महिलाओं की गुमशुदगी के मामले में मध्य प्रदेश का रिकॉर्ड सबसे ख़राब, तीन साल में 31,000 से अधिक महिलाएं व लड़कियां लापता
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB, 2023) के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2019 से 2021 के बीच देशभर में 13 लाख से अधिक महिलाएं और लड़कियां लापता हुई थीं। उनमें से सबसे अधिक लगभग दो लाख मध्य प्रदेश से थीं, जबकि दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल था। जबकि, पिछले तीन वर्षों में मध्य प्रदेश से 1,60,180 महिलाएं और 38,234 लड़कियां लापता हुईं। इसी अवधि में, पश्चिम बंगाल से कुल 1,56,905 महिलाएं और 36,606 लड़कियां लापता हुईं।
मध्य प्रदेश में पिछले तीन वर्षों में 31,000 से अधिक महिलाएं और लड़कियां लापता हुई हैं, जिनमें से केवल 724 मामले ही पुलिस में दर्ज किये गए हैं। राज्य विधानसभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, प्रदेश में हर दिन औसतन 31 महिलाएं और लड़कियां गायब हो रही हैं, जो मध्य प्रदेश में महिला सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल खड़े करता है।
विधानसभा में दिये गए एक आधिकारिक बयान के अनुसार, प्रदेश में रोज़ाना औसतन 28 महिलाएं और तीन लड़कियां लापता होती हैं। ये आंकड़े राज्य विधानसभा में कांग्रेस विधायक और पूर्व गृह मंत्री बाला बच्चा द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में प्रस्तुत किये गए।
उक्त लापता महिलाओं के मामलों में से केवल 724 मामले ही विभिन्न पुलिस स्टेशनों में आधिकारिक रूप से दर्ज किये गए हैं। उज्जैन में 676 महिलाएं तीन वर्षों से लापता हैं, लेकिन एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया है।
इस मुद्दे को लेकर जब मोजो स्टोरी ने उज्जैन के पुलिस अधीक्षक सचिन शर्मा से बात की, तो उन्होंने बताया कि “जब 18 साल से ऊपर की महिला गायब होती है, तो उसकी ‘मिसिंग पर्सन’ रिपोर्ट दर्ज की जाती है। जब 18 साल से कम की बच्ची ग़ायब होती है, तभी एफआईआर दर्ज की जाती है। उज्जैन में 18 साल से कम की लगभग 295 लड़कियां गायब हुईं और लगभग 90 प्रतिशत मामलों में पुलिस उन्हें तलाशने में सफल रही।
उक्त मामले में हमने मध्य प्रदेश सरकार के महिला एवं बाल विकास विभाग मंत्री मुनजपरा महेंद्रभाई कालूभाई से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
“बेटी के ग़ायब होने की ख़बर से होती है बदनामी”
पिछले साल मार्च में दयाल सिंह (बदला हुआ नाम) की बेटी परीक्षा देने कॉलेज गईं, लेकिन कई घंटे बीत गए और वह वापस नहीं आईं। उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई, लेकिन आज तक बेटी के बारे में कुछ पता नहीं चला। दयाल सिंह कहते हैं, “जब लोगों को पता चलता है कि बेटी ग़ायब हो गई है तो ख़ुद की ही बदनामी होती है; सब बोलते हैं कि वह किसी के साथ भाग गई होगी।”
दयाल सिंह कहते हैं, “कचहरी और पुलिस के चक्कर में रहेंगे तो काम-धंधा कब करेंगे? कोई जमा-पूँजी नहीं है, रोज़ कमाना-खाना है!”
महिला अधिकार कार्यकर्ता और ‘सरोकार एनजीओ’ की संस्थापक कुमुद सिंह कहती हैं, “बहुत-से मामलों में बदनामी के डर से माता-पिता पुलिस को ख़बर भी नहीं देते। जो आंकड़े आए हैं, उसकी तुलना में असल आंकड़े और भयावह हो सकते हैं।” सरोकार मध्य प्रदेश आधारित एक ग़ैर सरकारी संगठन (एनजीओ) है, जो लैंगिक न्याय और महिला अधिकारों की पहचान एवं उनकी चुनौतियों को हल करने के लिए विभिन्न संगठनों व समाज के विभिन्न वर्गों के साथ काम कर रहा है।
कुमुद आगे कहती हैं, “जब कोई लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराने जाता है, तो उम्र सुनने के बाद अक्सर पुलिस की पहली प्रतिक्रिया होती है कि ‘किसी के साथ भाग गई होगी।’ इस मुद्दे को लेकर समाज की मानसिकता ही ऐसी है और समाज के लोग ही तो पुलिस और प्रशासन में होते हैं!”
‘आदिवासियों के लिए एफआईआर दर्ज कराना तक मुश्किल’
उक्त मामले को लेकर आदिवासियों की समस्या कहीं अधिक जटिल है। आदिवासी कार्यकर्ता विजय कोल कहते हैं, “प्रशासन बहुत लचीला है। पुलिस जब तक पूरी नैतिकता के साथ आमजन का साथ नहीं देगी, तब तक इसका कोई उपाय निकालना बहुत मुश्किल है। कोई सक्षम आदमी हो तो वह पूरी मुस्तैदी से केस की एफआईआर दर्ज कराता है और लड़ता है, पर दलित एवं आदिवासियों के लिए यह अभी भी मुश्किल है। कई बार उनकी एफआईआर ही दर्ज नहीं की जाती, क्योंकि कुछ समुदायों के बारे में पूर्वाग्रह कानून के उचित प्रक्रिया में बाधा बनते हैं।”
विजय आगे कहते हैं कि “बेरोज़गारी अपने चरम पर है, ऐसे में बहुत-से सक्रिय दलाल आदिवासी बहुल क्षेत्रों से लड़कियों को रोज़गार के नाम पर बहलाकर बाहर शहरों में ले जाते हैं और उन्हें बेच देते हैं।”
इस मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता अली ज़ैदी ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “हमने इस मामले में राष्ट्रीय महिला आयोग और केंद्रीय मंत्रालय में शिकायत दर्ज कराई है। उसके अतिरिक्त हम लापता लड़कियों के परिवार से संपर्क कर रहे हैं। यदि सरकार उचित कार्रवाई और उपाय नहीं करती है, तो हम इस मसले को लेकर मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में जाएंगे।”
वहीं, महिला अधिकार कार्यकर्ता कुमुद का मानना है कि “समाज में महिलाओं को लेकर विरोधाभास है; एक तरफ़ महिलाओं की उन्नति और प्रगति की बात की जाती है, जबकि दूसरी ओर हम उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफल रहते हैं।” उनका कहना है कि जब तक सरकार और प्रशासन महिला सुरक्षा के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेंगे, तब तक इन चिंताजनक आंकड़ों में सुधार लाना बहुत मुश्किल है।