शोध में खुलासा: नमक और चीनी में पाया गया ‘माइक्रोप्लास्टिक’, आख़िर क्या है रसोई में मीठे व नमकीन का दूसरा विकल्प?
टॉक्सिक्स लिंक नाम की संस्था ने अपने अध्ययन में पाया कि आयोडीन युक्त पैकेट नमक में ‘माइक्रोप्लास्टिक’ की मात्रा सबसे अधिक है, जबकि ऑर्गेनिक सेंधा नमक में कम।
बीते दिनों एक शोध में यह खुलासा हुआ कि भारत में बिकने वाले नमक और चीनी के कई ब्रांड में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा रह रही है। उसमें बंद पैकेट या खुले एवं ऑनलाइन व स्थानीय बाजारों में बेचे जाने वाले नमक और चीनी दोनों शामिल हैं। पर्यावरण अनुसंधान और ‘एडवोकेसी’ के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था ‘टॉक्सिक्स लिंक’ ने अपने अध्ययन में पाया कि आयोडीन युक्त ’पैकेज्ड’ नमक में ‘माइक्रोप्लास्टिक’ की मात्रा सबसे अधिक थी, जबकि ‘ऑर्गेनिक’ सेंधा नमक में सबसे कम थी।
उक्त रिपोर्ट ने लोगों को इस बात से चिंतित कर दिया कि कहीं नमक के जरिये हमारे शरीर में प्लास्टिक तो नहीं पहुंच रहा। मोजो स्टोरी से बातचीत में गृहणियों (हाउसवाइफ) ने अपनी चिंता ज़ाहिर की।
“बिना नमक और चीनी के रसोई की कल्पना करना कठिन है। उस लिहाज़ से देखें तो दिनभर में दो से तीन बार चाय बनती है, दाल एवं सब्जियों में नमक डलता ही है। अगर अब नमक और चीनी के जरिए हमारे शरीर में माइक्रोप्लास्टिक जा रहा है तो उसकी जांच होनी चाहिए और दोषी कंपनियों पर कार्रवाई होनी चाहिए,” पेशे से आर्किटेक और गृहिणी मौसम सिन्हा ने कहा। “हमें कहा जाता रहा है विज्ञापनों में कि आयोडीन युक्त नमक खाना चाहिए, हम वही खाते आ रहे हैं। लेकिन विज्ञापन में हमें यह नहीं बता रहे कि आयोडीन के साथ प्लास्टिक भी खिलाया जा रहा है,” गुस्से में उन्होंने जोड़ा।
मौसम की बात को संस्था की रिपोर्ट से बल मिलता है। संस्था ने रिपोर्ट जारी करते हुए कहा, “आयोडीन युक्त नमक में बहुरंगी पतले रेशों और फिल्मों के रूप में ‘माइक्रोप्लास्टिक्स’ की उच्च सांद्रता पाई गई है, जो कि चिंताजनक है।”
माइक्रोस्कोप, जिसमें माइक्रोप्लास्टिक की उपलब्धता की जांच की जाती है •
कैसे लिये गए नमूने?
अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने घरेलू स्तर पर इस्तेमाल किए जाने वाले नमक के 10 सैंपल (नमूने) और चीनी के पांच नमूने को ऑनलाइन व स्थानीय बाजारों से खरीदा। उनमें से दो नमक के नमूने और एक चीनी के नमूने को छोड़कर, बाकी सभी ‘ब्रांडेड’ थे। परीक्षण किए गए 10 नमक के नमूनों में से तीन सैंपल आयोडीन युक्त नमक, तीन सेंधा नमक के सैंपल (दो जैविक ‘ब्रांड’ सहित), दो समुद्री नमक के सैंपल और दो स्थानीय ‘ब्रांड’ के थे।
अलग-अलग नमक के सैंपल में ‘माइक्रोप्लास्टिक’ की मात्रा और आकार भिन्न था, जो सूखे वज़न के प्रति किलोग्राम 6.71 से 89.15 टुकड़ों तक था और आकार में 0.1 मिलीमीटर (मिमी) से 5 मिमी के बीच था। ये रेशों, छर्रों, फिल्मों और टुकड़ों के रूप में पाए गए। चीनी के सैंपल में पाए जाने वाले ‘माइक्रोप्लास्टिक’ के लिए आकार की सीमा समान रही, जो ज़्यादातर रेशों के रूप में थे। अध्ययन के मुताबिक़, चीनी और नमक के सैंपल में पाये गए ‘माइक्रोप्लास्टिक’ आठ अलग-अलग रंगों में थे – पारदर्शी, सफ़ेद, नीला, लाल, काला, बैंगनी, हरा और पीला।
