मध्यप्रदेश: आखिर क्यों गैर-कृषि कॉलेजों में ‘कृषि कोर्स’ पढ़ाए जाने का हो रहा विरोध? कैसी है कॉलेजों में ‘कृषि विभाग’ की हालत

मध्यप्रदेश: आखिर क्यों गैर-कृषि कॉलेजों में ‘कृषि कोर्स’ पढ़ाए जाने का हो रहा विरोध? कैसी है कॉलेजों में ‘कृषि विभाग’ की हालत

सरकार के फैसले का विरोध करने वाले छात्रों ने इंदौर हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की है, जिसमें कहा गया है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से मान्यता की कमी और ‘प्री-एग्रीकल्चर टेस्ट’ (PAT) को शामिल न करने से कृषि शिक्षा और अनुसंधान पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

मध्यप्रदेश (मप्र) में इन दिनों एक नई शिक्षा नीति लागू की जा रही है। प्रदेश के कई कॉलेजों में अब ‘एग्रीकल्चर’ यानी खेती को एक नये विषय के रूप में शुरू किया जा रहा है। राज्य सरकार का मानना है कि ऐसा करने से नये विद्यार्थी खेती-बाड़ी के विशेषज्ञ बनेंगे और उनके लिए रोजगार की संभावना भी बढ़ेगी। हालांकि, कृषि के जानकार और उसकी पढ़ाई कर चुके या अध्यनरत विद्यार्थी इस कदम को सही नहीं मानते।

कृषि संबंधी कोर्स को शुरू करने के लिए सरकार कुछ किसानों से ‘एमओयू’ (मेमोरंडम ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग) यानी समझौता भी करेगी। पिछले दिनों मप्र के मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि अब गैर-कृषि कॉलेजों में भी ‘बीएससी एग्रीकल्चर’ की पढ़ाई करवाई जाएगी। यह एक बड़ी घोषणा थी, क्योंकि आमतौर पर इस तरह की पढ़ाई कृषि विश्वविद्यालयों से जुड़े कॉलेजों में ही करवाई जाती है; जो कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से संबंध रखते हैं।

कुछ निजी कॉलेजों और सरकारी विश्वविद्यालयों में भी कृषि संबंधी पाठ्यक्रम चल रहे हैं, लेकिन उन्हें ‘आईसीएआर’ की मान्यता नहीं है। ऐसे में उन कॉलेजों की पढ़ाई पर भी कई सवाल उठते हैं। छात्रों का कहना है कि उससे बेहतर होगा कि किसी उत्कृष्ट संस्थान को ही कृषि विश्वविद्यालय के तौर पर विकसित किया जाए और उसी से नये कॉलेजों को जोड़ दिया जाए।


सरकार विश्वविद्यालय के कुलसचिवों से कह रही है कि पाठ्यक्रम शुरू करने के लिए अगर जमीन नहीं है तो वे पास के किसानों से समझौता (एमओयू) करें •

क्यों हो रहा सरकार के फैसले का विरोध?

गैर-कृषि कॉलेजों में भी ‘बीएससी एग्रीकल्चर’ कराने के सरकार के फैसले का विरोध करने वाले समूहों में इंदौर के प्रमुख ‘एग्रीकल्चर कॉलेज’ के छात्र और संगठन शामिल हैं। छात्रों ने इंदौर हाईकोर्ट में इस फैसले के खिलाफ जनहित याचिका भी दायर की है। याचिकाकर्ताओं में शामिल रंजीत किसानवंशी, जो इंदौर के कृषि महाविद्यालय के पूर्व छात्र हैं, ने प्रवेश प्रक्रिया में मौजूद खामियों पर आपत्ति जताई है। उनका कहना है कि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से मान्यता की कमी और ‘प्री-एग्रीकल्चर टेस्ट’ (PAT) को शामिल न करने से कृषि शिक्षा और अनुसंधान पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

याचिका का सर्मथन करने वालों में इंदौर कृषि कॉलेज के पूर्व छात्र नेता राधे जाट भी शामिल हैं। वह कहते हैं कि खेती-किसानी सिर्फ किताबी पढ़ाई नहीं है; उसमें ‘प्रैक्टिकल’ की जरूरत होती है। सरकार ने जो निर्णय लिया है, वह किसी भी तरह से सही नहीं है। जिन कॉलेजों में फिलहाल एग्रीकल्चर की पढ़ाई हो रही है, वहां नाम मात्र के संसाधन भी नहीं हैं; ऐसे में खेती-किसानी कैसे सिखाई जाएगी? क्या खेती केवल ‘क्लासरूम’ में बैठकर ही सिखाई जा सकती है?

