Jharkhand: सरकारी स्कूलों में जनजातीय भाषा की पढ़ाई को लेकर क्या हैं चुनौतियां

Jharkhand: सरकारी स्कूलों में जनजातीय भाषा की पढ़ाई को लेकर क्या हैं चुनौतियां

झारखंड के मुख्यमंत्री चंपई सोरेन ने मंगलवार को अधिकारियों के साथ बैठक कर सरकारी स्कूल में जनजातीय भाषाओं की पढ़ाई के लिए शिक्षकों की नियुक्ति का दिया निर्देश.

झारखंड के मुख्यमंत्री चंपई सोरेन ने अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के मंत्री, अपर मुख्य सचिव व स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग के सचिव की मौजूदगी में राज्य के सरकारी स्कूलों में जनजातीय भाषा की पढ़ाई को प्रोत्साहन देने के लिए दिशा-निर्देश दिए हैं. ग़ौरतलब है कि झारखंड में मुख्यतः संताली, मुंडारी, भूमिज, हो, खड़िया, कुड़ुख जैसी जनजातीय भाषाएं आदिवासियों के द्वारा रोजमर्रा के बोलचाल में इस्तेमाल हो रही हैं. ऐसे में सवाल है कि किस क्षेत्र के स्कूल में कौन सी भाषा की मांग होगी? क्या स्कूलों में जनजातीय भाषा चुनने की ज़िम्मेदारी छात्रों की होगी और जनजातीय भाषाओं के लिए योग्य शिक्षक कैसे मिलेंगे?

मुख्यमंत्री के साथ हुई बैठक का ज़िक्र करते हुए अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के मंत्री दीपक बिरुवा कहते हैं कि मुख्यमंत्री ने सरकारी स्कूलों में जल्द ही जनजातीय भाषाओं में पढ़ाई शुरु करने का निर्देश दिया है.

दीपक बिरुवा के मुताबिक़, जल्द ही जनजातीय भाषाओं के शिक्षकों की नियुक्ति की जाएगी. वह कहते हैं कि “देश की आज़ादी के सात दशक बाद झारखंड के आदिवासी छात्रों को अब अपनी मातृभाषा में शिक्षा हासिल करने का अवसर मिलने वाला है. पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जनजातीय भाषाओं की समृद्धि के लिए जो सपना देखा, उसे मुख्यमंत्री चंपई सोरेन अमल में लाने के लिए प्रयासरत हैं.”

मंत्री बिरुवा एक उदाहरण देते हुए कहते हैं, “गुमला के मुंडारी बाहुल्य क्षेत्र में एक हिंदी भाषी शिक्षक की बहाली हुई. स्कूल पहुंचने पर उन्होंने देखा कि बच्चे पास के मैदान में खेल रहे हैं, तो शिक्षक ने आवाज़ दी लेकिन बच्चों की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला. उसके बाद स्कूल में मिड-डे मील बनाने वाली स्थानीय महिला ने मुंडारी भाषा में बच्चों को बुलाया, तो सभी फ़ौरन अंदर आ गए.”

वह आगे कहते हैं, “अब आप बताइए कि जिस शिक्षक को विद्यार्थियों की भाषा का ज्ञान नहीं है, वह उनको कैसे पढ़ाएंगे. भाषा को लेकर अक्सर ऐसे मामले होते रहते हैं. यही वज़ह है कि अब हमारा लक्ष्य कक्षा एक से पांच तक के विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा में शिक्षा देने का है. ऐसा करने से विद्यार्थी शिक्षा के प्रति आकर्षित होंगे, साथ ही आदिवासी समाज के पढ़े-लिखे युवाओं को रोज़गार मिलेगा.”


स्वाती सोरेन

क्या कहते हैं शिक्षाविद्?

झारखंड सरकार की ओर से आदिवासी विद्यार्थियों के लिए उठाए गए इस कदम पर मोजो स्टोरी ने जमशेदपुर के कॉपरेटिव कॉलेज की प्राचार्य स्वाती सोरेन से बात की. स्वाती सोरेन का मानना है कि यह एक सार्थक पहल है, बल्कि हमने यह पहल करने में देर कर दी.

वह आगे कहती हैं, “मेरा मानना है कि चीन व जापान जैसे देश में बच्चे वर्षों से अपनी मातृभाषा में पढ़ते हैं, जो उनकी प्रतिभा को निखारने में मुख्य भूमिका निभाता है. आज दोनों मुल्क़ दुनिया के सामने एक मिसाल हैं, जिसकी सबसे बड़ी वज़ह उनके छात्रों का मातृभाषा में शिक्षा हासिल करना है.”

प्रोफेसर सोरेन के अनुसार, जनजातीय भाषा की समृद्धि के लिए छात्रों को रेडियो के माध्यम से भी जोड़ा जाना चाहिए.