दरअसल, माइक्रोप्लास्टिक चावल के कणों से भी छोटे होते हैं। अमूमन माइक्रोप्लास्टिक दो प्रकार के होते हैं – प्राथमिक और द्वितीयक। प्राथमिक माइक्रोप्लास्टिक छोटे प्लास्टिक होते हैं; जिन्हें व्यावसायिक उपयोग के लिए डिज़ाइन किया जाता है। आमतौर पर उनका उपयोग सौंदर्य प्रसाधनों और वस्त्रों में किया जाता है। उसके अलावा उनका प्रयोग कपड़ों में, छोटे सिंथेटिक फ़ाइबर के रूप में भी किया जाता है। जबकि, द्वितीयक माइक्रोप्लास्टिक बड़े ‘प्लास्टिक आइटमों’ के टूटने से बनते हैं। ये ज़्यादातर ‘सिंगल-यूज़ प्लास्टिक’ उत्पादों से बनते हैं, जैसे; पानी की बोतलें, स्ट्रॉ और प्लास्टिक बैग।
‘माइक्रोप्लास्टिक’ के छोटे आकार और व्यापकता के कारण, यह पता लगाना बहुत मुश्किल है कि ये हमारे खाने तक कैसे पहुंच रहे हैं।
बाज़ार में मिलने वाले 'रिफाइंड शुगर' •
नमक और चीनी में ‘माइक्रोप्लास्टिक’ का श्रोत
पहले भी कई शोध में इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि ‘माइक्रोप्लास्टिक’ अब हमारे पानी, मिट्टी और वायुमंडल में मौजूद है। एक अनुमान के मुताबिक़, पांच से 13 मिलियन टन ’प्लास्टिक फ़ाइबर और रबर प्रति वर्ष सूक्ष्म रूप से छोटे कणों में विघटित होकर वातावरण में मिल जा रहे हैं।
ग्रीनपीस इंटरनेशनल की क्लाइमेट प्रोजेक्ट हेड क्रिश्टी वेलडेंट ने मोजो स्टोरी को बताया कि 80 फ़ीसद ‘माइक्रोप्लास्टिक’ समुद्र या जलीय स्त्रोतों से हमारे खानपान और पहनावे तक पहुंचता है। उनके अनुसार, “यह पक्के तौर पर पता लगाना वाकई मुश्किल है कि हमारे खानपान में माइक्रोप्लास्टिक का असली स्त्रोत कौन सा है? जबकि, कई शोध बता रहे हैं कि मछलियों, शंख और समुद्री नमक जैसे कई श्रेणियों में भी माइक्रोप्लास्टिक हैं। यहाँ तक कि बोतलबंद पानी (प्लास्टिक और कांच की दोनों बोतलों) में भी माइक्रोप्लास्टिक पाये गए हैं। चूंकि नमक और चीनी खाने की अहम सामग्रियों में से एक हैं, तो उस पर फ़ौरन कार्रवाई होनी चाहिए और लोगों को विकल्प बताए जाने चाहिए,” क्रिश्टी ने कहा।
टॉक्सिक्स लिंक के संस्थापक और निदेशक रवि अग्रवाल के अनुसार, उनके अध्ययन का मुख्य उद्देश्य था कि वे ‘माइक्रोप्लास्टिक’ से जुड़ी वैश्विक डेटा में खानपान में मौजूद उसके आंकड़ों को जोड़ें। वह कहते हैं, “ऐसा करके ‘प्लास्टिक संधि’ को और ठोस एवं केंद्रित किया जा सकता है। हमारी कोशिश है कि हमारी रिपोर्ट ’प्लास्टिक’ और माइक्रोप्लास्टिक’ पर हो रही नीतिगत कार्रवाईयों को गति प्रदान करें। साथ ही ‘माइक्रोप्लास्टिक’ के ज़ोख़िम को कम करने के लिए संभावित तकनीकी हस्तक्षेपों के लिए शोधकर्ताओं का ध्यान भी आकर्षित करें।”
रसोई में उपयोग में आने वाले आयोडिन युक्त नमक •
क्या सेंधा नमक पैकेट युक्त नमक से बेहतर?
