लोकसभा चुनाव 2024: अपने अधिकारों को लेकर कितना जागरूक है ST समुदाय

लोकसभा चुनाव 2024: अपने अधिकारों को लेकर कितना जागरूक है ST समुदाय

बीते कुछ समय से हर चुनावी मौसम की तरह ही राजनीतिक पार्टियों को जनजातीय समुदाय की चिंता सता रही है। अनुसूचित जनजाति के अधिकार और उनके आरक्षण की चर्चा आए दिन देश के प्रमुख राजनेताओं के भाषण में शामिल होती हैं। ऐसे में हमने देश के दो आदिवासी बहुल राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ में एसटी समुदाय के ज़मीनी हालत को टटोलने की कोशिश की।

“तपती धूप में सिर पर धामा, हाथ में कुदाल और पसीने से तर-बतर होकर दिहाड़ी मज़दूरी करता हूं; तब जाकर घर पर चूल्हा जलता है। जबकि, जिस दिन काम नहीं मिला उस रोज़ चीनी के साथ सूखा चूड़ा या मुढ़ी (मुरमुरे) और पानी पीकर गुज़ारा करना पड़ता है। दिहाड़ी पर काम करना यानि कि सुबह आठ बजे से लेकर शाम के पांच बजे तक मिट्टी काटना - यही है हम ग़रीब लोगों की किस्मत। लगता है ऊपर वाले ने हमारे नसीब में यही सब लिखकर भेजा है।” झारखंड के गोड्डा ज़िले के महगामा प्रखंड में स्थित गांव पाकरीडीह के संताल किस्कू ने निराशा भरे स्वर में ये बातें कहीं।

चुनाव के इस समय में संताल किस्कू की तकलीफ़ें इसलिए भी प्रासंगिक हो जाती हैं क्योंकि वह बीजेपी के चर्चित सांसद निशिकांत दुबे के लोकसभा क्षेत्र से आते हैं। वह निशिकांत दुबे जो चौथी बार लोकसभा में पहुंचने के लिए न सिर्फ़ अपने क्षेत्र, बल्कि दुमका और देवघर में भी जनसंवाद कर रहे हैं।


संताल किस्कू

जब हमने संताल किस्कू से पूछा कि क्या आपको अपने नागरिक अधिकार एवं सरकार से मिलने वाले सामुदायिक सुविधाओं के बारे में पता है? तो इस पर वह कहते हैं, “दो वक़्त की रोटी मिल जाए; वही बहुत है, अधिकार नहीं चाहिए। अधिकार मांगने प्रखंड कार्यालय जाते हैं तो उस रोज़ घर का चूल्हा नहीं जलता है।” उनसे बातचीत में पता चला कि संताल किस्कू को अभी तक प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ नहीं मिला है। वह इस इंतज़ार में हैं कि चुनावी उम्मीदवार आएं तो उनसे विनती करें, ताकि उन्हें आवास मिल जाए।

जनजातीय समुदाय के 27 वर्षीय रमेश किस्कू भी पाकरीडीह से हैं। उनकी एक बेटी है। किसी तरह से रमेश ने बेटी की शादी की है। वह किसी की दुकान में काम करते हैं; उससे जो भी थोड़े-बहुत पैसे मिलते हैं, उसी से रमेश का घर चलता है। रमेश ने बताया कि मनरेगा के तहत उन्हें एक भी दिन काम नहीं मिला। जब हमने पूछा कि क्या आपको पता है ‘मनरेगा के तहत सरकार 100 दिन की रोज़गार गारंटी देती है?’ इस पर उन्होंने कहा कि “ये बातें केवल विज्ञापनों की शोभा बढ़ाने के लिए हैं। जबकि ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि हमें दिहाड़ी मज़दूरी करके खाना पड़ता है, जिस दिन काम नहीं मिला; उस दिन हमारे घर का चूल्हा भी बंद।”


