थमने का नाम नहीं ले रहीं उत्तराखण्ड के जंगल में आग की घटनाएं, स्थानीय लोगों के साथ वन्यजीवों पर भी छाया संकट
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत के 36 फ़ीसद जंगलों में बार-बार आग लगती है। वहीं, लगभग चार फ़ीसद जंगलों में गंभीर रूप से आग की घटनाएं होती हैं।
उत्तराखंड के जंगल बीते वर्ष शुरू हुई आग की घटनाओं से अब तक उबर नहीं पाए हैं। नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ के अलावा गढ़वाल के क्षेत्र पौड़ी और उत्तरकाशी में आग की घटनाएं अधिक हैं। यहां नवंबर माह से अभी तक 900 से भी अधिक आग की घटनाएं हो चुकी हैं। एक आंकड़े के मुताबिक़, पिछले छह महीने में जंगलों में लगने वाले आग की वज़ह से 1145 हेक्टेयर जंगल ख़ाक हो चुके हैं।
इन सबके बीच सुप्रीम कोर्ट ने जंगलों में धधक रही आग के मामले में सुनवाई करते हुए बीते बुधवार को राज्य और केन्द्र सरकार को फटकार लगाई। जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने इस बात पर अपनी नाराज़गी जताई कि उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग के बावजूद वन अधिकारियों को इलेक्शन ड्यूटी पर क्यों लगाया गया।
बेंच ने केन्द्र सरकार से पूछा कि “आखिर क्यों उत्तराखंड को 3.15 करोड़ रुपये ही आवंटित किये गए, जबकि आग बुझाने के लिए 10 करोड़ रुपये की मांग की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने जंगलों में लगी आग को बुझाने में राज्य सरकार के दृष्टिकोण को ‘असुविधाजनक’ बताया।” जस्टिस बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली बेंच में जस्टिस एसवीएन भट्टी और जस्टिस संदीप मेहता शामिल थे।
बेंच ने उत्तराखंड सरकार को फटकार लगाते हुए कहा, “जब उत्तराखंड के जंगलों में हालात बदतर थे, तब आपने हमें एक ‘गुलाबी तस्वीर’ दिखाई। कार्य योजनाएं तो तैयार की जाती हैं, लेकिन उनके क्रियान्यवयन के लिए कोई क़दम नहीं उठाया जाता है।” राज्य के वन विभाग में पड़े खाली पदों पर सवाल उठाते हुए बेंच ने कहा कि “इस दिशा में ध्यान देने की ज़रूरत है।”
राजू जग्गी की जली हुई दुकान •
स्थानीय जिन्हें जंगलों में आग लगने से हुआ नुक़सान
“17 मई को दिन के 11:30 बजे हमने देखा कि हमारी दुकान जल रही है। हमने आग बुझाने की कोशिश की, लेकिन आग की लपटें इतनी तेज़ थीं कि पल भर में हमारी पूरी दुकान जल गई। हमारा 1.5 लाख का नुक़सान हो गया है। हम गरीब लोग हैं, यह दुकान ही हमारे आय का स्त्रोत था। माता-पिता, भाई-भाभी, दो बच्चे और मुझे लेकर कुल सात लोगों का मेरा परिवार आज लाचारी की स्थिति में खड़ा है।” यह बातें नैनीताल ज़िले के विरखन गाँव के राजू जग्गी ने कहीं। राजू अपने बड़े भाई और पिता के साथ मिलकर यह दुकान चलाते थे। जंगलों में आग लगने के कारण जलकर राख हो चुकी उनकी दुकान पूरे परिवार के जीविकोपार्जन की एकमात्र उम्मीद थी, जो अब मलबे में तब्दील हो चुकी है।