नमक और चीनी में माइक्रोप्लास्टिक पाए जाने से लोगों में एक किस्म का भय पैदा हो गया है। शोध में खुलासे के बाद, कई घरों से नमक के पैकेट फेंके गए तो कहीं सेंधा नमक की तरफ लौटने की बातें होने लगी।
गुडगाँव के मैत्री अपार्टमेंट में खाना बनाने का काम करने वाली बबिता कुमारी ने बताया, “मैं यहाँ तीन घरों में काम करती हूँ। एक घर के लोगों ने दो पैकेट टाटा नमक यह कहकर कूड़ेदान में डलवा दिया कि ‘उसमें प्लास्टिक है’। जबकि, दूसरे घर ने सख़्ती से सिर्फ़ सेंधा नमक में खाना बनाने के लिए कहा। वहीं, कई लोग गुड़ की चाय बनवा रहे हैं।”
“पिछले तीन-चार दिन से मैं भी सेंधा नमक में खाना बना रही हूँ। नए ज़माने का खानपान सेहत को ख़राब कर रहा है, पुराना खानपान ही शुद्ध था। पहले, हमारे यहाँ खाना सेंधा नमक में ही बनता था, फिर बाज़ार में आयोडीन नमक आ गया और हमें बताया गया कि आयोडीन युक्त नमक खाएं। उससे लोगों को, ख़ासकर महिलाओं को दिक़्क़त होने लगी। डॉक्टर उन्हें कहते कि आप सेंधा नमक खाओ। अब तो उसमें ‘माइक्रोप्लास्टिक’ पाए जाने की बात सामने आ गई है तो क्या कहें,” केंद्रीय विहार सोसायटी में रहने वाली डॉ. नीलम धर्मेजा ने कहा।
फ़िलहाल डॉक्टरों के पास ऐसा कोई साक्ष्य या शोध नहीं हैं जिससे अनुमान लगाया जा सके कि ‘माइक्रोप्लास्टिक’ से शरीर को किस तरह के नुक़सान हो सकते हैं या किस तरह की बीमारियाँ हो सकती हैं।
'एफएसएसएआई' ने लिया संज्ञान
फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड ऑथिरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) ने टॉक्सिक लिंक की रिपोर्ट और लोगों में उसे लेकर बढ़ी चिंता के ध्यानार्थ माइक्रोप्लास्टिक के अपने शोध को और तेज़ कर दिया है। पीटीआई के मुताबिक़, एफएसएसएआई का शोध, “माइक्रो एंड नैनो-प्लास्टिक एज़ इमर्जिंग फूड कॉन्टामिनैन्ट्स” खाद्य पदार्थों में माइक्रोप्लास्टिक की मात्रा और उनका शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव पर शोध कर रहा है।
हालाँकि, फूड एक्सपर्ट्स का मानना है कि एफएसएसएआई जैसी नियामक संस्थाओं को कंपनियों को खाद्य पदार्थों के सर्टिफिकेशन से पहले इस तरह की जाँच करनी चाहिए। “आख़िर ये नमक की कंपनियाँ हैं जो मार्केट में उपलब्ध हैं, उसे एफएसएसएआई ने ही तो ‘सर्टिफाई’ किया होगा। बिना उनके ‘सर्टिफिकेशन’ के ‘प्रोडक्ट’ बाज़ार तक नहीं पहुँच सकता। अगर वे ‘प्रोडक्ट’ बाज़ार में हैं और एक स्वतंत्र संस्था ने उन उत्पादों में ‘माइक्रोप्लास्टिक’ होने की पुष्टि की है तो उस पर नियामक संस्थाओं की जवाबदेही ही है,” फूड लेबलिंग पर काम करने वाले स्वतंत्र कार्यकर्ता डॉ. बलदेव सिंह ने मोजो को बताया।
वहीं, इंटरनल मेडिसिन एक्सपर्ट डॉ. स्वाति मेहश्वरी ने कहा कि ‘माइक्रोप्लास्टिक’ इंसानी सेहत के लिए बेहद ख़तरनाक है। “माइक्रोप्लास्टिक की सूक्ष्मता एक बाल से भी कम होती हैं, लिहाज़ा उसके हमारे शरीर में प्रवेश करने के आसार हमेशा ही रहते हैं। माइक्रोप्लास्टिक से शरीर को क़ब्ज़ से लेकर कैंसर तक की समस्या हो सकती है। वैसे तो हमारे साँस लेने में भी माइक्रोप्लास्टिक शरीर के अंदर प्रवेश करते हैं, लेकिन अगर हम उत्पादों के पैकेजिंग के पहले ‘रिफाइनिंग प्रोसेस’ यह सुनिश्चित कर सकें कि माइक्रोप्लास्टिक अलग हो जाएँ तो शरीर को कई गंभीर बीमारियों से बचाया जा सकता है।”