राधे बताते हैं कि “कई कॉलेजों में जो पाठ्यक्रम शुरू किए गये हैं, वहां पहले से ही मौजूद पाठ्यक्रमों में प्रोफेसर एवं अन्य फैकल्टी की कमी है; फिर ’एग्रीकल्चर’ की पढ़ाई कैसे करवाई जाएगी?” वह आरोप लगाते हैं, “प्रदेश में बेरोजगारों की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि सरकार यह समझ ही नहीं पा रही है कि उतने नौजवानों को कहां उपयोग किया जाए। वैसी स्थिति में, जब प्रदेश ‘लाडली बहना योजना’ जैसी तमाम मोटे खर्च वाली योजनाओं के चलते वित्तीय संकट में फंसता दिखाई दे रहा है, तब रोजगार जुटाना और भी मुश्किल हो रहा है। ऐसे में सबसे आसान है किसान और उससे जुड़ा बाजार, और बेरोजगार नौजवानों को कृषि अर्थव्यवस्था का हिस्सा बना देना है।”

“यह अच्छा होता अगर उन्हें उत्कृष्ट स्तर की शिक्षा दी जाती, लेकिन फिलहाल बिना संसाधनों के जो विश्वविद्यालय कृषि विषय की पढ़ाई करवा रहे हैं; वहां केवल किताबी पढ़ाई हो रही है। यह विचारणीय है कि खेती-किसानी की केवल किताबी पढ़ाई किए उन नौजवानों से कल उम्मीद की जाएगी कि वे भारत में पीढ़ियों से खेती कर रहे किसानों को सही सलाह दें, उन्हें अपने खेतों में सही तरीके से खेती करना सिखाएं और बीज की गुणवत्ता जांचें एवं बुआई-कटाई के बारे में बताएं,” राधे जाट कहते हैं कि इस तरह से आधा-अधूरा ज्ञान हासिल किए नौजवानों को कृषि अर्थव्यवस्था में धकेलना ‘डिजास्टर’ साबित होगा।


खरगोन के एक गैर-कृषि विश्वविद्यालय में इसी सत्र से ‘कृषि कोर्स’ शुरू किए जाने की सूचना •

याचिका दायर करने के पीछे का कारण

याचिकाकर्ता रंजीत किसानवंशी आरोप लगाते हैं कि ‘एग्रीकल्चर’ की पढ़ाई को लेकर सरकार गंभीर नहीं है; सरकार केवल कृषि साक्षरता के नाम पर विद्यार्थियों को ‘डिग्री’ बांटने के लिए काम कर रही है। वह कहते हैं कि “आईसीएआर की मान्यता के बिना ‘एग्रीकल्चर कॉलेज’ नहीं खोले जाने चाहिए। वैसे भी राज्य सरकार की कोई ठोस नीति नहीं है, ऐसे में एक बिल्कुल तकनीकी पढ़ाई जिसमें किताबों से ज्यादा अनुभव काम आता है; वह कैसे होगी?”

“देश में नये कृषि संस्थानों की स्थापना के लिए ‘आईसीएआर’ के नियम कृषि छात्रों के हित में बनाए गये हैं, ताकि उन्हें बेहतर पढ़ाई, प्रायोगिक ज्ञान और अनुभव सब कुछ हासिल हो। उसके तहत किसी भी संस्थान के पास विद्यार्थियों को सिखाने के लिए पर्याप्त ‘फैकल्टी’ के साथ ही करीब 30 हेक्टेयर तक जमीन और अलग-अलग प्रयोगशालाओं की सुविधा होनी चाहिए,” रंजीत सवाल उठाते हैं कि क्या सरकार जिन कॉलेजों में ’एग्रीकल्चर कोर्स’ शुरू कर रही है, उन्हें उक्त सभी सुविधाएं दे रही है?