राजू जग्गी ने स्थानीय विधायक (भीमताल विधानसभा क्षेत्र) राम सिंह कैरा को आवेदन दिया है, ताकि उनको कुछ आर्थिक मदद मिल पाए। राजू का कहना है कि जंगलों में आग लगने से न सिर्फ़ जान-माल और वृक्षों को नुक़सान है, बल्कि हरे घास भी जल जाते हैं। जो मवेशी चरते हैं, उनके लिए भी आहार का संकट हो गया है।
मामले की गंभीरता को देखते हुए हमने भीमताल विधानसभा क्षेत्र से विधायक राम सिंह कैरा से बात की। राम सिंह जग्गी की दुकान जलने की घटना का ज़िक्र करते हुए हमने उनसे मुआवज़े के बारे में पूछा। इस पर उन्होंने कहा, “मुआवज़े की कार्रवाई चल रही है। इस बीच आदर्श आचार संहिता लगने के कारण विलम्ब हुआ है। जैसे ही आचार संहिता ख़त्म होगी, हम कार्रवाई करेंगे।”
कमला देवी का जला हुआ पॉलीहाउस •
नैनीताल ज़िले के हेडियागांव पंचायत अंतर्गत भेड़िया गांव की ग्राम प्रधान कमला देवी मायूसी भरे स्वर में कहती हैं, “हमने बड़े अरमानों से कीवी के पेड़ लगाए थे, ताकि फल बेचकर चंद पैसे कमा पाते। जंगल में लगी आग ने हमारे सपने पर पानी फेर दिया। इस कदर पेड़ आग में झुलस गए कि पैसे कमाना तो दूर, अब उस ज़मीन पर दोबारा पेड़ उगेंगे या नहीं; उसका संशय है।”
जले हुए बांस के पेड़ •
वह आगे कहती हैं, “मेरे बांस के पेड़ जल गए, पॉलीहाउस जल गया। उसमें हमने लहसुन और प्याज़ लगाया था।”
कमला देवी ने कीवी के 40 पेड़ लगाए थे, जिनमें से केवल पांच पेड़ बचे हैं। वह बताती हैं कि अगर 35 कीवी के पेड़ का फल मंडियों में बिकता तो आराम से एक-डेढ़ लाख रुपये का मुनाफ़ा हो सकता था। उन्होंने एक कीवी का पेड़ 350 रुपये में खरीदा था; जिसकी कुल लागत ही 12,250 रुपये है, जो पेड़ जलने से व्यर्थ हो गए। मसला केवल बांस के पेड़, कीवी के पेड़ और पॉलीहाउस भर जलने का नहीं है, बल्कि कमला देवी के खेत के समीप का सरकारी पेयजल पाइपलाइन भी क्षतिग्रस्त हो चुका है।
क्षतिग्रस्त पाइपलाइन •
भीमताल विधानसभा क्षेत्र से विधायक राम सिंह कैरा ने पॉलीहाउस, पाइपलाइन और कीवी के पेड़ आदि जलने और आम लोगों की संपत्ति के नुक़सान होने पर बात करते हुए कहा, “पहाड़ों या पर्वतीय राज्यों में जब कभी भी आगजनी होती है, तो हमने और हमारी सरकार ने आग पर काबू पाने का प्रयास किया है। जहां-जहां भी आग लगने से लोगों की निजी संपत्ति का नुक़सान हुआ है, उसके मुआवज़े के लिए मैं प्रयासरत हूं।”
उनसे यह पूछे जाने पर कि उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने के पीछे चीड़ के पेड़ ज़िम्मेदार हैं या आग की घटनाएं मानव निर्मित हैं, वह कहते हैं, “सभी को जागरूक होना पड़ेगा; जिस दिन लोग जागरूक हो जाएंगे, ऐसी घटनाएं होनी बंद हो जाएंगी।”
हमने राम सिंह कैरा से पूछा, “खबरें हैं कि वन विभाग के पास आग बुझाने के लिए आधुनिक उपकरण नहीं हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?” इस पर उन्होंने कहा, “कभी-कभी इतनी भयानक आग लगती है कि नया सिलेंडर भी फट जाता है। हमारी सरकार के द्वारा आग को बुझाने के लिए हर प्रकार की सुविधा देने की कोशिश की गई है। आगे इसको और दुरुस्त करने का प्रयास किया जाएगा।”
वहीं, स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता हेमा जोशी कहती हैं कि “उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने के कारण हमारे जंगल ख़त्म हो रहे हैं। हमारे संगठन की महिलाएं पशुपालन के लिए जंगलों से चारा लाती थीं। यह समझ लीजिए कि आग लगने से पानी बिल्कुल ख़त्म हो गया है। जंगलों की वनस्पतियां आग के कारण झुलसकर ख़त्म हो गई हैं। हमारे घर जंगलों के नज़दीक हैं। आग से हमें इतना नुक़सान हुआ कि हमारी पानी की पाइपलाइन जल गई। उद्यान विभाग से जीविकोपार्जन के लिए महिलाओं को पॉलीहाउस मुहैया कराए गए थे, वे भी जल गए।”
पर्यावरण कार्यकर्ता गजेन्द्र पाठक •
‘जंगल के दोस्त’ संस्था के संयोजक और पर्यावरण कार्यकर्ता गजेन्द्र पाठक बताते हैं, “उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने के बाद लोग उन्हीं वन्य जीवों के नुक़सान की बात कर रहे हैं जो हमें ज़मीन के ऊपर दिखते हैं, जैसे; चिड़िया, जानवर आदि। मिट्टी के नीचे जो सूक्ष्म जीव हैं; जो पत्तों को सड़ाते हैं, ह्यूमस बनाते हैं या चीटियां, केंचुए, बीटल्स आदि के बारे में बात नहीं हो रही है।”
“चिड़िया तो उड़कर एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर चली जाएगी। जानवर भी बचकर निकल जाते हैं, लेकिन ज़मीन के अंदर रहने वाले जीवों का नुक़सान भयावह है। इकोसिस्टम में उनकी बहुत बड़ी भूमिका होती है। एक सेंटीमीटर ह्यूमस के लेयर को बनाने में कुदरत को 50-100 साल लग जाते हैं और आग उसको एक झटके में नष्ट कर देती है। ह्यूमस के लेयर के नीचे ही पूरा इकोसिस्टम है। इसमें माइक्रोऑर्गेनिज़्म और बीटल्स आदि हैं, जो पूरे इकोसिस्टम को संरक्षित करते हैं,” वह जोड़ते हैं।
गजेन्द्र के अनुसार, “हमें ज़ीरो फायर की बात करनी चाहिए। अभी सरकार की पॉलिसी पोस्ट फायर की है, जिसे प्री फायर करने की ज़रूरत है; क्योंकि आग, पानी और हवा से आज तक कोई जीत नहीं पाया है। हम उनको केवल प्रबंधित कर सकते हैं और प्रबंध तब बेहतर होगा जब हम आग लगने ही न दें।
चीड़ के पेड़ पर बात करते हुए गजेन्द्र पाठक ने कहा, “इस वक़्त मैं हल्द्वानी के पास हूं। हल्द्वानी से नैनीताल का जो रास्ता जाता है, इस पूरे रास्ते में चीड़ का कोई पेड़ नहीं है; फिर भी ये जंगल जल चुके हैं। यह आग मानव निर्मित है। मुनस्यारी का जो इलाका है; वहां चीड़ न के बराबर है, फिर वहां कैसे आग लग रही है? वहां कौन आग लगा रहा है?”
“कुछ लोग तेज़ गर्मी को भी आग लगने के लिए ज़िम्मेदार बताते हैं; लेकिन उसके लिए स्पार्क तो होना चाहिए, वह कहां से आएगा? मेरे 20 वर्षों के अनुभव से मैं कह सकता हूं कि आग लगने के तीन प्रमुख कारण हैं -
- हमारे उत्तराखंड में एक प्रथा है, जिसमें महिलाएं और पुरुष कांटेदार झाड़ियों को काटकर-सुखाकर जला देते हैं। लोग उसको पराली समझने की गलती करते हैं। वह पराली नहीं है; पराली तो फ़सल का अवशेष है। 90 फ़ीसद मामलों में आग लगने के लिए वह ज़िम्मेदार है। इस परंपरा से पहले के समय में नुक़सान नहीं होता था, क्योंकि जाड़ों में बर्फ़ गिरती थी। लेकिन अब सर्दी के दिनों में बारिश और बर्फ़बारी घटते-घटते न के बराबर हो गए हैं, ऐसे में फरवरी माह से ही जंगल बारूद बन जाते हैं।
- दूसरा, 10 फ़ीसद मामलों में किसी ने बीड़ी, सिगरेट या कोई ज्वलनशील पदार्थ फेंक दिया हो।
- और तीसरा, किसी ने रंज़िशन में आग लगा दी। कई बार जानवर जब लोगों का नुक़सान करते हैं तो लोग झाड़ियों में आग लगा देते हैं, ताकि जानवर आग देखकर भाग जाए; उससे भी जंगल जलता है।”
इसी कड़ी में गजेन्द्र पाठक ने कहा, “तेलंगाना में भी आग की घटनाएं हो रही हैं। मध्यप्रदेश में भी आग लग रही है। क्या वहां पर भी चीड़ के पेड़ हैं? यह समस्या का सरलीकरण है। यही कारण है जिससे उत्तराखंड के जंगलों में आग की समस्या नहीं सुलझ पा रही हैं।
उनके मुताबिक़, “पर्यावरणविदों ने विमर्श की दिशा मोड़ दी है; जिस बात पर चर्चा होनी चाहिए थी, उस पर न करके लोग चीड़ के पेड़ों की तरफ़ डायवर्ट हो गए। चीड़ भी कुदरत का ही हिस्सा है। ऐसी बात नहीं है कि हम उन्हें हटाकर आसानी से दूसरे जंगल लगा देंगे। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद जो 25 करोड़ पौधे लगे हैं, उनमें से कितने पेड़ बने हैं? पौधा लगना अलग चीज़ है और उनका पेड़ बनना अलग प्रक्रिया। हम यह मानकर चलते हैं कि पौधा लग गया; मतलब पेड़ लग गया और हमें इकोसिस्टम का लाभ मिलने लग गया है। यह ग़लतफहमी के सिवाय कुछ नहीं है।”
गजेन्द्र बताते हैं, “उत्तराखंड में 38 हज़ार वर्ग किलोमीटर के जंगल हैं, जिसके लिए वन दरोगा के 371 कर्मचारी हैं और लगभग 800-900 वन बीट अधिकारी हैं। उसमें सीज़नल फायर वॉचर लगभग चार हज़ार हैं। ऐसे में 5271 कर्मचारियों के भरोसे हम 38000 वर्ग किलोमीटर के जंगलों में लगने वाली आग को कैसे रोक सकते हैं? जंगल में कहीं पर खाई है तो कहीं पर चढ़ाई है; इसलिए जब तक जनता की सहभागिता नहीं होगी, तब तक जंगलों के आग को रोकना नामुमकिन है। सरकार को चाहिए कि वह जन-सहभागिता पर काम करे। प्री-फायर पर काम करने की ज़रूरत है, पोस्ट फायर पर नहीं।”
जंगल में लगी आग की तस्वीर •
जंगल और आसपास के लोगों का कनेक्शन
उत्तराखंड के जन-संगठन के कार्यकर्ता मुनीश कुमार बताते हैं, “चीज़ों को बड़े संदर्भों में समझना होगा। पहले आसपास के लोगों का जंगलों से रिश्ता था; लोग जंगल से अपनी ज़रूरत की चीज़ें जैसे - लकड़ी, जड़ी-बूटियां और घास लाते थे। अब जो नीतिगत बदलाव हुए हैं, उसमें जंगल और आसपास के लोग अलग हो गए हैं। जंगलों पर लोगों के जो अधिकार थे, वे ख़त्म हो गए हैं। लोगों को पहले जंगल से हक़-हुक़ूक़ मिलता था, यानि कि हर परिवार को जंगल से लकड़ी मिलती थी। ये सारे अधिकार अब ख़त्म हो गए हैं। ऐसे में अगर जंगल जलता है, तो आसपास के लोगों को लगता है कि मेरी कोई चीज़ नहीं जल रही है।”
