जलवायु परिवर्तन के कारण विलुप्त होने के कगार पर दर्जनों जड़ी-बूटियां, वैद्यों ने जताई चिंता
बदलते मौसम-चक्र, बढ़ते तापमान व बेमौसम बारिश का जंगलों की सघनता पर पड़ रहा बुरा असर. मौसम में आए इस बदलाव से पौधे बीमार एवं नष्ट हो रहे.
छत्तीसगढ़ में कभी कवर्धा के नाम से मशहूर रहे कबीरधाम ज़िला के रहने वाले धीर पाल सिंह धुर्वे पेशे से वैद्य हैं. धुर्वे के अनुसार, उनका परिवार कई पीढ़ी से विभिन्न मरीज़ों का इलाज जड़ी-बूटी से करता रहा है.
64 वर्षीय धुर्वे कहते हैं, “पिता के देहांत के बाद जड़ी-बूटी से लोगों के इलाज की ज़िम्मेदारी मेरे कंधों पर आ गई. उस समय मैं लगभग 50 जड़ी-बूटी से परिचित था. इलाज में आने के बाद मैंने करीब 50 और जड़ी-बूटी की पहचान की.”
वैद्य धीर पाल सिंह धुर्वे जड़ी-बूटियों से दवा बनाते हुए.
एक दशक पहले और आज के इलाज में क्या अंतर आया है? इस सवाल पर धुर्वे कहते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों के लोग तो साधारण इलाज के लिए आज भी आते हैं, जबकि गंभीर इलाज की बीमारी के लिए अधिकांश लोग बाहर से आते हैं. लेकिन गंभीर बीमारियों के इलाज में इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटी मिलने में अब दिक्कत आने लगी है.
कारण बताते हुए वह कहते हैं, “ तेलिया कंद का प्रयोग कैंसर के इलाज में किया जाता है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण इसकी पैदावार घट गई है. कुछ वर्षों पहले जब मौसम बेहतर था तब तेलिया की जड़ों में बनने वाला कंद एक साल में 300 ग्राम से एक किलो तक बन जाता था, जबकि अब यह बहुत मुश्किल से आधा किलो का हो पाता है. यदि समय पर समाज जागरूक न हुआ, तो यह तेलिया कंद भी लुप्त हो जाएगा.”
‘मायाजाल’ की छाल.
शरीर में खून की कमी में प्रयोग होने वाले ‘मायाजाल की छाल’ का ज़िक्र करते हुए वैद्य धुर्वे कहते हैं कि “अब यह हमारे क्षेत्र में नहीं मिलता. क़रीब 10 साल पहले इसमें कमी आई, जबकि पिछले तीन साल से यह मिलना ही बंद हो गया. अब मैं साल में एक बार केवल इसे लाने के लिए अमरकंटक जाता हूं.”
गठिया के इलाज में प्रयोग होने वाली क्युन कांदा, असगंद कांदा, सतावर कांदा का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं, “एक दौर में ये बहुत पाए जाते थे, लेकिन बढ़ रहे तापमान के कारण अब अक़्सर रोगग्रस्त हो जाते हैं, जो चिंता का कारण है.”
वैद्य के मुताबिक़, बजुर गांठ का पौधा अब दुर्लभ हो चला है, उसकी कम उपलब्धता के कारण गठिया का इलाज प्रभावित हो रहा है.
दवा बनाने से पहले जड़ी-बूटियों को सुखाया जाता हुआ.
दहिमन नाम की झाड़ी का ज़िक्र करते हुए वैद्य धुर्वे कहते हैं, “उसका इस्तेमाल नशामुक्ति के लिए किए जाने वाले इलाज में किया जाता है, लेकिन जंगलों में उसकी अनुपलब्धता से मैं बहुत चिंतित हूं.”
“शुगर, बीपी, बवासीर, सर्दी-खांसी एवं बुखार में कुरलु झाड़ के छाल, अर्जुन छाल, सोनपत्ती झाड़ के छाल, पिपरा व नागरमोथा जड़ी-बूटी का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन उनमें से अधिकांश की पैदावार जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित हो गई है,” उन्होंने यह कहते हुए अपनी बात पूरी की.
वैद्य जॉन राम
‘रेडीमेड आयुर्वेदिक दवाओं पर बढ़ रही निर्भरता’
छत्तीसगढ़ के गरियाबन्द ज़िला स्थित फिंगेश्वर ग्राम पंचायत में 40 वर्षीय वैद्य जॉन राम ने अपने नाना से 20 वर्ष पहले जड़ी-बूटी से इलाज करने की विद्या सिखी. दो दशक से ग्रामीणों का शुगर, पथरी, गठिया, चर्म आदि रोगों का इलाज करने वाले वैद्य राम अब रेडीमेड आयुर्वेदिक दवाओं पर निर्भर हो चुके हैं.