इंदौर के महू में स्थित अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय •

कई कॉलेजों में जैसे-तैसे चल रहे ‘एग्रीकल्चर कोर्स’

मध्यप्रदेश में कृषि की पढ़ाई के लिए कुछ विशेष संस्थान हैं, जिनमें जबलपुर का जवाहरलाल कृषि विश्वविद्यालय और ग्वालियर का राजमाता विजयराजे सिंधिया विश्वविद्यालय अहम हैं। उन विश्वविद्यालयों से जुड़े कई कॉलेजों में भी कृषि की पढ़ाई होती है; अगर सालाने बजट को छोड़ दें, तो उनके पास कृषि की पढ़ाई करवाने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं।

प्रदेश सरकार ने भले ही अब गैर-कृषि कॉलेजों में ’बीएससी एग्रीकल्चर’ का कोर्स शुरू किया हो, लेकिन प्रदेश में कुछेक विश्वविद्यालयों ने इस तरह के कोर्स पहले ही शुरू कर दिए थे। वे संस्थान एक स्वायत्त प्रणाली हैं और उसी के तहत उन्होंने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) से मान्यता के बिना ही कोर्स शुरू किए हैं। रिपोर्टों के मुताबिक, उनमें से ज्यादातर के पास कृषि की पढ़ाई के लिए जरूरी संसाधन नहीं हैं।

कृषि विषय के छात्रों के मुताबिक, ‘एग्रीकल्चर’ की पढ़ाई करने के बाद कई ऐसी सरकारी नौकरियां होती हैं जिनके दरवाजे उनके लिए खुल जाते हैं। उनमें से कई की प्रवेश परीक्षाओं में वे पास भी हो जाते हैं, लेकिन कुछ के लिए वे काबिल ही नहीं होते। यह नाकाबिलियत दो तरह की है: पहली कि उनके पास पर्याप्त ‘प्रैक्टिकल नॉलेज’ नहीं होता, और दूसरा कि कई परीक्षाओं में ‘आईसीएआर’ की मान्यता वाले डिग्रीधारक को ही मौका दिया जाता है।

इंदौर जिले के महू में स्थित डॉ. बीआर अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय में भी ऐसा ही किया गया। साल 2015 में जब विश्वविद्यालय बना, उसी समय वहां सामाजिक विज्ञान की पढ़ाई के साथ कृषि की पढ़ाई भी शुरू कर दी गई। जबकि, आज विश्वविद्यालय में ‘एग्रीकल्चर कोर्स’ से ही सबसे ज्यादा आर्थिक मदद मिलती है, लेकिन छात्रों के अनुसार उससे उनको किसी तरह की मदद नहीं मिलती।

इस विश्वविद्यालय को शुरू करते समय तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा था कि यह उनके जीवन का सबसे अच्छा काम है, लेकिन उसके ठीक उलट विश्वविद्यालय की स्थिति शुरु से ही अच्छी नहीं रही।


डॉ. बीआर अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्विद्यालय में हाईटेक नर्सरी का हाल कुछ ऐसा है •

अंबेडकर विश्वविद्यालय में दाखिल होने के बाद कुछ ही कदम चलते ही एक हाईटेक नर्सरी का बोर्ड नजर आता है, जिसके पीछे एक पॉलीहाउस बना हुआ है। उसका उद्घाटन साल 2017 में तत्कालीन कुलपति और कृषि मामलों के विद्वान डॉ. रामशंकर कुरील के कार्यकाल में और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े विचारक सुनील आंबेकर के आतिथ्य में किया गया था। लेकिन, वर्तमान में उस हाईटेक नर्सरी का पॉलीहाउस जर्जर हो चुका है और उसके अंदर व बाहर बड़ी-बड़ी घास उगी हुई है। उससे जुड़े लोग बताते हैं कि पिछले तीन-चार वर्षों से उसका कोई उपयोग नहीं हुआ है। हवा के साथ-साथ पॉलीहाउस की पॉलीथीन हर दिशा में उड़ती हुई दिखाई देती है और दूर से ही वहां चल रहे कृषि कोर्स की हालत का अंदाजा लग जाता है।