प्रोफेसर अभय सागर मिंज

वहीं, श्यामाप्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के मानवशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. अभय सागर मिंज का भी मानना है कि मातृभाषा को शिक्षा देने की प्रारंभिक अवस्था में जोड़ा जाना चाहिए. उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ इंटरवेंशन के दौरान वर्ष 2009 व 2011 में भी यह मांग की थी.

प्रोफेसर के अनुसार, “बच्चे की पहले पांच साल की आयु में सीखने की क्षमता प्रबल होती है. लेकिन, प्रथम पांच साल की उम्र तक हो, मुंडारी, संताली, कुड़ुख, खड़िया या हो भाषा में अर्जित किया गया बच्चे का ज्ञान स्कूल पहुंचते ही अनजान भाषा एवं नये सिस्टम में आने के बाद शून्य हो जाता है; क्योंकि स्कूल में उसकी भाषा बदल चुकी होती है.”

डॉ. अभय सागर का मानना है कि सरकार के द्वारा उठाया गया यह क़दम तब सार्थक साबित होगा जब इसको बेहतर तरीके से अमल में लाया जाए. उसके लिए सरकार की ओर से एक ऐसे आयोग का गठन किया जाना चाहिए जो इस मामले को लेकर संवेदनशील हो.

क्या हैं चुनौतियां?

खूंटी ज़िला में मुंडारी भाषा के जानकार कल्याण नाग आदिवासी छात्रों की शिक्षा पर काम कर रहे हैं. उनका मानना है कि सरकार जो योजना बनाती है; वह अच्छी तो होती है लेकिन सवाल उनके सफ़ल होने का है. वह बताते हैं, “मैं अक़्सर देखता हूं कि मुंडारी भाषा में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र के ज्ञान को देख कर साफ़ पता चलता है कि भाषा के ज्ञान के नाम पर उन्हें केवल सर्टिफिकेट दिया गया है. उनकी भाषा से संबंधित बुनियादी शिक्षा पर काम नहीं किया गया.”

कल्याण नाग का कहना है कि ऐसे शिक्षकों की बहाली की जाए जो जनजातीय भाषा की गुणवत्ता पर काम कर सकें.

वह आगे कहते हैं कि “मेरा मानना है कि जनजातीय क्षेत्रों में किसी भी सरकारी या प्राइवेट विज्ञापनों के लिए लगने वाली होर्डिंग में जनजातीय भाषा का प्रयोग अनिवार्य हो. यह क़दम भाषा को जानने के लिए सभी को प्रेरित करेगा.”

स्वाती सोरेन भी मानती हैं कि जनजातीय भाषा में पढ़ाई की व्यवस्था लागू करने में चुनौती कई हैं. उनके अनुसार, सबसे बड़ी चुनौती यह है कि “उसके लिए फ़िलहाल आधारभूत संरचना नहीं हैं. जहां तक भाषा की बात है तो शिक्षक को भी उसकी बेहतर समझ रखनी होगी, क्योंकि वे जब भाषा को क़रीब से जानेंगे तभी बच्चों को पढ़ा पाएंगे और तभी हम इस पहल में सफ़ल हो पाएंगे.”

‘भाषायी बहुलता के आधार पर नियुक्त हों शिक्षक’

डॉ. अभय सागर मिंज का मानना है कि हैं कि आदिवासी क्षेत्रीय भाषा के अनुसार झारखंड में पांच जनजातियां अधिक हैं, जिनकी भाषा संताली, हो, कुड़ुख, खड़िया एवं मुंडारी हैं. नई योजना से उन पांच भाषाओं को लाभ मिलेगा और उनमें रोज़गार बढ़ेगा. वह कहते हैं, “मेरा मानना है कि स्थानीय भाषा जैसे कुरमाली, नागपुरी आदि को भी महत्व मिलना चाहिए. ये भाषा भी जनजातीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बोली जाती हैं.”

प्रोफेसर आगे कहते हैं कि “अब मान लीजिए एक क्षेत्र संताली बाहुल्य है, वहां आप कुड़ुक भाषा का शिक्षक प्रत्यारोपित करेंगे तो यह क़दम सफ़ल नहीं होगा.”

डॉ. अभय सागर के अनुसार, सरकार को जनजातीय क्षेत्रों में यह अध्ययन करना होगा कि झारखंड के किस क्षेत्र में किस अनुपात में किन-किन जनजातियों की जनसंख्या है. उसी अनुपात के तहत भाषा के शिक्षक को उस क्षेत्र में बहाल किया जाए.

मुख्यमंत्री की बैठक में मौजूद रहे स्कूल शिक्षा सचिव उमाशंकर सिंह से जनजातीय भाषा में शिक्षा को लेकर आने वाले विभिन्‍न चुनौतियों में बात करने पर वह कहते हैं कि “मुख्यमंत्री द्वारा दिए गए निर्देश के बाद हम पॉलीसी फ्रेम करेंगे. अभी विभिन्‍न चुनौतियों से संबंधित तथ्यों को हम एकत्र कर रहे हैं.”

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