![वन संरक्षण: झारखंड में Simdega के जंगलों की रक्षक बनीं ग्रामीण महिलाएं वन संरक्षण: झारखंड में Simdega के जंगलों की रक्षक बनीं ग्रामीण महिलाएं](https://mojostory.com/h-upload/2024/03/30/715051-95edb516-1638-4dca-9efc-b2cf0a490456.webp)
वन संरक्षण: झारखंड में Simdega के जंगलों की रक्षक बनीं ग्रामीण महिलाएं
महिलाओं ने कई बार जंगल से लकड़ी लेकर जाने वाली पिकअप वैन को रोका. परिणामस्वरूप, कोलिबेरा के जंगलों में पेड़ की कटाई और सूखी लकड़ियों की अवैध ढुलाई लगभग बंद है.
झारखंड के सिमडेगा ज़िले का क्षेत्रफल 3768.13 वर्ग किमी है, जिसका 32 फ़ीसद यानी 1394 वर्ग किमी क्षेत्र केवल वन है. उस वन में जहां एक तरफ माफ़िया के द्वारा अवैध तरीक़े से पेड़ काटकर बेचे जाने की समस्या है, तो वहीं दूसरी तरफ ग्रामीण भी वहां से जलावन के लिए लकड़ियां ले जाते रहे हैं; जिसके कारण जंगल की सघनता प्रभावित हो रही है. इस बात से चिंतित कोलिबेरा ब्लॉक के गांव भंवरपहाड़, बरसलोया-पुर्नापानी एवं बंदरचुआ-फीकपानी की महिलाओं ने एक पहल की है; वह बीते जनवरी के महीने से अपने आसपास के जंगलों की सुरक्षा के लिए गश्त कर रही हैं.
ग्रामीणों द्वारा पत्तों से बनाई गई कटोरियां •
‘जंगल नहीं रहेगा तो हमारा आस्तित्व कैसे बचेगा’
झारखंड के वन क्षेत्र के क़रीब रहने वाले जनजातीय समुदाय की जीविका का मुख्य स्रोत वन उपज है. सिमडेगा की मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता तारामनी कहती हैं कि हमारे लिए वन का मतलब सिर्फ़ शुद्ध ऑक्सीजन का ज़रिया नहीं, बल्कि उसका सीधा संबंध हमारी जीविका से भी है.
तारामनी के अनुसार, सैकड़ों प्रकार की जड़ी-बूटियां आदिवासियों के उपचार में काम आती हैं. वहीं, जंगलों में पाए जाने वाले तैलीय बीज, जंगली साग, गोंद, घास, महुआ, लाह, केंदू के पत्ते आदि जैसे वन उपज आदिवासियों के आय का ज़रिया हैं. उसके अलावा फलदार वृक्ष जैसे; कटहल, आम, केंदू, कुसुम आदि भी हमारी आय का ज़रिया हैं.
सुशीला टोपनो, वनरक्षा दल की अध्यक्ष •
उनकी इस बात पर गश्त दल की अध्यक्ष सुशीला टोपनो कहती हैं कि “वन उत्पाद बेचने से होने वाली आय हमारे बच्चों के ख़र्च को पूरा करती है, साथ ही उससे घर के लिए उपयोग होने वाले साबुन-तेल का ख़र्च भी निकलता है. ऐसे में जंगल को पहुंचने वाला नुक़सान हम आदिवासियों को सीधे तौर पर प्रभावित करता है, जिसे रोकना बहुत ही ज़रूरी है.”
वह आगे कहती हैं, “आज भी आप जंगलों के आसपास मौजूद आदिवासी परिवारों के घर में जलावन का संग्रहण देखेंगे, जिनका इस्तेमाल घरों में भोजन बनाने के लिए ईंधन के तौर पर होता है.”