अपने भाई के साथ मज़दूरी करते हुए बाबूचंद किस्कू •

उसी समुदाय के, घाटजगतपुर के 39 वर्षीय बाबूराम किस्कू बेरोज़गार हैं। वह कभी-कभार गांव में ताड़ी बेचते हैं तो कुछ पैसे कमा लेते हैं। जब हमने बाबूराम से पूछा कि क्या आपको पता है कि देश के संविधान ने आपको क्या अधिकार दिए हैं? इसके जवाब में उन्होंने कहा, “अधिकार क्या होता है - नहीं पता है।” यहाँ हमने अधिकार शब्द का ज़रूर इस्तेमाल किया है, लेकिन उनसे हमने बोलचाल की भाषा में पूछा था कि क्या आपको मनरेगा के तहत 100 दिन की रोज़गार गारंटी पाने, बच्चों को सरकारी स्कूल में शिक्षा दिलाने के अधिकार आदि के बारे में पता है।

लेकिन, हालात कुछ ऐसे हैं कि बाबूराम ने इधर-उधर से कर्ज़ लेकर किसी तरह एक बेटी की शादी की। जबकि, अब तक उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ नहीं मिला है। बाबूराम के बेटे का नाम तो पास के सरकारी स्कूल में लिखाया गया है, मगर ग़रीबी के कारण वह अपने बेटे को स्कूल नहीं भेज पाते हैं।

उधर, घाटजगतपुर की 65 वर्षीय संजली किस्कू विधवा हैं। पीएम आवास के इंतज़ार में उनकी जवानी बीत गई। उन्हें प्रति माह एक हज़ार रुपये वृद्धा पेंशन मिलता है; उसी से संजली का गुज़ारा होता है। संजली भी आदिवासी समुदाय से आती हैं और उन्हें भी अपने अधिकारों की न तो जानकारी है और न ही वह इसे लेकर जागरूक हैं।

पाकरीडीह के 32 वर्षीय बाबूचंद किस्कू को एक बेटा और दो बेटी हैं। आर्थिक तंगी के कारण बाबूचंद बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेज पाते हैं। वह बताते हैं कि एक बार वोटर कार्ड में उनके नाम में गलती हो गई थी जिस वज़ह से उनके बैंक अकाउंट में दिक्कत आ गई, क्योंकि आधार और मतदाता पहचान-पत्र का विवरण मेल नहीं खा रहा था। एक साल तक निर्वाचन कार्यालय का चक्कर लगाने के बाद वोटर कार्ड के नाम में सुधार किया गया।

वहीं, पाकरीडीह के श्रीकांत का अब तक आयुष्मान कार्ड नहीं बन पाया है। गांव में ही वह देसी शराब बेचते हैं। उन्हें कभी कोई बीमारी होने पर किसी से कर्ज़ लेकर दवाइयां खरीदनी पड़ती हैं। श्रीकांत कहते हैं, “सरकार कहती है कि आयुष्मान कार्ड के ज़रिये हम ग़रीबों का मुफ़्त इलाज करा रहे हैं, लेकिन मेरे पास तो कार्ड ही नहीं है। हमलोग ग़रीब हैं और शायद ग़रीब लोग अपने अधिकारों की बात करें तो नेताओं को यह बात चुभने लगती है।”

उक्त ग्रामीणों में से रमेश किस्कू, श्रीकांत और संताल किस्कू का जाति प्रमाण-पत्र तक नहीं बना है। जबकि बाबूराम, संजली और बाबूचंद का जाति प्रमाण-पत्र बन चुका है। सभी से बातचीत के दौरान एक बात एकसमान लगी; वो यह कि उनका कहना है, “हम अनपढ़ हैं; जाति प्रमाण-पत्र बने या न बने, अच्छी नौकरी ले ही नहीं पाएंगे।”


पोड़ैयाहाट विधानसभा क्षेत्र में जन संवाद के दौरान बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे •

स्थानीय लोगों की समस्याएं जानने के बाद जब हमने गोड्डा लोकसभा सांसद निशिकांत दुबे को फ़ोन कर महगामा प्रखंड के ग्रामीणों को सरकारी योजनाओं का लाभ न मिलने पर सवाल किया तो उन्होंने कहा कि “यह सवाल राज्य सरकार से करें, मुझसे नहीं।” निशिकांत दुबे से हमने यह भी पूछा कि भारत की राष्ट्रपति भी आदिवासी समुदाय से हैं, फिर भी उस समुदाय के जीवन में कोई बदलाव क्यों नहीं आ रहा है? इस प्रश्न के जवाब में भी उन्होंने झारखंड सरकार से बात करने के लिए कह दिया।


प्रतीकात्मक इमेज •

राजनीति में आदिवासियों के प्रतिनिधित्व पर एक नज़र

आदिवासी नायक बिरसा मुंडा के जन्मदिन के मौक़े पर 15 नवंबर, 2000 को बिहार राज्य से अलग होकर भारत के मानचित्र पर 28वें राज्य के रूप में झारखंड का गठन हुआ। राज्य के गठन के बाद से ही आदिवासी समुदाय में एक उम्मीद थी कि अब उनका विकास होगा। उसी उम्मीद को भुनाकर पहले आदिवासी मुख्यमंत्री के तौर पर बाबूलाल मरांडी सूबे के मुख्यमंत्री बने।

आदिवासियों का मानना था कि आदिवासी मुख्यमंत्री ही यहां के गरीब और पिछड़ों का दर्द समझ सकते हैं। उनके इस ख़यालात को विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी भुनाना शुरू कर दिया और मुख्यमंत्री के तौर पर आदिवासी चेहरे को प्रोजेक्ट किया जाने लगा। ग़ौरतलब है कि झारखंड में 3.3 करोड़ आदिवासी हैं, जोकि कुल जनसंख्या का लगभग एक चौथाई हिस्सा है।

वर्ष 2000 में अलग राज्य बनने के बाद झारखंड में कुल 12 मुख्यमंत्री को सूबे की कमान मिली है, जिनमें से केवल रघुवर दास ने ही अपना कार्यकाल पूरा किया। उनमें से छह मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मधु कोड़ा, हेमन्त सोरेन और चंपई सोरेन आदिवासी समुदाय से रहे हैं।

यही नहीं, देश की मौजूदा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू स्वयं आदिवासी समुदाय से आती हैं। 25 जुलाई 2022 को जब उनका कार्यकाल शुरू हुआ, तब झारखंड ही नहीं बल्कि देशभर में उनकी एक आदिवासी महिला के रूप में चर्चा हुई। यह अनुमान लगाया जाने लगा कि झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी बहुल राज्यों में विकास की रफ़्तार तेज़ होगी; खासकर आदिवासियों की ज़िंदगी बदलेगी, क्योंकि राष्ट्रपति स्वयं आदिवासी हैं और महिला भी।


राजेन्द्र देहरी, डुमरी पहाड़ •

सरकारी योजनाएं ज़रूर आईं; आंकड़ों के आईने में बेशक सब कुछ अच्छा दिखाया गया, मगर काठीकुंड प्रखंड के डुमरी पहाड़ गांव के 35 वर्षीय राजेन्द्र देहरी जब बेरोज़गारी की अपनी व्यथा बताते हुए कहते हैं कि “मैं बेरोज़गार हूं, हमें पशु शेड नहीं मिला है और काम करने के लिए पलायन करना पड़ता है,” तब सरकारी दावे और आंकड़े दम तोड़ते दिखाई पड़ते हैं। राजेन्द्र जब ग्रामीणों के साथ अपने अधिकारों के लिए जन-प्रतिनिधि के पास जाते हैं, तब उन्हें बहला-फुसलाकर उनका आंदोलन ख़त्म करा दिया जाता है और फिर वे ठगा-सा महसूस करते हैं।

कुछ ऐसा ही हाल है कोरचो गांव के 35 वर्षीय बेरोज़गार देवनारायण देहरी का। देवनारायण के पास मवेशी हैं, लेकिन रखरखाव और देखभाल की कमी के कारण कभी वे मर जाते हैं तो कभी बीमार रहते हैं। देवनारायण का कहना है कि “कोई भी चुनावी उम्मीदवार हमारे गांव में झांकने तक नहीं आते हैं।”


