Lac Cultivation: झारखंड के Palamu में ‘लाह’ की फसल को कितना प्रभावित कर रहा जलवायु परिवर्तन?

Lac Cultivation: झारखंड के Palamu में ‘लाह’ की फसल को कितना प्रभावित कर रहा जलवायु परिवर्तन?

प्रदेश भर में लाह किसानों के लिए मौसम की बेरुख़ी परेशानी का सबब बना हुआ है. फसल विशेषज्ञ एवं किसानों के मुताबिक़, जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता तापमान, बेमौसम बारिश आदि विभिन्न मौसमी घटनाएं लाह के उत्पादन को प्रभावित कर रही हैं.

“झारखंड के आदिवासी किसानों के लिए महुआ की तरह लाह (Lac) भी नक़दी फ़सल है. दोनों फ़सलों का यहां की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक योगदान है.” ये शब्द विनोद कुमार के हैं, जो सोसाइटी फॉर प्रमोशन ऑफ़ वेस्टलैंड्स डेवलपमेंट (Society for Promotion of Wastelands Development) के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर हैं. वह पिछले 12 साल से झारखंड के आदिवासियों के बीच लुप्त होते लाह को ज़िंदा करने के लिए काम कर रहे हैं.


विनोद कुमार, लाह एक्सपर्ट •

विनोद कुमार वर्ष 2010 में एसपीडब्ल्यूडी के लाह प्रोजेक्ट से जुड़े. वह बताते हैं, “उस समय पलामू व लातेहार जैसे क्षेत्रों में लाह का कल्टीवेशन बंद था. जब मैंने इलाक़े में भ्रमण करने के दौरान वहां के युवा आदिवासियों से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि हां, बचपन में देखा था लेकिन अब नहीं होता.”

“उसके बाद मैंने इसके बारे में बुज़ुर्गों से जानने की कोशिश की. उन्होंने बताया कि वे लोग पुरानी तकनीक से काम करते थे, जिसमें पैदावार कम होती थी. यह जानने के बाद मैंने तय किया कि नौजवानों को वैज्ञानिक तकनीक से लाह की खेती करवाऊंगा. इस मकसद से क्षेत्रीय किसानों को जोड़ने के लिए एसपीडब्ल्यूडी ने रांची स्थित राष्ट्रीय माध्यमिक कृषि संस्थान (पूर्व में भारतीय प्राकृतिक राल एवं गोंद संस्थान) और भारतीय लाख अनुसंधान संस्थान के साथ मिलकर लाह फार्मिंग के लिए ट्रेनिंग देना आरंभ किया,” विनोद कुमार ने अपनी बात में जोड़ा.

पलामू में पहले लाह की खेती करने वाले रविंद्र भुंइया मानते हैं कि पहले जो खेती होती थी; वह वर्षों पुरानी तकनीक थी. लेकिन एसपीडब्ल्यूडी एवं भारतीय प्राकृतिक राल एवं गोंद संस्था (Indian Institute of Natural Resins and Gums) की कोशिशों से लाह की खेती एक बार फिर आदिवासियों की आय का ज़रिया बनी. हालाँकि, अब जब आदिवासी लाह की खेती में निपुण हो गए हैं तो मौसम की बेरुखी उनके लिए परेशानी का सबब बना हुआ है.

“जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण बढ़ता तापमान, बेमौसम बारिश या सर्दी के दिनों में कड़ाके की ठंड के बीच होने वाला कुहासा लाह की खेती को साल दर साल प्रभावित कर रहा है,” चिंतित स्वर में कहे गए ये शब्द मंदीप सिंह के हैं.


मंदीप सिंह, किसान, पलामू •

जलवायु परिवर्तन का लाह पर पड़ रहा असर

लाह फार्मिंग विशेषज्ञ विनोद कुमार, किसान मंदीप सिंह की बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लाह के होस्ट जैसे बेर, कुसुम व पलास के पौधे में रस कितना है. यदि उनमें रस कम है और जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान बढ़ने से पानी की कमी होगी, तो पेड़ की टहनी सूख जाती है और टहनी सूखते ही केरिडी (Kerriidae) कीड़े मर जाते हैं. ऐसे में पहली शर्त तो यही है कि लाह की खेती उसी पेड़ पर करनी चाहिए जिसके नज़दीकी सतह पर पानी के स्रोत जैसे; तालाब आदि हों.


नई फसल के लिए पेड़ पर लगाया गया लाह का बीज •

“दूसरा ये कि उन पेड़ों के नज़दीक यदि बड़े और छांव देने वाले वृक्ष हैं तो बढ़ते तापमान का असर लाह पर कम पड़ेगा. वरना यहां 45 डिग्री तापमान पर चलने वाली हवा लाह के कीड़ों की मौत का स्वाभाविक कारण बनती हैं. तीसरी बात कि यदि पलाश का पेड़ निचली सतह (Low Land) पर है, तो वह भी लाह की खेती के लिए बेहतर होता है,” विनोद कुमार ने जोड़ा.

वहीं, स्थानीय किसान मंदीप सिंह कहते हैं कि लाह के लिए सबसे बड़ी चुनौती गर्मी है, जबकि अधिक बारिश भी नुक़सानदेह है. उनके मुताबिक़, “कुहासा भी लाह की फसल का बहुत बड़ा दुश्मन है, ऐसे में साल भर लाह की खेती में मौसम की मार का ख़तरा बना रहता है.”

पलामू में लाह के बड़े व्यापारियों में से एक रमेश साव कहते हैं, “पिछले कुछ वर्षों में लाह की खेती जितनी बढ़ी है, जलवायु परिवर्तन के कारण उसकी पैदावार उतनी ही घटी है.”