फुलजेनसिया, फीकपानी गांव के वनरक्षा दल की सदस्य •
तारामनी की बातों पर सहमति जताते हुए फीकपानी गांव की रहने वाली फुलजेनसिया बारला कहती हैं कि “यदि जंगल ही नहीं बचेगा तो आदिवासियों का अस्तित्व कैसे सुरक्षित होगा.”
वह आगे कहती हैं, “हम अक़्सर देखते थे कि बाहरी लोग कच्ची लकड़ी काटकर साइकिल, बाइक व बड़ी गाड़ियों से ले जाकर उसे शहरों में बेचते थे. इस प्रकार बड़ी तादाद में पेड़ कटने से सघनता कम हो रही है. लेकिन हम महिलाओं के द्वारा की गई गश्त के बाद से बाहरी लोग अब लकड़ियों की कटाई नहीं कर रहे हैं.”
“पेड़ कटने से जंगल की सघनता कम होने लगी, जिसका सबसे बुरा प्रभाव जंगल के जानवरों पर पड़ा. एक समय बड़ी आसानी से जंगली मुर्गी, मोर, भालू व बंदरों की विभिन्न जातियां दिखाई देती थीं, लेकिन अब वे विरले ही दिखाई देते हैं,” फुलजेनसिया अपनी बात में जोड़ती हैं.
ग्रामीणों द्वारा चुना गया महुआ •
“आसपास कुल 21 गांव हैं और हर गांव के लोग जंगल की रक्षा में सहयोग कर रहे हैं. एक शिफ्ट में 30 के आसपास महिलाएं गश्त करती हैं. जनवरी से शुरू हुई इस प्रक्रिया में दो-दो घंटों का शिफ्ट होता था, लेकिन जब से महुआ पेड़ों में आया है; तब से सुबह पांच बजे से दोपहर तक सभी लोग जंगल में ही रहते हैं. इस दौरान महुआ चुनने के कारण वहां हमारी मौजूदगी क़रीब दिनभर बनी रहती है,” वह कहती हैं.
सेबियान टोपनो, वनरक्षा दल के सदस्य, पुर्नापानी गांव •
ऐसे आया ‘वनरक्षा’ का विचार
वनरक्षा दल क्यों बना, इस संबंध में बरसलोया-पुर्नापानी गांव के 54 वर्षीय सेबियान टोपनो कहते हैं कि “जब देशभर में कोरोना संक्रमण हुआ तो उस समय यहां के हालात अच्छे थे और न के बराबर मौत हुई, जबकि देशभर के शहर ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे थे. बावजूद इसके हम लोग ऑक्सीजन देने वाले जंगल की कटाई पर आंख बंद किये हुए हैं. ऐसे में हम ग्रामीणों ने तय किया कि इस क्षेत्र में ऑक्सीजन का स्रोत एकमात्र हरे-भरे जंगल हैं, जिसकी रक्षा करना हमारी ही ज़िम्मेदारी है.”
वह आगे कहते हैं, “शुरू में इस पहल में हमारे गांव के लोग तो सहयोग करते थे, परंतु पड़ोसी गांव के लोग साथ नहीं देते थे. तब वनरक्षक अनुज मिंज ने हमारा साथ दिया, उनके सहयोग से सभी ग्रामीणों की काउंसिलिंग की गई. उसके बाद जनवरी में स्थानीय चंदो बाज़ार में मुनादी हुई, जिसमें सभी ग्रामीण एकत्र हुए. तीन जनवरी को हमने बैठक में फ़ैसला लिया कि सभी ग्रामीण महिलाएं वनरक्षा का काम करेंगी, जबकि पुरुष उनका साथ देंगे.”
सेबियान के मुताबिक़, “मार्च का महीना ख़त्म होने को है, लेकिन अब कोई भी असामाजिक तत्व जंगल में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं करता.”
ग्रामीण महिलाओं के साथ ख़ाकी वर्दी में खड़े वन विभाग, कोलिबेरा के वनरक्षक अनुज मिंज •
क्या कहना है सरकारी वनरक्षक का?