विश्वविद्यालय के पॉलीहाउस का दृश्य •

बीते साल तक यहां ‘एग्रीकल्चर कोर्स से मास्टर’ की पढ़ाई भी होती थी, लेकिन किन्हीं वजहों से इस साल से वह पढ़ाई भी बंद हो गई। फिलहाल, विश्वविद्यालय में ‘बीएससी एग्रीकल्चर’ की 60 सीट है; ऐसे में सभी सत्रों के मिलाकर करीब 250 विद्यार्थी यहां पढ़ाई कर रहे हैं।


दूरदराज इलाकों से पढ़ने आए विद्यार्थियों की निराशा

मध्यप्रदेश के कई जिलों से विद्यार्थी डॉ. बीआर अंबेडकर विश्वविद्यालय में कृषि की पढ़ाई करने के लिए आते हैं। उनमें से एक फ़ैज़ान भी हैं, जो सिवनी जिले से पढ़ने के लिए आए हैं। उन्होंने हाल ही में अपनी चार साल की डिग्री पूरी की है। विश्वविद्यालय में पढ़ाई का माहौल बताते हुए वह कहते हैं कि शुरुआत में उन्हें समझ नहीं थी कि ‘बीएससी एग्रीकल्चर’ की पढ़ाई ‘आईसीएआर’ से संबद्ध किसी संस्थान से करना बेहतर होता है, न ही यह पता था कि अंबेडकर विश्वविद्यालय ‘आईसीएआर’ से जुड़ा नहीं है। ऐसे में उन्होंने यहां दाखिला ले लिया, लेकिन उसके बाद उन्हें इस भूल का अहसास हुआ।

फ़ैज़ान बताते हैं कि चार साल में उन्होंने ‘बीएससी एग्रीकल्चर’ की डिग्री पूरी कर ली है, लेकिन आज तक उन्होंने ‘फील्ड’ पर कोई काम नहीं किया है। उनके मुताबिक, उन्होंने खेती की इस पढ़ाई के दौरान विश्वविद्यालय की ओर से किसी भी प्रशिक्षण कार्यक्रम में खेत देखे तक नहीं। “यहां कृषि कोर्स के विद्यार्थियों के लिए जरूरी किसी भी तरह की प्रयोगशाला भी नहीं है,” वह जोड़ते हैं।


अंबेडकर विश्वविद्यालय से ‘बीएससी एग्रीकल्चर’ का ‘कोर्स’ पूरा कर चुके छात्र फ़ैज़ान •

फ़ैज़ान आगे कहते हैं कि ‘बीएससी एग्रीकल्चर’ के करीब 250 विद्यार्थियों की पढ़ाई पूरी करवाने के लिए यहां एक परमानेंट प्रोफेसर और छह विजिटिंग फैकल्टी हैं। उनके मुताबिक, अपने ‘कोर्स’ के दौरान उन्होंने 10 से 12 ‘गेस्ट फैकल्टी’ को हर कुछ महीनों में जाते हुए देखा है। कई बार हालत ऐसी हो जाती है कि ‘क्लास’ लगती ही नहीं है।

“विश्वविद्यालय में ‘बीएससी एग्रीकल्चर’ के मुख्य नियमों का पालन भी नहीं किया गया है।” उसे समझाते हुए फ़ैज़ान कहते हैं कि पाठ्यक्रम के छठवें सेमेस्टर में ‘एजुकेशनल टूर’ होता है, लेकिन वह नहीं हुआ। उसके अलावा, सातवें और आठवें सैमेस्टर में ‘रावे’ (Rural Agricultural Work Experience) के तहत कृषि विज्ञान केंद्रों से अनुबंध करके विद्यार्थियों को ग्रामीण इलाकों में खेती-बाड़ी का अनुभव लेने का मौका दिया जाता है, लेकिन यहां वह भी नहीं करवाया गया।

फ़ैज़ान के बैच के एक छात्र सौरभ अपनी ‘बीएससी’ की डिग्री पूरी करके एक अन्य यूनिवर्सिटी में ‘एडमिशन’ ले लिया है। वह कहते हैं कि उन्हें खुशी है कि उन्होंने डिग्री पूरी कर ली, लेकिन इस तरह से पढ़ाई पूरी करना अच्छा अनुभव नहीं रहा। उनके मुताबिक, “विश्वविद्यालयों का काम विद्यार्थियों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा देना है, न कि केवल डिग्री बांटना,” सौरभ ने भी अपनी पढ़ाई के दौरान कभी लैब या खेत नहीं देखा।

अंबेडकर विश्वविद्यालय में ‘बीएससी’ की पढ़ाई कर रहे एक अन्य छात्र भी व्यवस्थाओं के प्रति अपना असंतोष जताते हुए कहते हैं कि उनके ‘क्लासरूम’ नियमित नहीं हैं। उनके अनुसार, उनकी कक्षाएं आज यहां तो कल वहां लगती हैं। उन्होंने कहा कि “हमने सुना है कि विश्वविद्यालय में लैब है, लेकिन वह कहां है, उसका पता नहीं,” वह कहते हैं कि इस बार भी उन्हें ‘विजिटिंग फैकल्टी’ पाठ्यक्रम शुरु होने के करीब ढ़ाई महीने बाद ही मिली है।

विश्वविद्यालय की आमदनी का सबसे बड़ा हिस्सा कृषि विभाग से ही आता है, लेकिन उस विभाग में विद्यार्थियों के लिए किताबें भी नहीं हैं। ‘एनएसयूआई’ की छात्र राजनीति से जुड़े विक्रांत सिंह परिहार बताते हैं कि लाइब्रेरी में ‘एग्रीकल्चर’ के लिए किताबें ही नहीं थीं। उसके लिए उन्होंने कुछ छात्रों के साथ मिलकर विरोध जताया और फिर थोड़ी संख्या में किताबें आईं, लेकिन उनमें भी ज्यादातर अंग्रेजी में थीं। विक्रांत कहते हैं कि “गांव-देहात से आने वाले विद्यार्थियों के लिए जहां हिन्दी में विषय पढ़ाने वाले प्रोफेसर भी नहीं हैं, उन्हें बिना सोचे-समझे अंग्रेजी की किताबें खरीद दी गईं।”

“कृषि छात्रों के लिए विश्वविद्यालय ने आज तक किसी भी तरह का प्रायोगिक ज्ञान नहीं दिया। विश्वविद्यालय से 500 मीटर दूर कृषि उपज मंडी है और 30 किलोमीटर दूर, देश का नामी सोयाबीन रिसर्च सेंटर और मशहूर सरकारी कृषि कॉलेज है, लेकिन आज तक विद्यार्थियों को वहाँ भी नहीं ले जाया गया है,” विक्रांत सिंह कहते हैं।


डॉ. बीआर अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय का प्रांगण •

क्या कहते हैं विश्वविद्यालय के प्रोफेसर व रजिस्ट्रार?

विश्वविद्यालय में कृषि विभाग के प्रमुख और इकलौते प्रोफेसर अरुण कुमार से जब हमने उक्त मसलों के बारे में पूछा, तो उन्होंने पहले स्पष्ट किया कि वह विश्वविद्यालय की ओर से बोलने के लिए अधिकृत नहीं हैं। बावजूद उसके उन्होंने बताया कि विश्वविद्यालय में फिलहाल कोई लैब नहीं है, लेकिन वह विश्वविद्यालय में मौजूद छोटे ‘प्लॉट्स’ को तैयार करके विद्यार्थियों को प्रैक्टिकल करवाने की योजना बना रहे हैं। प्रो. कुमार ने बताया कि विभाग की बेहतरी के लिए उन्होंने बजट बनाकर भेजा है। हालांकि, उसके बाद उन्होंने आगे कुछ भी कहने से इंकार कर दिया।