स्थानीय लाह व्यापारी बाबूलाल कहते हैं कि साल दर साल सूखा पड़ने के कारण तालाब, नाले और कुएं सब सूख गए हैं, जिसके कारण लाह की पैदावार घटी है.

वहीं, किसान सुनील राम कहते हैं कि जब लाह की फसल लगाई जाती है; उस समय यदि बेमौसम बारिश हो गई तो फसल बर्बाद हो जाती है. यह भी तो जलवायु परिवर्तन का ही प्रभाव है.

जबकि, विनोद कुमार कहते हैं कि एक मसला और भी है; केरिडी के शत्रु कीट भी बढ़ रहे हैं जो लाह की फसल बर्बाद कर रहे हैं. उसके लिए पेसटिसाइड का भी इस्तेमाल हो रहा है. लेकिन ज़रूरत यह जानने की है कि बढ़ते शत्रु कीट के लिए जलवायु परिवर्तन कितना बड़ा कारण है.


नई फसल के लिए पेड़ पर लाह का बीज लगाते हुए किसान •

पलायन को मजबूर लाह किसान

राजेश उरांव, लातेहार ज़िले के जान्हो पंचायत के रहने वाले हैं. 10 साल से लाह की खेती करने वाले राजेश उरांव कभी लाह बेच कर 50 हज़ार रुपये तक की आय अर्जित करते थे, लेकिम बीते तीन वर्षों से उनको लाह में बहुत घाटा हो रहा है. वह बताते हैं, “इस साल लाह बेच कर 20 हज़ार ही मिले, जबकि पिछले साल तो एक रुपया भी नहीं निकल सका.”

वह आगे कहते हैं कि “साल 2022 में मुझे मात्र आठ हज़ार रुपये ही अर्जित हुए; तब घर की आर्थिक स्थिति आर्थिक बहुत बिगड़ गई, जिसके कारण मुझे पलायन करते हुए जान्हो से 30 किलोमीटर दूर लातेहार आना पड़ा.”

40 वर्षीय राजेश उरांव के अनुसार वह दो साल से लातेहार में मज़दूरी कर रहे हैं. यहां उनको चार सौ रुपये दिहाड़ी मिलती है. वह कहते हैं कि “यहां महीने में 20 से 25 दिन ही काम मिलता है. मैं दो वर्षों से इसी इंतज़ार में हूं कि किसी तरह लाह की खेती में सुधार हो जाए तो मज़दूरी छोड़कर घर वापस लौट जाऊं.”

लाह की खेती में किस प्रकार का नुक़सान हो रहा है? इस सवाल पर राजेश कहते हैं कि पिछले कई साल से लाह के कीड़े फरवरी महीने में अधिक गर्मी पड़ने से मर जाते हैं, जिसके कारण लाह की पैदावार ख़राब हो रही है.

इस समस्या से निपटने के लिए आपने क्या उपाय किए? इस पर राजेश कहते हैं कि “मौसम की बेरुख़ी के सामने कोई उपाय नहीं चलता, तो भला कैसे निपटता; इसलिए अब बाहर मज़दूरी करनी पड़ रही है.”

आप झारखंड से बाहर क्यों नही गए? इस सवाल पर उरांव कहते हैं, “लातेहार नज़दीक है तो हफ़्ते में एक-दो दिन के लिए घर चला जाता हूं, क्योंकि परिवार में सिर्फ़ एक बेटा व पत्नी हैं. रोज़गार के लिए यदि बाहर रहूंगा तो महीनो घर नहीं आ सकता, ऐसे में परिवार को कौन देखेगा.”


पेड़ पर एकत्र लाह •

किन चीज़ों में होता है लाह का इस्तेमाल?

विनोद कुमार के मुताबिक़, “भारत से उत्पादित लगभग 85 फ़ीसद लाह दूसरे देशों में निर्यात किया जाता है. पारंपरिक तौर पर उसका इस्तेमाल चूड़ियों को बनाने से लेकर सरकारी कार्रवाई में सील में होता था, हालांकि आधुनिक युग में दूसरे कामों के लिए भी लाह की मांग बढ़ गई है. आज कॉस्मेटिक इंडस्ट्रीज़ में लाह की काफ़ी डिमांड है, साथ ही बिजली उपकरणों में उसका इस्तेमाल बढ़ा है. उसके अलावा पानी जहाज़ के निर्माण में बाहरी कोटिंग के लिए लाह का इस्तेमाल बड़ी मात्रा में किया जाता है. वहीं, फर्नीचर के पॉलिश में भी लाह का प्रयोग किया जाता है.”

“लाह चूंकि पूर्णतः प्राकृतिक है, इसलिए उसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है. प्राकृतिक लाह की गुणवत्ता का वैकल्पिक लाह सिंथेटिकली नहीं बनाया जा सकता है,” वह जोड़ते हैं.

विनोद आगे कहते हैं कि लाह चूंकि खाने योग्य चीज़ है इसलिए उसका इस्तेमाल फलों के ऊपर होने वाली कोटिंग के लिए भी किया जाता है, जिसके कारण फलों का जीवन दो से तीन दिन बढ़ जाता है. लेकिन, उसके लिए शर्त यह है कि खाद्य सामग्री में वही लाह इस्तेमाल हो सकता है जिसमें कीटनाशक, यानी पेस्टिसाइड का प्रयोग न किया गया हो.


(लाह की पैदावार कम होने का कारण और सरकारी आंकड़े जानने के लिए हमने भारतीय प्राकृतिक राल एवं गोंद संस्था के संबंधित वैज्ञानिकों से बात करने की कोशिश की, लेकिन उनकी तरफ़ से कोई जवाब नहीं मिला।)

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