोस्ट ऑफिस की ‘रेकरिंग डिपॉज़िट’ बंद करनी पड़ी। साथ ही अपनी पत्नी की एक सोने की अंगूठी भी बेचनी पड़ी, ताकि बच्चों की स्कूल की फ़ीस भरी जा सके और घर चल सके।
प्रतीकात्मक तस्वीर • साभार: Flickr
तरुण मंडल (बदला हुआ नाम) दुमका के समाहरणालय सभागार में बतौर कंप्यूटर ऑपरेटर काम करते हैं। वह साल 2011 से कंप्यूटर ऑपरेटर हैं। वह बताते हैं, “पिछले 13 वर्षों में हमारा शहर दुमका काफ़ी बदल गया है, यहां विकास तो बहुत हुआ; लेकिन यदि नहीं बदली तो वह है हमारी ज़िन्दगी। साल 2011 में एनआईसी ऑफिस में बतौर डेटा एंट्री ऑपरेटर काम करता था, उस वक़्त मेरी सैलरी लगभग 3500 रुपये थी। तब किसी तरह से गुज़ारा हो जाता था, लेकिन अब 17000 रुपये प्रतिमाह सैलरी मिलने के बावजूद हर महीने घर के ख़र्च और तमाम ज़रूरी चीज़ों के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। सरसों तेल का भाव 150 के पार चला गया है, पेट्रॉल 100 रुपये लीटर है, प्याज़ 65 रुपये किलो है; ऐसे में तो 50 हज़ार सैलरी भी कम पड़ जाएगी।”
तरुण ने हाल ही में शादी की है और कुछ दिनों में बच्चे के पिता बनने वाले हैं। वह अपने आने वाले भविष्य को लेकर चिंतित हैं कि जब 17000 की सैलरी बैचलर लाइफ़ में कम पड़ जाती थी, तो इसमें एक बच्चे की बेहतर परवरिश कैसे होगी? तरुण का कहना है कि अब तक किसी तरह से गुज़ारा हो रहा था, लेकिन छह महीने से हर माह मुझे घर के ख़र्च चलाने के लिए दोस्तों से उधार में पैसे लेने पड़ रहे हैं। कई बार तो तबीयत ख़राब होने पर दोस्त से 10 फ़ीसद ब्याज़ पर भी कर्ज़ लिया है।
प्रीति एक घरेलू कामगार महिला हैं। वह दिल्ली में कुछ बैचलर्स के यहां खाना बनाती हैं। प्रीति बताती हैं, “हम जहां भी काम करते हैं, वहां साहब (जिनके घर में प्रीति काम करती हैं) बहुत अच्छे हैं; वे लोग एक वक़्त के बाद हमें अपनी सैलरी भी बता देते हैं। मैं तीन बैचलर्स के यहां खाना बनाती हूं। उनमें से दो साहब की स्थिति ऐसी है कि महीने की 20 तारीख़ आते-आते उनका राशन ख़त्म हो जाता है और वे दोबोरा उस महीने के लिए राशन लाते भी नहीं हैं। बाक़ी के 10 दिन वे कभी चूड़ा फ्राई, कभी पोहा तो कभी घी-भात बनवाते हैं। वहीं, एक साहब की स्थिति इतनी ख़राब रहती है कि सैलरी आई नहीं कि महीने के 10 दिन में ख़त्म। कई बार तीन-तीन महीने तक वह मुझे सैलरी नहीं दे पाते हैं। किसी की आर्थिक स्थिति का अंदाज़ा लगाना हो तो सबसे पहले उनका रसोई घर देखना चाहिए; वहां पड़े खाली डिब्बे इस बात का संकेत हैं कि पैसों की तंगी या कमी के कारण राशन नहीं है।”
महंगाई से जद्दोजहद करते अजय और राजेश
अजय शर्मा दुमका के एक ‘बाइक मॉडिफिकेशन एंड रिप्येरिंग वर्कशॉप’ में काम करते हैं। उनकी सैलरी 15 हज़ार रुपये है। वह बताते हैं, “दुमका के हिसाब से मेरी सैलरी ठीक है। इसी काम के लिए अन्य जगहों पर 12 हज़ार रुपये तक मिलते हैं, लेकिन मैं इसलिए दुमका में रहकर काम करता हूं क्योंकि यहां मेरा अपना मकान है। घर में भोजन करता हूं और रहने के लिए मुझे कोई कमरा भाड़ा नहीं देना पड़ता है। यदि 15 हज़ार की सैलरी में मैं बाहर कहीं चला जाता तो सारे पैसे ख़त्म हो जाते और ऊपर से मुझे अतिरिक्त कर्ज़ लेना पड़ता।”
अजय बताते हैं, “15 हज़ार में मेरा ख़र्च चल जाता है, क्योंकि पापा रोज़गार करते हैं। घर में बहुत अधिक पैसे मुझे नहीं देने पड़ते हैं, लेकिन 15 हज़ार सैलरी का दूसरा पहलू यह है कि मैं अभी तक कुछ बचत नहीं कर पाया। मेरी बचत अभी तक दो से तीन लाख रुपये तो होनी ही चाहिए थी, जो कि मुमकिन नहीं हो सका। कभी-कभार सब्ज़ी, मटन, चिकन, अंडे आदि खरीदता हूं तो लगता है कि मेरी सैलरी कम पड़ रही है। यदि मुझे घर चलाना होता तो निश्चित रूप से मेरी सैलरी से मिलने वाले पैसे मेरे लिए पर्याप्त नहीं होते।”