देवनारायण देहरी, कोरचो •

हमने देवनारायण देहरी से पूछा कि क्या आपके पास जाति प्रमाण-पत्र है? इस पर वह कहते हैं, “जाति प्रमाण-पत्र तो है, लेकिन उसका कोई लाभ नहीं मिलता। नेता हमसे वोट ले लेते हैं और जब चुनाव हो जाता है तो हम उनके लिए मायने नहीं रखते हैं। जाति प्रमाण-पत्र हमारे लिए महज़ एक कागज़ का टुकड़ा है।”

उपरपुजाडी के 20 वर्षीय मनोज देहरी बेरोज़गार हैं। न तो उन्हें पीएम आवास मिला है और न ही पशु शेड। मनोज ने बताया कि “गांव के समाजसेवी ने कई बार हमारी मदद की, तब जाकर हमने पीएम आवास के लिए आवेदन किया। मुझे नहीं पता है कि वह कैसे मिलता है।” मनोज को अपने संवैधानिक अधिकारों की समझ नहीं है। वह कहते हैं, “अधिकार मांगेंगे तो सरकार गुस्सा हो जाएगी।”


मनोज देहरी, बेंजियाम •

बेंजियाम के 45 वर्षीय मनोज देहरी भी बेरोज़गार हैं। उनका एक बेटा मानसिक रूप से विक्षिप्त है। मनरेगा के तहत 100 दिन की रोज़गार गांरटी का लाभ उन्हें नहीं मिलता है। उन्हें पशु शेड भी नहीं मिला है। वह कहते हैं, “अब कुछ वर्ष के बाद मैं वरिष्ठ नागरिक हो जाऊंगा। अब तक ज़िन्दगी ऐसे ही गुज़ार दी, आगे ऊपर वाला जाने।”

उपरपुजाडी के मनोज देहरी और बेंजियाम के मनोज देहरी दोनों के पास जाति प्रमाण-पत्र है और उनकी समस्याएं भी देवनारायण जैसी ही हैं। उनका कहना है कि जाति प्रमाण-पत्र बनने के बाद हम उसे कॉपी के अंदर रख देते हैं, फिर उसकी ज़रूरत तभी पड़ती है जब किसी सरकारी योजना के लिए आवेदन करना हो। अन्यथा वह केवल एक दस्तावेज़ भर है।

उनसे यह पूछने पर कि जब आप लोगों का जाति प्रमाण-पत्र बन गया है तो क्या आरक्षण का लाभ नहीं लेते? जाति प्रमाण-पत्र के आधार पर किसी नौकरी में आपके लिए ‘क्वालिफाइंग मार्क्स’ कम हो सकता है। इस पर वे एक ही चीज़ कहते हैं, “उसका कोई फ़ायदा नहीं है; हम पढ़े-लिखे नहीं हैं।”

बेंजियाम के मनोज देहरी अपनी लाचारी बयां करते हुए कहते हैं, “हमने सोचा था कि मानसिक रूप से विक्षिप्त बेटे के इलाज के लिए सरकार हमारी मदद करेगी, लेकिन हमारी सुनने वाला कोई नहीं है। जन-प्रतिनिधि केवल आश्वासन देते हैं, हमारा कोई काम नहीं होता।” कुछ विचार करने के बाद वह जोड़ते हैं, “इस बार मतदान में हमें चुनावी उम्मीदवारों को सबक सिखाना होगा।”

काठीकुंड, शिकारीपाड़ा विधानसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है। हमने वहां के मौजूदा विधायक और जेएमएम से सांसद प्रत्याशी नलीन सोरेन से क्षेत्र में विकास कार्यों की सुस्त गति पर उनके विचार जानने की कोशिश की।