वहीं, अंबेडकर विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार राजेंद्र सिंह बघेल कहते हैं कि कृषि की पढ़ाई को संवारने के लिए यहां के ‘वाइस चांसलर’ रामदास अत्राम लगातार प्रयास कर रहे हैं - उसके लिए आगे कुछ और नये कदम उठाने की योजना है। उनके अनुसार, “यह एक प्रयोग है, जो धीरे-धीरे सफल होंगे और निश्चित रूप से विद्यार्थियों के लिए लाभदायक साबित होंगे,” बघेल बताते हैं कि पाठ्यक्रम में जरूरी सहूलियतें देने के लिए बजट तैयार हो रहा है। वहीं, हाईटेक लैब के रूप में जो खस्ताहाल पॉलीहाउस है, उसके लिए भी उपाय खोजे जा रहे हैं।

जरूरी संसाधनों के बिना ‘एग्रीकल्चर’ की पढ़ाई पर क्या असर पड़ सकता है, इंदौर के अंबेडकर विश्वविद्यालय की स्थिति उसके बारे में काफी कुछ बताती है। यही वजह है कि प्रदेश सरकार के गैर-कृषि कॉलेजों में कृषि कोर्स शुरू किए जाने का फैसले का छात्र विरोध कर रहे हैं। विरोध करने वालों में ‘एग्रीकल्चर कॉलेजों’ के प्रोफेसर भी हैं, लेकिन वे शासन की कार्रवाई के डर से इस बारे में खुलकर बोलने से कतरा रहे हैं।

वैसे ही एक प्रोफेसर ने गुप्तता की शर्त पर हमें बताया कि सरकार अगर कृषि की पढ़ाई को बेहतर बनाने की सोच रही है, तो यह बढ़िया काम है; लेकिन उसमें कुछ बदलाव करने चाहिए। वह कहते हैं कि “पुराने कॉलेजों में ‘एग्रीकल्चर’ के नये पाठ्यक्रम शुरू करने के बजाय, कृषि कोर्स करा रहे पुराने कॉलेजों और उनके विश्वविद्यालयों को मजबूत किया जाए व उनसे नये कॉलेज जोड़े जाएं। उन्हें साधन संपन्न बनाया जाए, ताकि ज्यादा से ज्यादा छात्र यह पढ़ाई कर सकें।”

उच्च शिक्षा विभाग में वर्षों तक सेवा दे चुके ‘बॉटनी’ के जानकार डॉ. एच. आर. त्रिपाठी कहते हैं कि एग्रीकल्चर की पढ़ाई के बारे में गंभीरता से सोचना सरकार की ओर से निश्चित रूप से एक अच्छा कदम है, लेकिन सरकार को ‘कोर्स’ की पढ़ाई की जरूरतें पूरी करने के लिए तैयार रहना होगा। उनके मुताबिक, नये कॉलेजों की जमीनों की कमी को पूरा करने के लिए सरकार को अभी काफी काम करना होगा।

अपनी बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. त्रिपाठी कहते हैं, “कृषि की पढ़ाई 60 फीसद प्रैक्टिकल (व्यावहारिक) और 40 फीसद थ्योरेटिकल (सैद्धांतिक) होती है, यह एक ‘प्रोफेशनल डिग्री’ है,” वह मानते हैं कि “बिना कृषि जानकारों और उसके विशेषज्ञों की सलाह के कॉलेजों में सीधे ‘एग्रीकल्चर कोर्स’ शुरू करना ठीक नहीं है। उसके लिए एक कमेटी बनाकर फिर आगे बढ़ना चाहिए।”


मप्र के सीएम डॉ. मोहन यादव ने एक जनसभा के दौरान की थी गैर-कृषि विश्वविद्यालयों में कृषि पढ़ाए जाने की घोषणा •