“अब लोगों की भागीदारी कम हो गई है। वन विभाग के लोग आख़िर कितनी दूर तक जाकर आग बुझाएंगे? क्योंकि जंगल का इलाका तो काफ़ी बड़ा है। 70 फ़ीसद वन भूमि को वन विभाग कैसे बचाएगा? वन विभाग के पास आग पर काबू पाने के लिए पर्याप्त उपकरण नहीं हैं और यही उनकी विफलता है,” वह जोड़ते हैं।
आग लगने में चीड़ के पेड़ की भूमिका
मुनीश ने बताया कि चीड़ के पेड़ उत्तराखंड के जंगलों में आग फैलने की बड़ी वज़ह हैं, क्योंकि ये ज्वलनशील हैं। उनके अनुसार, चीड़ के पेड़ को हटाकर उसकी जगह चौड़ी पत्ती का जंगल लगाना इस समस्या के समाधान की दिशा में एक क़दम हो सकता है। “सरकार को यह काम करना चाहिए, लेकिन कोई भी सरकार यह काम नहीं करती है। जंगल को बचाने के नाम पर केवल लोगों को प्रताड़ित किया जा सकता है, लेकिन इस तरह के क़दम नहीं उठाए जा सकते हैं। चौड़ी पत्ती के जंगल ठंडे भी होते हैं और पानी को भी स्टोर करते हैं। वहीं, चीड़ के पेड़ पानी को सुखा देते हैं। साथ ही किसी और प्रजाति को पैदा होने नहीं देते हैं। चीड़ के पेड़ से लीसा निकलता है, जो काफ़ी ज्वलनशील होता है,” उन्होंने जोड़ा।
मुनीश के मुताबिक़, “हालत ऐसी है कि पहाड़ों और जंगलों में आग लगने से यदि कोई जल जाता है तो बढ़िया इलाज भी नहीं हो पाता है, इसलिए भी स्थानीय लोग आग बुझाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं। वे सोचते हैं कि यदि मुझे कुछ हो गया तो कौन बचाएगा? साथ ही केवल मानव ही जंगलों में आग से प्रभावित नहीं होते हैं, बल्कि पशु-पक्षी भी इसके शिकार हो जाते हैं।”
किशन शर्मा, रामनगर (नैनीताल) वन विभाग में फायर वॉचर का काम करते थे। यह वन विभाग ‘जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क’ के पास पड़ता है। वह बताते हैं, “फरवरी के महीने में हमें पत्तों को जलाना पड़ता था, ताकि जब आग लगे तो पत्तों के ज़रिये वह फैले नहीं। फिर मई-जून के महीने में पत्तों को गड्ढों में डंप कर दिया जाता था, जिससे बाद में खाद बनाने का काम किया जाता था।”
किशन शर्मा का कहना है कि “फायर वॉचर्स को वक़्त पर तनख्वाह नहीं मिल पाती है, इसलिए मैंने ये काम छोड़ दिया। पत्तों को खींचने के लिए रैकनुमा यंत्र होता है, कई बार हमें वह उपलब्ध नहीं कराया जाता है। अभी भी जो लोग जंगलों में काम कर रहे हैं, फरवरी से उनका पेमेंट बक़ाया है,” वह जोड़ते हैं, “वन ग्रामों में रहने वाले अधिकांश ग़रीब लोग फायर वॉचर का काम करते हैं, क्योंकि उनको स्थानीय मसलों के बारे में जानकारी होती है।”
उक्त समस्याओं के बारे में जब हमने वन विभाग के वरीय अधिकारी, पूर्व में डीएफओ रहे राजाजी नेशनल पार्क के उपनिदेशक महातिम यादव से बात करना चाहा, तो उन्होंने इस संबंध में कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया।
आग बुझाने के दौरान वन विभाग की टीम •
क्या कहते हैं बीट वन अधिकारी?