यदि आप सांसद बनते हैं तो ज़ाहिर तौर पर एक सांसद के रूप में आपका दायरा बड़ा होगा, ऐसे में विधायक रहते हुए जो कमियां रह गई हों; उसे सांसद के तौर पर कैसे दुरुस्त करेंगे? इस पर वह कहते हैं, “आदिवासी, ग़रीब, शोषित, दमित और वंचित आदि को सामाजिक और आर्थिक न्याय मिले, उनके क्षेत्र का विकास हो; झारखंड मुक्ति मोर्चा इसका ध्यान रखती है। कुछ कमियां रह जाती हैं, आपने हमारे संज्ञान में दिया है; उस संबंध में हम निश्चित तौर पर गांव के लोगों से संपर्क करेंगे।”

बात छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल्य ज़िलों की

छत्तीसगढ़ का बस्तर और सरगुजा आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है। यहां के आदिवासियों को उनके ही समाज के विधायक, सांसद और मंत्री मिले हैं। बावजूद उसके ज़मीनी हालात बदले नहीं हैं। वहां भी आदिवासी अपने अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं हैं।

बस्तर के घोटिया पंचायत की शशि बघेल को प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ नहीं मिला है। वह एक कमरे के टूटे-फूटे मकान के दूसरे छोर को फटी-पुरानी साड़ी से ढ़ककर रहती हैं। कुछ वर्ष पहले उनके पति का देहान्त हो गया। उसके बाद से वह अपनी सास और पांच साल के बेटे के साथ किसी तरह ग़रीबी में गुज़र-बसर करने पर मजबूर हैं। बारिश में उनके घर के अंदर पानी आ जाता है।

चुनावी मौसम में राजनीतिक दलों द्वारा एक तरफ़ जहां एसटी समुदाय को प्रतिनिधित्व देने की बात की जाती है, वहीं ज़मीन पर प्रतिनिधित्व जैसी बातें स्वप्न सरीखी लगती हैं। शशि बघेल का अब तक जाति प्रमाण-पत्र तक नहीं बना है, उसके लिए वह सरकारी दफ़्तरों का चक्कर काटकर थक गई हैं। स्थानीय सामाजिक संस्था ने भी इसमें उनकी मदद की, बावजूद उसके तमाम प्रयास विफल रहे। शशि का कहना है कि अब उन्होंने इसकी उम्मीद ही छोड़ दी है। उनके बच्चों का जाति प्रमाण-पत्र बन गया है, वह उसी से संतुष्ट हैं।

मनरेगा के तहत 100 दिन की रोज़गार गारंटी योजना का शशि बघेल को कोई लाभ नहीं मिलता है। वह बताती हैं कि एक बार मनरेगा के तहत उन्हें काम मिला था, लेकिन उसकी मज़दूरी ही नहीं मिली। इस वज़ह से अब वह मरनेगा में काम नहीं करती हैं।


ललिता ध्रुव •

भानपुरी पंचायत की ललिता ध्रुव की स्थिति भी बेहद नाज़ुक है। चार वर्ष पूर्व उनके पति का देहान्त हो गया था। वह एक बेटा और तीन बेटी के अलावा एक गोद ली हुई बेटी के साथ किसी तरह से जीवन-यापन कर रही हैं। ललिता को विधवा पेंशन भी नहीं मिलता है। उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना का भी लाभ नहीं मिला है। ललिता की बड़ी बेटी कॉलेज जाती हैं और बीच-बीच में मज़दूरी भी करती हैं।

ललिता बताती हैं, “ग़रीबी और बेबसी इस हद तक परेशान करती है कि कभी-कभी जीने का मन ही नहीं करता है। मतदान केवल इस उम्मीद से करते हैं कि हम आदिवासियों की ज़िंदगी कुछ तो बेहतर हो, लेकिन हर बार ठगा-सा महसूस होता है।” ललिता की स्थिति भी शशि बघेल की तरह ही है। सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काट-काटकर वह भी थक गई हैं। उनका भी जाति प्रमाण-पत्र नहीं बना है।