वनरक्षक अनुज मिंज कहते हैं, “यह आसान नहीं था. मैं अक़्सर देखता था कि ग्रामीणों में जंगल की घटती सघनता को लेकर चिंता रहा करती थी. कभी-कभी जब ग्रामीण महिलाएं या पुरुष माफ़िया को जंगल की लकड़ी ले जाने से रोकते तो वे उनसे लड़ने के अंदाज़ में कहते कि यह जंगल आपकी ज़मीन पर नहीं है; वन विभाग की संपत्ति है. उस दौरान माफ़िया से निपटने में बहुत-से ग्रामीण साथ नहीं देते थे.”
साल 2017 से कोलिबेरा जंगल में बतौर वनरक्षक अपनी सेवा देने वाले अनुज मिंज आगे कहते हैं, “ऐसे हालात में मैं सभी ग्रामीणों को एकजुट करते हुए उन्हें समझाता कि जंगल किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि यह सामूहिक संपत्ति है जिसकी रक्षा की ज़िम्मेदारी हम सभी की है.”
ग्रामीणों को संगठित करने के परिणामस्वरूप वनरक्षा का ये सिलसिला बीते तीन जनवरी से आरंभ हुआ, जो आज तक जारी है.
लकड़ियों की अवैध कटाई का ज़िक्र करते हुए वह कहते हैं कि “जनवरी के आरंभ में ही फीकपानी गांव के नज़दीक एक गाड़ी में रखी गई लकड़ियों को स्थानीय महिलाओं ने पकड़ लिया. उसके बाद से सभी महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ा है. इस आत्मविश्वास को देखकर मुझे लगता है कि ये महिला गश्त दस्ता अपने इलाक़े के जंगलों की रक्षा करते रहेगा.”
गश्त दल की अध्यक्ष सुशीला टोपनो भी बड़े आत्मविश्वास से कहती हैं कि “जो हम कर रहे हैं, उसका लाभ हमारी आने वाली पीढ़ी को भी मिलेगा. झारखंड के सभी ग्रामीणों को अपने क्षेत्रों के जंगल की इसी प्रकार सुरक्षा करनी चाहिए.”
गश्त के दौरान वनरक्षक अनुज एवं ग्रामीण •
क्या है वन अधिकार अधिनियम?
लेखक एवं वन कानून के विशेषज्ञ सुधीर पाल के अनुसार, वन अधिकार अधिनियम (FRA) को 2006 में संसद द्वारा पारित किया गया था; जो आदिवासी समुदाय के अधिकारों को कानूनी दर्ज़ा देता है. उसके तहत अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों की भूमि के कार्यकाल, आजीविका के साधन और खाद्य सुरक्षा की गारंटी दी जाती है.
कोलिबेरा जंगल के ग्रामीणों द्वारा की जा रही इस पहल को लेकर झारखंड के फॉरेस्ट एक्टिविस्ट पाल कहते हैं, “दरअसल वन संरक्षण अधिनियम (FPA) वन विभाग का पुराना कानून है, लेकिन 2006 में फॉरेस्ट राइट एक्ट आया जिसके तहत जंगल के प्रबंधन, सुरक्षा, संरक्षण, संवर्धन आदि को अमल में लाने का अधिकार ग्राम सभाओं को है.”
वह आगे कहते हैं कि कोलिबेरा के ग्रामीणों ने यह पहल कर दिखा दिया है कि वे वन अधिकार अधिनियम के तहत अपनी ज़िम्मेदारी समझ रहे हैं और अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं. यह कानूनी तौर पर सही है, क्योंकि कानून ही कहता है कि जंगल का प्रबंधन, सुरक्षा, संरक्षण, संवर्धन आदि ग्राम सभाओं के द्वारा किया जाना है. ऐसे में ग्रामीणों के इस प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए.