आदिवासियों में मशहूर ‘काई चटनी’ को मिला GI टैग, आख़िर क्या है Red Ant से बने Chutney की कहानी
ओडिशा के मयूरभंज जिले में रहने वाले आदिवासी लाल चींटियों से एक ख़ास तरह की चटनी बनाते हैं, जिसे हाल ही में जीआई टैग (GI Tag) प्राप्त हुआ है.
लाल चींटी (काई).
भारत में विभिन्न जगहों पर लाल चींटी (Red Weaver Ant) के नाम से मशहूर चीटियों का वैज्ञानिक नाम 'Oecophylla Smaragdina’ है, जबकि ओडिशा के आदिवासी लोग इसे 'काई' कहते हैं. बंगाल में 'कुर्कुटी’, जबकि संताली में इसे ‘हऊ’ के नाम से जाना जाता है. इन चीटियों से बनने वाली ‘काई चटनी’ के प्रति पश्चिम बंगाल, ओडिशा, झारखंड एवं छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों के बीच एक तरह की दीवानगी देखी जाती है. इसका ही परिणाम है कि ओड़िसा के मयूरभंज स्थित सिमलिपाल क्षेत्र को ‘काई चटनी’ का जीआई 'GI' टैग मिल गया. इसका श्रेय पेशे से इंजीनियर न्यायधर पढियाल को भी जाता है.
ओडिशा स्थित आदिवासियों के बथुडी समुदाय के न्यायधर पाढियाल के अनुसार, जीआई टैग मिलने से पहले उन्होंने रेड वेवर एंट में पाए जाने वाले औषधीय गुणों के अध्ययन हेतु ज़िला कलेक्टर और केंद्रीय आयुर्वेदीय विज्ञान अनुसंधान परिषद का दरवाज़ा खटखटाया. वह कहते हैं, “ऐसे विभिन्न सरकारी संस्थान जो प्राकृतिक स्रोतों से मिलने वाले जंतुओं में पाए जाने वाले औषधीय गुणों पर अध्ययन करते हैं; उनसे ‘रेड वेवर एंट’ या उससे बनने वाली काई चटनी में पाए जाने वाले औषधीय गुणों पर अध्ययन करने की मांग की, लेकिन मुझे निराशा हाथ लगी. उसके बाद मैं हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट गया, वहां भी काई चीटियों पर शोध करने हेतु सहयोग न मिलने पर मैंने तय किया कि अब सबसे पहले काई चटनी को जीआई टैग दिलवाऊंगा.”
न्यायधर के प्रयासों के बाद काई चटनी को 2 जनवरी, 2024 को भौगोलिक पहचान हेतु जीआई टैग मिल गया. चूंकि सिमलिपाल राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र के आदिवासी ने यह पहल की, इसलिए इसका नाम 'सिमलिपाल काई चटनी' रखा गया.
जीआई टैग मिलने पर समारोह के दौरान आए मेहमानों को काई चटनी दी जा रही.
कोरोना के दौरान 'काई चटनी' से हुआ इलाज
न्यायधर पाढियाल के अनुसार, जब देश भर में कोरोना से लोगों की मौत हो रही थी; उस समय वह कोरोना पीड़ितों का इलाज काई चटनी से कर रहे थे. वह कहते हैं कि “कोरोना काल के दौरान जब मुझे मालूम पड़ा कि कोविड सर्दी-ज़ुकाम की तरह एक बीमारी है; तो मैंने तय किया कि अपने परिचितों के इलाज हेतु ‘काई चटनी’ का इस्तेमाल करूंगा, जिसका मुझे आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिला. लोग काई चटनी के सेवन के बाद स्वस्थ हो रहे थे.”
वह आगे कहते हैं, “लोगों को स्वस्थ होता देखकर मैं प्रतिदिन काई चींटी इकट्ठा करता और उससे चटनी बना कर विभिन्न क्षेत्रों में भेजता. उस दौरान लोगों के ठीक होने के साथ ही चटनी की मांग बढ़ने लगी.”
डॉ. भगपबत बेहरा, न्यायधर पाढियाल एवं सामाजिक कार्यकर्ता रूपेश गिरी (बाएं से दाएं).
काई चटनी में ऐसा क्या था जिससे कोरोन मरीज़ों को लाभ पहुंचने लगा? इस सवाल का जवाब जानने के लिए मोजो स्टोरी ने मयूरभंज के सेवानिवृत्त मेडिकल अधिकारी डॉ. भगपबत बेहरा से संपर्क किया. उन्होंने बताया कि 'काई' (लाल चींटी) नेचुरल मिनरल का रिच सोर्स है, जिसके इस्तेमाल के कारण प्रतिरोधक क्षमता (Immunity) बहुत तेज़ी से बढ़ती है. यह बात न्यायधर पढियाल को समझ आई और उन्होंने बहुत लोगों की सेवा की.
कोरोना काल का हवाला देते हुए डॉ. बेहरा कहते हैं, “कोरोना का भयानक प्रभाव दूसरी लहर के दौरान ज़ोरों पर था, उस दौरान मैंने दो बातें नोट की; एक तरफ नियमित रूप से काई चटनी का इस्तेमाल करने वाले आदिवासी को कोरोना हुआ ही नहीं, जबकि दूसरी ओर स्थानीय गैर-आदिवासी जिन्हें कोरोना हुआ भी तो काई चटनी का सेवन करते ही वे बहुत तेज़ी से स्वस्थ हुए.”
भगपबत बेहरा ने उसके बाद काई पर औषधीय अध्ययन किए जाने का सुझाव दिया. इस बात को स्थानीय आदिवासी इंजीनियर न्यायधर पाढियाल ने गंभीरता से लिया और काई की औषधीय जांच हेतु प्रयोगशाला में टेस्टिंग कराई गई.
लाल चींटी (काई) की चटनी.
काई चटनी की प्रयोगशाला रिपोर्ट
न्यायधर पढियाल के द्वारा भुवनेश्वर स्थित केआईआईटी (KIIT-Technology Business Incubator) में करवाई गई जांच की रिपोर्ट के अनुसार, काई चटनी की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें नॉन इसेंशियल के साथ इसेंशियल अमिनो एसिड सहित कुल 20 अलफा अमिनो एसिड प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं. मालूम हो कि नॉन इसेंशियल अमिनो एसिड को एक स्वस्थ शरीर स्वयं बनाता है, जबकि इसेंशियल अमिनो एसिड केवल खानपान से ही मिल सकता है.
ओडिशा कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक जगन्नाथ पात्रा उस रिपोर्ट का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि काई चटनी में सोडियम, पोटैशियम व आयरन जैसे मेटल भी प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं. रिपोर्ट के संदर्भ में पात्रा कहते हैं, “विभिन्न अमिनो एसिड व मेटल के अलावा ऊर्जा, विटामिन ए, डी व ई की प्रचुर मात्रा में मौजूदगी साबित करती है कि काई इन सभी का बेहतरीन सोर्स है. इसी कारण हमारे विश्वविद्यालय के होम साइंस ने काई चटनी को जीआई टैग मिलने के बाद उसे रिसर्च सेक्शन में भेज दिया है, ताकि उसके हाइजिन व न्युट्रिशन पार्ट पर भी रिसर्च हो सके.”
क्या भविष्य में इसकी फार्मिंग की जा सकती है? इस सवाल पर वैज्ञानिक पात्रा कहते हैं कि हार्वेस्टिंग या कल्टीवेशन पर भविष्य में काम किया जाएगा, लेकिन फिलहाल उसके बढ़ावे के लिए बड़े पत्तों वाले पेड़ जैसे; साल, कटहल, आम आदि बड़ी तादाद में लगाए जाने चाहिए.
मेघराय सोरेन.
कैसे बनती है 'काई चटनी'
मयूरभंज ज़िला के टिंगरियानी गांव के संताली आदिवासी मेघराय सोरेन ने कुछ पेड़ों की ओर इशारा करते हुए कहा, “देखिए किस प्रकार काई चीटियां उन घोसलों में रह रही हैं, इसे हम अपनी संताली भाषा में हावपोटोम कहते हैं.”
मेघराय के अनुसार, “ये चीटियां सूरज की रोशनी निकलने तक घोसलों में ही रहती हैं, इसलिए सुबह सूरज की किरण आने से पहले हावपोटोम को पेड़ों से गिरा कर थैले में इकट्ठा करते हैं.”