छत्तीसगढ़ के गरियांबद ज़िले के 39 वर्षीय युवराज नेताम खेती करते हैं। उनके तीन बेटे हैं। पास के ही सरकारी स्कूल में उनके बच्चे पढ़ते हैं। उनका एक छोटा बेटा आंगनवाड़ी केन्द्र में जाता है। युवराज बताते हैं कि उन्हें अब तक प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ नहीं मिला है और न ही शौचालय। उनके घर के पास सड़क भी नहीं है। वह कहते हैं, “हमलोग पहले आवाज़ उठाना नहीं जानते थे, लेकिन धीरे-धीरे हमने आंदोलन करना सीखा। उसके बाद कई स्थानीय आंदोलनों में हमने भाग लिया, लेकिन फिर भी न तो सड़क बनी और न ही किसी सरकारी योजना का हमें लाभ मिला।”

युवराज मौजूदा चुनावी उम्मीदवारों से ख़फ़ा हैं। वह कहते हैं कि “वोट मांगते वक़्त ये नेता झूठे वादे करते हैं और जैसे ही चुनाव जीत जाते हैं, उन्हें हमारी समस्याओं से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है।” हालांकि, युवराज को उम्मीद है कि एक दिन जब लोग जागरूक होंगे तो हालात बदलेंगे।

स्थानीय लोगों की उक्त समस्याओं पर हमने बस्तर के ज़िलाधिकारी विजय दयाराम से यह जानना चाहा कि क्या ज़िला प्रशासन द्वारा सुदूरवर्ती इलाकों में किसी तरह के जागरूकता शिविर का आयोजन किया जाता है? लेकिन, डीएम की ओर से हमारी कॉल का कोई जवाब नहीं दिया गया।


जया ध्रुव, सामाजिक कार्यकर्ता, बस्तर •

छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके की सामाजिक कार्यकर्ता जया ध्रुव बताती हैं, “सरकारी योजनाएं तो अनेक हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में उनका सही ढंग से क्रियान्यवयन नहीं होता है। अधिकांश आदिवासियों को अपने अधिकारों के बारे में पता नहीं है; शायद उन्हें इसलिए भी अधिकारों के बारे में बताया नहीं जाता है, क्योंकि यदि उन्हें उनके अधिकारों के बारे में जानकारी मिल गई तो वे सत्ता से सवाल करेंगे।”

वह आगे कहती हैं, “चुनावी उम्मीदवार चुनाव से पहले वोट मांगते हुए कई वादे करते हैं, मगर जब वे जीत जाते हैं तो पलटकर वापस नहीं देखते हैं। बस्तर और सरगुजा जैसे आदिवासी बाहुल्य इलाकों में मंत्री, विधायक और सांसद सभी आदिवासी रहे हैं। छत्तीसगढ़ के वन मंत्री केदार कश्यप हैं। मसला यह है कि जब वे चुनाव जीत जाते हैं तो उनके इर्द-गिर्द ज़्यादातर लोग उच्च जाति के होते हैं; यह भी कारण है कि आदिवासियों का विकास नहीं होता है।”

इस पर छत्तीसगढ़ के नारायणपुर विधानसभा सीट से पूर्व कांग्रेस विधायक चंदन कश्यप से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, “जो भी योजनाएं आती हैं, उन्हें ग्राम पंचायत जारी करती है। ऐसे में सरपंच और पंचायत सचिव पार्टी विशेष पर ध्यान देते हैं। अगर विधायक कांग्रेस का है और सरपंच बीजेपी के समर्थक हैं, तो योजनाओं का क्रियान्यवयन ठीक से नहीं होता है। जब मैं विधायक था तो विकास के लिए पैसा आता था और वापस चला जाता था, क्योंकि योजनाओं को ज़मीन पर लागू ही नहीं किया जाता था।”

कांग्रेस नेता कहते हैं, “राजनीति में आदिवासी को केवल मोहरा बनाया जाता है। हम आदिवासियों को विधायक तो बना दिया जाता है, लेकिन हमारे काम में दख़लंदाज़ी की जाती है।”

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