कृषि शिक्षा को लेकर सरकार का पक्ष

इस बारे में सरकार का रुख समझने के लिए हमने मध्य प्रदेश के उच्च शिक्षा विभाग के कमिश्नर निशांत वरवड़े से बात करने का प्रयास किया, जिसके जवाब में विभाग के अधिकारी और कमिश्नर के ’ओएसडी’ राकेश श्रीवास्तव ने उनके विचार रखे। इस नई योजना को समझाते हुए श्रीवास्तव कहते हैं, “यह नई व्यवस्था मौजूदा कॉलेजों का ही ‘अपग्रेडेशन’ है, जिसके तहत ‘बीएससी एग्रीकल्चर’ सहित करीब आठ ऐसे कोर्स शुरू किए गये हैं, जो छात्रों को बेहतर रोजगार हासिल करने में मदद करेंगे।”

राकेश श्रीवास्तव बताते हैं कि ”यह मुख्यमंत्री की योजना है, जिसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाएगा,” उनके मुताबिक, “फिलहाल 55 जिलों के कॉलेजों में से केवल पांच स्वायत्त कॉलेजों में ही यह कोर्स शुरू किया जा रहा है। उन कॉलेजों की स्थिति अच्छी है और विद्यार्थियों की पढ़ाई के दौरान ‘प्रैक्टिकल’ के लिए जमीन की समस्या दूर करने के लिए भी एक योजना बनाई गई है।”

“कॉलेजों का आसपास के किसानों से ’एमओयू’ करवाया जाएगा, ताकि कॉलेज के विद्यार्थी उनके खेतों का उपयोग कर सकें,” श्रीवास्तव कहते हैं कि उन कॉलेजों को सभी सुविधाएं दी जाएंगी। वह बताते हैं कि आगे की योजना में नये कृषि कॉलेजों को ‘आईसीएआर’ से संबद्ध कराना है।

”मप्र सरकार की देखरेख में विक्रम यूनिवर्सिटी कृषि कोर्स में बेहतर काम कर रही है और यहां ‘आईसीएआर’ के पाठ्यक्रम को हुबहू लिया गया है। वहां सभी नियमों का उसी तरह पालन किया जाता है। हमारे अन्य कॉलेज भी उसी तर्ज पर कृषि की पढ़ाई करवाएंगे,” ओएसडी राकेश श्रीवास्तव ने बताया कि महू की अंबेडकर यूनिवर्सिटी पहले जनजातीय विभाग के तहत आती थी और हाल ही में वह उच्च शिक्षा विभाग के तहत आई है। परिवर्तन के दौर में वहां कुछ परेशानियां हो सकती हैं, जिन्हें जल्द ही दुरुस्त कर लिया जाएगा।

गैर-कृषि कॉलेजों में कृषि की पढ़ाई शुरू करना मप्र सरकार का एक नया कदम है, जिसके नतीजों को लेकर फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। हालांकि, जानकार उसे बहुत बेहतर नहीं मानते। समाजसेवी बाबा आमटे के साथ काम कर चुके कृषि वैज्ञानिक और मप्र-छत्तीसगढ़ में सक्रिय रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता जैकब नेलीथनम मानते हैं कि यह कदम ठीक नहीं है। वह कहते हैं कि “सरकार खेती को गंभीरता से नहीं ले रही है। खेती के काम में इस तरह कम प्रशिक्षित नौजवानों को लगाना ठीक नहीं है।”

“अगर खेती की पढ़ाई को गंभीरता से लेना है, तो हाईस्कूल में उसके बैच शुरू करना चाहिए और स्कूलों में कुछ सुविधाएं तैयार करनी चाहिए। उस काम के लिए पूरी तरह अलग ‘फ्रेमवर्क’ तैयार करना चाहिए,” जैकब जोड़ते हैं, “वर्तमान स्थिति से पता चलता है कि उससे खेती का कोई लाभ हो न हो, लेकिन इस तरह की डिग्रियां बांटने से खाद और बीज कंपनियों को उन नौजवानों के रूप में सस्ती मजदूरी करने वाले लोग जरूर मिल जाएंगे।”

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