कारण पूछने पर वह कहते हैं कि “उसकी दो वज़ह है; एक तो ये कि पहले यह क्षेत्र विभिन्न जड़ी-बूटियों से संपन्न था, लेकिन आयुर्वेद दवाओं की रेडीमेड कंपनियां यहां से काफ़ी मात्रा में जड़ी-बूटियां ले जाने लगीं और ग्रामीण पैसों की लालच में जंगल-जंगल घूमकर उन्हें बेचने लगे. नतीज़ा यह रहा कि जड़ी-बूटी की खपत पैदावार की तुलना में बढ़ गई.”
दूसरा कारण बताते हुए वैद्य जॉन कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन के कारण जड़ी-बूटियों को सर्वाधिक नुक़सान हो रहा है. उदाहरण के लिए ‘मेंजुलि नागिन’ की जड़ का प्रयोग शुगर व चर्म रोग में होता है, लेकिन मौसम में गड़बड़ी के कारण बारिश में कमी आ गई है जबकि दूसरी ओर तापमान भी बढ़ रहा है; जिसके कारण उसके पेड़ ख़त्म हो गए हैं.”
एक अन्य आयुर्वेदिक पेड़ सूर्या कांदा का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं कि “जलवायु परिवर्तन के कारण अब सूर्या कांदा आसपास के जंगल में मिलता ही नहीं है.”
वैद्य के अनुसार, “नस व दीमाग की कमज़ोरी के इलाज में इस्तेमाल होने वाले अकरकरा व जटामासी के पेड़ अब दिखाई ही नहीं देते. यही कारण है कि अब हम रेडीमेड आयुर्वेदिक दवाओं से इलाज करते हैं.”
वैद्य एवं पर्यावरणविद् गजेंद्र गुप्ता
‘जंगलों की सघनता हो रही कम’
वैद्य एवं पर्यावरणविद् गजेंद्र गुप्ता मध्यप्रदेश के मंडला ज़िला में रहते हैं. उनके अनुसार, देश भर में 17 एग्रो क्लाइमेटिक ज़ोन हैं. मध्य ज़ोन में आने वाला छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश जड़ी-बूटी के लिए सर्वाधिक अनुकूल है, लेकिन वहां टिकाऊ खेती न होने के कारण सभी तरह के पेड़-पौधे कम उपज रहे हैं. यही कारण है कि गंभीर इलाज में इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटी की पैदावार प्रभावित हुई है.
उदाहरण देते हुए वैद्य गजेंद्र कहते हैं, “कैंसर के इलाज में प्रयोग होने वाली संजीवनी की उपलब्धता बहुत प्रभावित हुई है. उसका एक कारण जंगलों की सघनता है, जो दिनोंदिन कम होती जा रही है और जिसका जलवायु परिवर्तन मुख्य कारण है.”
“नदियों के किनारे सर्वाधिक जड़ी उगती हैं, लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण नदियों में बाढ़ अधिक आ रही है जो भू-क्षरण को दावत दे रही है. कई वर्षों में मिट्टी बनती है, लेकिन बाढ़ के कारण वह मिट्टी कटकर अपने साथ तरह-तरह की जड़ी-बूटी को भी बहाकर ले जा रही है,” उन्होंने जोड़ा.
विलुप्त होती जड़ी-बूटियों को बचाने का हल क्या है? इस सवाल पर वैद्य कहते हैं कि जंगल में सबसे अधिक वृक्षारोपण की आवश्यकता है, जो जंगलों की सघनता को बढ़ाएगी जिससे बारिश होने की संभावना बढ़ेगी. और, यह बढ़ते हुए तापमान को कम करने में भी सहायक होगा.
गजेंद्र कहते हैं, “इस प्रक्रिया में समय तो लगेगा, लेकिन मेरा मानना है कि वृक्षारोपण की संभावना जहां भी हो; वह चाहे ग्रामीण क्षेत्र हो या शहरी, वहां हर व्यक्ति को प्रतिवर्ष कम से कम दो पेड़ लगाने चाहिए. यदि हम यह ज़िम्मेदारी उठा लें तो कुछ ही वर्षों में हालात बदल सकते हैं.”
(यह स्टोरी केवल जड़ी-बूटियों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को दर्शाने के लिए प्रकाशित की गई है, इसका उपचार हेतु सुझाव से कोई संबंध नहीं है.)