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राजेश मुंबई की एक रेस्टोरेंट में शेफ़ हैं। उन्हें उस रेस्टोरेंट में 20 हज़ार रुपये प्रति माह मिलते हैं। वह बताते हैं कि मुंबई में जब घर चलाने में दिक़्क़त होती है, तब वह तीन-चार महीने के लिए काम छोड़कर अपने गांव चले जाते हैं। “घर में रहकर घर का भोजन करते हैं, मानसिक तनाव को कम करते हैं और फिर वापस मुंबई जाकर किसी रेस्टोरेंट में काम करते हैं,” राजेश जोड़ते हैं, “महीने के राशन में 3000 रुपये ख़र्च होते हैं, बाइक के पेट्रोल में 1500 रुपये, मोबाइल रिचार्ज में 500 रुपये, डिश टीवी रिचार्ज में 200 रुपये, बच्चों की स्कूल फ़ीस में हर महीने 7000 रुपये और आठ हज़ार रुपये हर महीने लोन कट जाता है।”
वह आगे कहते हैं, “इतने कम पैसे में घर का ख़र्च नहीं चल पाता है। बमुश्किल ही ख़ुद के लिए और बीवी-बच्चों के लिए कपड़े खरीद पाता हूं। इस वज़ह से मेरी पत्नी मुझसे नाखुश रहती है और बात-बात पर मायके जाने की ज़िद्द करती है। जिस हिसाब से महंगाई बढ़ रही है, उसके अनुरुप मेरी सैलरी में बढ़त नहीं हो रही है। हम जैसे मिडिल क्लास आदमी के लिए आज के वक़्त में जीना मुश्किल हो गया है।”
“हम इतना ही तो चाहते हैं कि हमारी सैलरी बेहतर हो, ताकि घर के ख़र्च की पूर्ति करने के बाद कुछ पैसे बच पाएं। हमारे पास इतने पैसे भी नहीं बचते हैं कि दवाई ख़रीद पाएं। मुझे ब्लड प्रेशर है, जिसके लिए डॉक्टर ने जो दवाई लिखी है उसकी 10 गोली की कीमत 85 रुपये है। एक महीने में तीन बार ये दवाई ख़रीदनी पड़ती है। इतने पैसे कहां से लाएं? इसलिए आजकल ये दवाई प्रधानमंत्री जन औषधि केन्द्र से खरीदता हूं; वहां यही 85 रुपये वाली दवा 7.5 रुपये में मिलती है,” राजेश ने यह कहकर अपनी बात पूरी की।
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महंगाई और असमान वेतन को लेकर क्या कहती हैं अर्थशास्त्री?
अर्थशास्त्री जयंती घोष के मुताबिक़, “पिछले 10 वर्षों में रोज़गार के नये अवसर नहीं बढ़े हैं और साथ ही साथ रियल वेज या तो स्थिर हैं या कम होते जा रहे हैं। सर्वे रिपोर्ट में भी ये बातें सामने आई हैं कि जो श्रमिक (वर्कर्स) हैं, उनके वेज बढ़ने के बजाय कम होते जा रहे हैं। लोअर मिडिल क्लास और मिडिल क्लास के साथ-साथ जो बाकी रेगुलर वर्कर्स हैं, उनकी सैलरी पिछले 10 वर्षों से महंगाई के हिसाब से कम होती जा रही है,” वह कहती हैं, “इसके पीछे कई वज़ह हैं, जैसे पॉलिसी मिस्टेक्स में नोटबंदी, जीएसटी, कोविड को जिस तरह से लॉकडाउन करके हैंडल किया गया। उन सभी ग़लतियों की वज़ह से छोटे उद्योग पर बहुत ज़्यादा असर पड़ा है। ऐसे में बेहद ज़रूरी है कि छोटी और माध्यम आकार की इंटरप्राइजेज़ को रिवाइव किया जाए, क्योंकि ज़्यादा से ज़्यादा रोज़गार वहीं पर है।”
“सबसे पहले एमएसएमई (MSME) पर ज़ोर देना चाहिए, फिर पब्लिक एंप्लॉयमेंट (रोज़गार) को बढ़ाना चाहिए। हम शिक्षा और स्वास्थ्य पर बहुत कम ख़र्च करते हैं और कम लोगों को नौकरी पर रखते हैं। इस सेक्टर में हमें रोज़गार बढ़ाना चाहिए; उनकी वेतन बढ़ाने और छोटे उद्योगों पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है,” घोष जोड़ती हैं।
उन्होंने आगे कहा, “फ़िलहाल सरकार बड़ी-बड़ी कंपनियों और बड़े-बड़े उद्योगों पर ही ध्यान दे रही है। जो सब्सिडी बड़े-बड़े पूंजीपतियों को दी जा रही है, उसे कम करके अगर छोटे सेक्टर के उद्योगों में दिया जाए तो आप देखेंगे कि बेरोज़गारी की समस्या धीरे-धीरे कम होती जाएगी।”
“एक तरफ़ मनी वेज नहीं बढ़ रहे हैं और दूसरी ओर महंगाई बढ़ रही है। अगर महंगाई दर छह से आठ फ़ीसद तक बढ़ता है और साथ ही साथ लोगों का वेतन भी उतना ही बढ़ता है तो लोगों की कमर नहीं टूटेगी। हमने रोज़गार को पूरा स्थिर कर दिया, मौजूदा वक़्त में नौकरियां हैं नहीं। इस समय रोज़गार पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी ही नहीं, बल्कि इमरजेंसी है,” अर्थशास्त्री जयंती घोष ने कहा।
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नौकरी लगने का दांव-पेंच
कैरियर कंसल्टेंसी समृद्धि एसोसिएट्स के फाउंडर शांतनु बताते हैं, “नौकरियां तीन प्रकार की होती हैं। पहली; सरकारी नौकरी, दूसरी; संविदा सरकारी नौकरी और तीसरी; प्राइवेट नौकरी। अब प्राइवेट नौकरियों में भी तीन पहलू हैं - डायरेक्ट पे रोल रिक्रूटमेंट, थर्ड पार्टी पे रोल रिक्रूटमेंट और कैरियर काउंसलर्स रिक्रूटमेंट। आमतौर पर कैरियर कंसल्टेंसी के माध्यम से जो भी नौकरियां हमलोग देते हैं, वह लो या मिड रेंज सैलरी की होती है। इसमें समस्या यह है कि मान लीजिए कि हम सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी किसी को दे रहे हैं, तो मार्केट के हिसाब से तय है कि इस रोल के लिए 7000 से लेकर 17000 तक की सैलरी मिलेगी - वह भी शहर दर शहर सैलरी स्ट्रक्चर बदलता है।”
“अगर झारखंड के देवघर में किसी की हमारी संस्था के ज़रिये सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी लग रही है, तो उसकी 8000-9000 तक सैलरी होती है। वहीं, अगर दिल्ली, मुंबई या पुणे की बात की जाए तो वहां 15000 से 17000 तक की सैलरी दी जाती है, क्योंकि उन शहरों में ख़र्च अधिक है। एक सिक्योरिटी गार्ड की सैलरी कभी भी महंगाई के हिसाब से तय नहीं होती है, क्योंकि कैरियर कंसल्टेंसी की भूमिका तो बाद में आती है। सबसे पहले बीच में एक थर्ड पार्टी कंपनी होती है जिनका काम होता है रिक्रूट करना और एक्चुअल सैलरी जो कि सिक्योरिटी गार्ड को दी जाती है, उसमें से कुछ फ़ीसद हर माह उस थर्ड पार्टी को जाता है।”
उन्होंने आगे कहा, “हमने अपनी कंसल्टेंसी के माध्यम से बीते पांच वर्षों में जिस प्रकार की नौकरियां दी हैं, उनमें लो और मिड सैलरी रेंज की ही नौकरियां रही हैं। क्योंकि एक स्किल्ड इंजीनियर को मालूम है कि वह यदि किसी कंसल्टेंसी के माध्यम से भी जॉब लेने जाते हैं तो हो सकता है कि फ्रेशर के तौर पर उन्हें 15 हज़ार रुपये मिले, लेकिन दो से तीन वर्ष के अनुभव के बाद उनकी सैलरी बढ़ जाती है।”
“महंगाई के हिसाब से मिडिल और लोअर मिडल क्लास को ज़ाहिर तौर पर सैलरी मिलनी चाहिए और उसके लिए ज़रूरी है कि एक सख़्त नियम हो, ताकि कोई भी कंपनी कर्मचारियों को कम सैलरी देकर उनका शोषण न कर पाए,” शांतनु जोड़ते हैं।
उल्लेखनीय है कि महंगाई दिन दोगुना और रात चौगुना की तर्ज पर बढ़ रही है। उदाहरण के तौर पर, साल 2014 में 10 किलो आटे की क़ीमत 210 रुपये थी, जबकि 2024 में उसके लिए 440 रुपये ख़र्च करने पड़ रहे हैं। 2014 में जो चावल 36 से 38 रुपये का था, वह अब 80 से 90 रुपये प्रति किलो बिक रहा है। पिछले एक दशक में देसी घी की क़ीमत 300 रुपये किलो से बढ़कर 675 रुपये पर पहुंच गई, जबकि सरसों तेल 52 रुपये किलो से 150 रुपये किलो पर पहुंच गया।