पौड़ी ज़िले के लैंसडाउन में कार्यरत बीट वन अधिकारी आशी दून बताते हैं, “मई में चीड़ काफ़ी गिरता है और यह बहुत जल्दी सूखता है। जब वह सूख जाता है तो उसमें एक-दो बार आग लगती ही है। 15 फ़रवरी से 15 जून फायर सीज़न होता है। ऐसे में अभी विभाग ने कर्मचारी बढ़ा दिए हैं, स्थिति पर काबू पाने की कोशिश की जा रही है।”
आशी दून आगे बताते हैं, “सरकार चीड़ के पेड़ों से लीसा निकालती है। कुछ वक़्त पहले सरकार ने लीसा निकलवाया। जिस जगह से लीसा निकाली जाती है, वह जगह खुला रहता है और आग लगने के बाद उस पर काबू पाना काफ़ी मुश्किल होता है। फ़िलहाल उत्तराखंड में हर जगह आग की घटनाएं हैं। हम अलर्ट मोड पर रहते हैं। रात को एक-दो बजे भी हम आग बुझाकर आए हैं। कई बार अगर सामने से आग आ रही है तो हम काउंटर फायर करते हैं। इससे पीछे वाला पोर्शन सुरक्षित हो जाता है।”
बहरहाल, उत्तराखंड के जंगलों में आग की घटनाओं पर विधायक से लेकर ग्रामीणों, पर्यावरणविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और वन-विभाग के अधिकारियों ने अपनी-अपनी बातें कहीं; लेकिन बेहद ज़रूरी है कि इस अति-संवेदनशील मसले पर जल्द-से-जल्द सरकार एक्शन मोड में आए, ताकि हर साल होने वाली इस आग की घटना पर पहले से ही काबू पाया जा सके। साथ ही कैसे जन-भागीदारी से उत्तराखंड के जंगलों में आग की घटनाओं का स्थायी समाधान निकाला जाए, यह भी विचारणीय है।
बता दें कि साल 2021 में आपदा प्रबंधन विभाग ने आपदा से संबंधित अलग-अलग संस्थानों के आठ विशेषज्ञों की एक टीम बनाकर ‘लीसा टेक्नोलॉजी’ पर चर्चा की थी। उसका एक उम्दा प्रदर्शन भी किया गया था, लेकिन इससे पहले कि उस तकनीक का प्रयोग उत्तराखंड के जंगलों में आग बुझाने के लिए किया जाता; तब तक सब कुछ ठंडे बस्ते में चला गया। दिलचस्प यह भी है कि उत्तराखंड के जंगलों में लगने वाली आग कभी चुनावी उम्मीदवारों के मैनिफैस्टो का हिस्सा नहीं बन पाती है।
ग़ौरतलब है कि प्री-मॉनसून सीज़न में वेस्टर्न डिस्टर्बेंस की घटनाओं में आई कमी से बर्फ़बारी कम हुई और बारिश न के बराबर हुई, जिस वज़ह से जंगलों की नमी ख़त्म हो गई। भीषण आग के कारण हवा की गुणवत्ता भी बिगड़ गई। वैज्ञानिक भी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि आग के कारण हवा में फैले कार्बन के कण कहीं ग्लेशियरों पर जाकर न जम जाएं। यदि ऐसा हुआ तो ग्लेशियर के पिघलने की संभावना बढ़ जाएगी, जिससे चमोली और केदारनाथ जैसे हादसों की पुनरावृत्ति भी हो सकती है।