हावपोटोम, पेड़ों पर चींटियों का घोसला.
अंगारपदा गांव की रहने वाली 40 वर्षीय मालहो मार्डी कहती हैं, “सुबह हावपोटोम से काई चींटियों को उनके अंडों सहित एकत्र करते हैं, जिसके बाद घर लाकर उनकी सफ़ाई की जाती है ताकि उसमें कोई और कीड़े-मकोड़े न रह जाएं. उसके बाद एक डेक्ची में उनको डालकर नमक लगाकर ढक्कन बंद करके हिला दिया जाता है, जिसके बाद वह चीटियां मर जाती हैं.”
सिल पर पीसी जाती काई की चटनी.
वह आगे कहती हैं कि “इस तरह काई चीटियां इस्तेमाल के लिए उपलब्ध हो जाती हैं. उनका इस्तेमाल तीन तरीके से किया जाता है; एक तो उनको झालमुड़ी की तरह खाया जाए, और दूसरा उनका आचार बना कर प्रयोग किया जाता है. तीसरा तरीका यह है कि उनकी चटनी बनाई जाए; जो सबसे अधिक लोकप्रिय है. इसके तहत मृत चीटियों को धनिया पत्ती, अदरक, लहसुन और मिर्च के साथ मिलाकर सिल पर पीसकर चटनी तैयार बनायी जाती है. इस चटनी का स्वाद तीखा और खट्टा, लेकिन बड़ा ही स्वादिष्ट होता है.”
'सिमलिपाल काई चटनी' का लोगो.
चींटी की चटनी के स्वास्थ्य लाभ
मालहो मार्डी कहती हैं कि सिमलिपाल क्षेत्र के अधिकतर आदिवासी युवक रोज़गार की तलाश में दिल्ली चले जाते हैं. वहां का खानपान उन्हें कमज़ोर करने लगता है; कारण यह कि एक गरीब युवक केवल दो वक्त दाल-चावल खाने को मजबूर है. ऐसे में शारीरिक तौर पर कमज़ोर होना स्वाभाविक है. कोरोना काल से काई चटनी की अहमियत समझ में आने के बाद अब वे युवक अपने साथ काई चटनी लेकर जाते हैं, जिसका इस्तेमाल वे महीने भर दाल-चावल के साथ करते हैं. जो युवक दिल्ली से आना-जाना करता है, वह अपने परिचितों के लिए यहां से काई चटनी लेकर जाता है.
सिमलिपाल टाइगर क्षेत्र में गाइड का काम करने वाले मेघराय सोरेन कहते हैं कि चींटियों से बनी काई चटनी का इस्तेमाल हम आदिवासी लोग कमज़ोरी, पेट दर्द, सर्दी-बुखार आदि विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं को ठीक करने के लिए करते हैं. उनके मुताबिक़, “विशेषकर ठंड के मौसम में इस चटनी का प्रयोग अधिक किया जाता है, जिससे ठंड भी कम लगती है. इस चटनी की एक और ख़ास बात यह है कि इसका सेवन करने से आंखों की रोशनी में सुधार होता है.”
चटनी के फ़ायदे को लेकर डॉ. भगपबत बेहरा कहते हैं कि जो बातें मेघराय सोरे ने कही; वह बिल्कुल सही हैं. यही वज़ह है कि मैं बार-बार कह रहा हूं कि काई चीटियों पर शोध की ज़रूरत है, क्योंकि वे विभिन्न मिनरल का एक ऐसा सोर्स हैं जो शरीर में होने वाली कमियों को बहुत तेज़ी से दूर करता है.
वह आगे कहते हैं कि उसकी फार्मिंग यदि शुरु हो तो उससे आदिवासियों के लिए रोज़गार भी बढ़ेगा.
वहीं, काई चटनी को जीआई टैग दिलाने में अहम भूमिका निभाने वाले न्यायधर पढियाल कहते हैं कि अब हमारे सामने अगली चुनौती काई चीटिंयों की चटनी को वैश्विक खाद्य की कैटेगरी में स्थान दिलाने की है.